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सोनिया गांधी खुद को अध्यक्ष मानती होंगी लेकिन गहलोत जैसे नेता मानते कहां हैं?

    • आईचौक
    • Updated: 28 सितम्बर, 2022 06:44 PM
  • 28 सितम्बर, 2022 06:44 PM
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को उनकी टीम के अलावा तो सब हल्के में ही लेते रहे हैं. अब सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को भी चुनौती मिलने लगी है, खासकर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) जैसे नेताओं से - और सबसे बड़ा चैलेंज ऐसे नेताओं को हैंडल करने की है.

कांग्रेस की तमाम दुश्वारियों के लिए अब तक सीधे सीधे राहुल गांधी को दोष दिया जाता रहा है. लेकिन अभी बिलकुल वैसा ही सोचना ठीक नहीं होगा. कांग्रेस में हाल फिलहाल जो कुछ भी हो रहा है, निश्चित तौर पर राहुल गांधी की उसमें मुख्य भूमिका रहती होगी - लेकिन जो कुछ भी हुआ है वो सीधे सीधे सोनिया गांधी की अथॉरिटी पर सवाल उठाने वाला है.

भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए अभी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव पहली प्राथमिकता है, लेकिन राजस्थान कांग्रेस संकट में रेग्युलेटर के रोल में भी वही हैं, अंतरिम अध्यक्ष होने के नाते की-पर्सन सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) हो जाती हैं - कांग्रेस आलाकमान का माना हुआ मतलब अभी के लिए तो राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों ही हैं, लेकिन राजस्थान का मामला सीधे सीधे सोनिया गांधी से जुड़ा है.

राजस्थान से जुड़ी चीजें तो औपचारिक तौर पर सोनिया गांधी के इर्द गिर्द ही घूम रही हैं, लेकिन राहुल गांधी भी उनकी ही तरह कांग्रेस में अपरिवर्तनीय शक्ति केंद्र बने हुए हैं. एक तकनीकी तौर पर, दूसरा व्यावहारिक तौर पर. एक को फैसला लेना है, दूसरे को दस्तखत करनी है. एक सिस्टम को अपने हिसाब से नचाता है, एक सिस्टम से मिले अधिकार का इस्तेमाल करता है - सोनिया गांधी और राहुल गांधी होने का फर्क यही है.

अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) ने भारत जोड़ो यात्रा के बीच कोच्चि में ही बोल दिया था कि राजस्थान का मामला कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी और राजस्थान के प्रभारी महासचिव अजय माकन के हवाले है. ये बात भी अशोक गहलोत ने तब कही जब राहुल गांधी का बयान आया कि कांग्रेस में 'एक व्यक्ति, एक पद' लागू होकर ही रहेगा. चूंकि मोर्चे पर और कांग्रेस में भविष्य के नेता राहुल गांधी ही हैं, लिहाजा सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही मिलने के लिए भारत जोड़ो यात्रा में ही पहुंच गये. राहुल गांधी ने दोनों की बातें सुन ली. देखा कि सचिन पायलट शांत हैं, और अशोक गहलोत थोड़ा उछल रहे हैं, इसलिए उदयपुर चिंतन शिविर के कमिटमेंट का हवाला देकर चुप करा...

कांग्रेस की तमाम दुश्वारियों के लिए अब तक सीधे सीधे राहुल गांधी को दोष दिया जाता रहा है. लेकिन अभी बिलकुल वैसा ही सोचना ठीक नहीं होगा. कांग्रेस में हाल फिलहाल जो कुछ भी हो रहा है, निश्चित तौर पर राहुल गांधी की उसमें मुख्य भूमिका रहती होगी - लेकिन जो कुछ भी हुआ है वो सीधे सीधे सोनिया गांधी की अथॉरिटी पर सवाल उठाने वाला है.

भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए अभी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव पहली प्राथमिकता है, लेकिन राजस्थान कांग्रेस संकट में रेग्युलेटर के रोल में भी वही हैं, अंतरिम अध्यक्ष होने के नाते की-पर्सन सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) हो जाती हैं - कांग्रेस आलाकमान का माना हुआ मतलब अभी के लिए तो राहुल गांधी और सोनिया गांधी दोनों ही हैं, लेकिन राजस्थान का मामला सीधे सीधे सोनिया गांधी से जुड़ा है.

राजस्थान से जुड़ी चीजें तो औपचारिक तौर पर सोनिया गांधी के इर्द गिर्द ही घूम रही हैं, लेकिन राहुल गांधी भी उनकी ही तरह कांग्रेस में अपरिवर्तनीय शक्ति केंद्र बने हुए हैं. एक तकनीकी तौर पर, दूसरा व्यावहारिक तौर पर. एक को फैसला लेना है, दूसरे को दस्तखत करनी है. एक सिस्टम को अपने हिसाब से नचाता है, एक सिस्टम से मिले अधिकार का इस्तेमाल करता है - सोनिया गांधी और राहुल गांधी होने का फर्क यही है.

अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) ने भारत जोड़ो यात्रा के बीच कोच्चि में ही बोल दिया था कि राजस्थान का मामला कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी और राजस्थान के प्रभारी महासचिव अजय माकन के हवाले है. ये बात भी अशोक गहलोत ने तब कही जब राहुल गांधी का बयान आया कि कांग्रेस में 'एक व्यक्ति, एक पद' लागू होकर ही रहेगा. चूंकि मोर्चे पर और कांग्रेस में भविष्य के नेता राहुल गांधी ही हैं, लिहाजा सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही मिलने के लिए भारत जोड़ो यात्रा में ही पहुंच गये. राहुल गांधी ने दोनों की बातें सुन ली. देखा कि सचिन पायलट शांत हैं, और अशोक गहलोत थोड़ा उछल रहे हैं, इसलिए उदयपुर चिंतन शिविर के कमिटमेंट का हवाला देकर चुप करा दिया.

राहुल गांधी ने तो बोल ही दिया था, 'एक व्यक्ति, एक पद' - एक बार कमिटमेंट कर दी है - तो सबको मानना पड़ेगा. अशोक गहलोत ने फौरन मान भी लिया. मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने को तैयार हो गये, लेकिन अगले मुख्यमंत्री सचिन पायलट ही होंगे, भला अशोक गहलोत ये कैसे मान लेते. धीरे से, परदे के पीछे से अपनी चाल चल भी दी. अशोक गहलोत ने बड़ी होशियारी से खुद को सीन से बाहर कर लिया - और क्लीन चिट भी तो इसीलिए ही मिली है क्योंकि अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे कोई सबूत पेश ही कहां से कर पाते. जो कांग्रेस विधायक अशोक गहलोत के टूल बने उनको नोटिस भी मिल ही गया. वे ये तो बताने से रहे कि ये सब वो अशोक गहलोत के करने पर किये हैं - वे तो घूम घूम कर मीडिया में भी लड़ाई लड़ रहे हैं.

बाद में अशोक गहलोत की तरफ से बड़ी ही मासूमियत के साथ समझाने की भी कोशिश होती है कि विधायकों ने जो किया है, उसमें उनका कोई हाथ नहीं है. जो नेता विधायकों को लेकर होटल होटल घूमता रहता हो. होटल से बस में बिठा कर राजभवन परिसर में धरने पर बिठा देता हो. दिल्ली निकलने से पहले घर पर बुला कर आश्वस्त करता हो कि मैं कहीं दूर नहीं जा रहा हूं - और अगर कांग्रेस अध्यक्ष का पर्चा भरा तो सबको दिल्ली आना पड़ेगा. क्या ऐसे नेता की बात विधायक नहीं मानेंगे भला?

अशोक गहलोत दूर से मजे ले रहे हैं, लेकिन वो ये भूल जाते हैं कि कितना बड़ा जोखिम लिया है. उस गांधी परिवार का भरोसा तोड़ डालने का जोखिम जो उनकी हर बात आंख मूंद कर सिर्फ सुनता ही नहीं रहा, मान भी लेता रहा है. कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से तो बड़ी संजीदगी से उनको मैसेज देने की कोशिश की गयी है - फिर भी वो कहां मानने वाले हैं?

और ये हाल तब है, जब सवाल उठाये जाने पर सोनिया गांधी बड़े ही अदब और तहजीब भरे अंदाज में CWC की भरी सभा में कह चुकी हैं कि वो ही कांग्रेस अध्यक्ष हैं. मतलब, ये समझा जाये कि अंतरिम होते हुए भी कामकाज वो बतौर कांग्रेस अध्यक्ष ही कर रही हैं. मतलब ये समझा जाये कि जो भी फैसले लिये जा रहे हैं, सब वही लेती हैं.

जब सोनिया गांधी का अधिकृत वारंट लेकर अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे जयपुर पहुंचे थे, तो अशोक गहलोत ने सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि आलाकमान का मान बना रहे? कभी G-23 नेताओं पर टूट पड़ने वाले अशोक गहलोत के साथी अब भी टीवी पर सामने आकर सचिन पायलट को गद्दार साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. G-23 नेताओं ने तो चिट्ठी ही लिखी थी और मकसद कांग्रेस का सुधार था, लेकिन अशोक गहलोत ने तो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए पूरा जाल बिछा दिया है.

अभी जबकि नामांकन तक नहीं दाखिल किया है तो ये हाल है, अगर कहीं कांग्रेस अध्यक्ष बन गये तो क्या हाल होगा? ये गांधी परिवार की मजबूरी है कि अशोक गहलोत की उनको जरूरत है, उसी का वो फायदा भी उठा रहे हैं - लेकिन कब तकs?

गहलोत तो ऐसा करते ही आये हैं

अशोक गहलोत अपने लंबे कॅरियर में लगभग हर तरह की भूमिका निभा चुके है. कांग्रेस की सरकार में भी और संगठन में भी - ध्यान देने वाली बात ये है कि 1998 में ही सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं और अशोक गहलोत भी पहली बार उसी साल राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे. उससे पहले अशोक गहलोत केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके थे.

फर्ज कीजिये, सोनिया गांधी की जगह किसी और के हाथ में कांग्रेस की कमान होती - तो अशोक गहलोत क्या करते?

राजनीति को तो सोनिया गांधी काफी पहले से ही काफी करीब से देख रही थीं, लेकिन जब कांग्रेस की कमान संभाली तो बहुत सारे नेताओं के मदद की जरूरत महसूस हुई. अशोक गहलोत भी कांग्रेस के उन नेताओं में शुमार हैं जो तभी से सोनिया गांधी के मददगार बने रहे. एक बार विश्वास हासिल कर लिया तो बार बार उसी का इस्तेमाल करते रहे हैं.

तभी तो सचिन पायलट को गलत साबित करने में वो उठा नहीं रखे. निकम्मा, नकारा और पीठ में छुरा भोंकने वाला क्या क्या नहीं बताया और सोनिया गांधी आंख मूंद कर सब सुनती रहीं. 2017 में जब राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी हो रही थी, तभी गुजरात में चुनाव हुए और सोनिया गांधी ने जिन दो लोगों को राहुल गांधी के साये की तरह अगल बगल खड़ा किया, अशोक गहलोत भी एक थे. एक तो अहमद पटेल ही हुआ करते थे. ताउम्र सोनिया गांधी के सबसे भरोसेमंद नेता. अभी तो अहमद पटेल की कमी सबसे ज्यादा खल रही होगी.

मौके की नजाकत को देखते हुए सचिन पायलट बिलकुल ही अनुशासित और धैर्यवान कार्यकर्ता की तरह पेश आ रहे हैं. राजनीति की ऐसी इबारतें तो अशोक गहलोत लिखे जाने के पहले ही बांच लेते हैं, तभी तो वो भी बस परदे के पीछे से चालें चल रहे हैं सामने मोर्चे पर खामोश हो जाते हैं. 2020 के झगड़े के दौरान अशोक गहलोत बार बार मीडिया के सामने आया करते थे, लेकिन अभी तो हाल ये है कि मुख्यमंत्री आवास से दूर ही मीडिया को रोक दिया जा रहा है. काम तो हो ही रहा है. काम भी वही हो रहा है जो अशोक गहलोत चाहते हैं.

कोई और नहीं, बल्कि राहुल गांधी ने ही बताया था कि कैसे अशोक गहलोत ने 2019 के चुनाव में बेटे के टिकट के लिए दबाव बनाया था. राहुल गांधी ने ये बात कांग्रेस कार्यकारिणी में बतायी थी, और उनकी बातों से साफ लग रहा था कि वो हरगिज नहीं चाहते थे कि बेटे को टिकट दिया जाये. वैसे अशोक गहलोत का बेटा चुनाव हार भी गया था.

ये सब सरेआम सुनाये जाने और सुनने के बावजूद अशोक गहलोत की कार्यशैली में कभी कोई फर्क नहीं आया. इस वाकये के साल भर बाद ही वो विधायकों को ऐसे घुमाते रहे जैसे बिल्लियां अपने बच्चों को सुरक्षित रखने के गर्दन पकड़ कर जगह जगह ले जाती रहती हैं. और तब तक अकेला नहीं छोड़तीं जब तक ये भरोसा न हो जाये कि आगे कोई दिक्कत नहीं होने वाली है.

और उसके बाद की भी बात की जाये तो अशोक गहलोत उन फैसलों पर भी अमल करने में तब तक टालमटोल करते रहे जब तक कि कोई न कोई रास्ता बचा रहा. खबर तो यहां तक आयी कि वो राजस्थान के प्रभारी महासचिव अजय माकन के फोन तक उठाने बंद कर दिये थे - माकन तो मैसेंजर हैं, एक लिहाज से अशोक गहलोत आलाकमान के आदेशों की ही अवहेलना कर रहे थे - वही सिलसिला अब भी जारी है.

और गहलोत अकेले ऐसा नेता भी नहीं हैं

2019 में बेटे के लिए लोक सभा टिकट को लेकर जिद करने वाले नेताओं के बारे जब राहुल गांधी कांग्रेस कार्यकारिणी में बता रहे थे तो अशोक गहलोत के साथ ही कमलनाथ का भी नाम लिया था. दोनों बेटों के प्रदर्शन में फर्क ये रहा कि कमलनाथ के बेटे ने चुनाव जीत लिया था.

कमलनाथ और अशोक गहलोत के साथ ही 2018 में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल भी मुख्यमंत्री बने थे - और तीनों के मामले एक बात कॉमन है कि तीनों ही कांग्रेस नेतृत्व पर दबाव डालकर मुख्यमंत्री बने थे. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों ही राज्यों में कांग्रेस के भीतर एक जैसा ही झगड़ा रहा.

कमलनाथ ने तो ऐसी जिद पकड़ी कि कांग्रेस को सरकार तक गंवानी पड़ी लेकिन ज्योतिरादित्यनाथ सिंधिया से कुछ भी शेयर करने को तैयार नहीं ही हुए. जब सचिन पायलट और अशोक गहलोत का झगड़ा चरम पर था, तब भी बार बार मध्य प्रदेश की राजनीतिक स्थिति ही सामने नजर आती रही.

और अब भी जैसे अशोक गहलोत ने राजस्थान में बवाल मचा रखा है, छत्तीसगढ़ के मामले में भूपेश बघेल भी तो यही कर रहे हैं - टीएस सिंहदेव से राहुल गांधी के वादा करने के बावजूद भूपेश बघेल उनको मुख्यमंत्री बनने नहीं दे रहे हैं.

अब तो ये भी साफ हो चला है कि टीएस सिंह देव की ही तरह राहुल गांधी सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाये जाने के पक्ष में हो गये हैं, लेकिन जैसे भूपेश बघेल अपने दांवपेंच में गांधी परिवार को उलझाये रखते हैं, अशोक गहलोत भी तो वही कर रहे हैं.

सिर्फ अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को ही कौन कहे, अपने अपने दौरे में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी मनमानी ही की है - और हर बार देखा तो यही गया कि गांधी परिवार को झुकना ही पड़ा है.

अब तक सिर्फ नवजोत सिंह सिद्धू ही ऐसे कांग्रेस नेता रहे हैं जो डंके की चोट पर खुल कर कह चुके हैं - मैं कोई दर्शानी घोड़ा नहीं हूं. और तभी ये भी बताया था कि ये वो आलाकमान के मुंह पर बोल आये थे.

ये हाल तब है जब सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं

अगर राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष नहीं बनी होतीं तो क्या हाल हो रहा होता? अगर बहुत पहले ही गांधी परिवार से इतर कोई कांग्रेस अध्यक्ष बन चुका होता तो क्या होता?

पूत के पांव तो पालने में नजर आने ही लगे हैं, बल्कि और भी पहले ही. ये तो बस रुझान भर हैं, राहुल गांधी के गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष एक्सपेरिमेंट के नतीजे कैसे होंगे - अंदाजा भर लगाया जा सकता है.

कांग्रेस में हाल फिलहाल जो भी हो रहा है. और जो कुछ भी होने वाला है, एक ही बात कही जा सकती है. बिलकुल भी अच्छा नहीं हो रहा है. और अगर ठीक से हैंडल नहीं किया गया तो और भी बुरा हो सकता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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