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Demonetisation verdict: एक बार फिर सुप्रीम फैसला इसलिए मंजूर है चूंकि मजबूरी है!

    • prakash kumar jain
    • Updated: 04 जनवरी, 2023 05:28 PM
  • 04 जनवरी, 2023 05:28 PM
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पंचों का फैसला शिरोधार्य कभी होता था. कोई नुक्ताचीनी नहीं होती थी. आज आलम ये है कि फ़ैसला अपनी मर्ज़ी का है तो पंच परमेश्वर हैं और यदि फ़ैसला विपरीत आ गया तो सवाल खड़े करने के लिए तमाम नुक़्ते तलाश लिए जाते हैं.

पंचों का फैसला शिरोधार्य कभी होता था. कोई नुक्ताचीनी नहीं होती थी. आज आलम ये है कि फ़ैसला अपनी मर्ज़ी का है तो पंच परमेश्वर हैं और यदि फ़ैसला विपरीत आ गया तो सवाल खड़े करने के लिए तमाम नुक़्ते तलाश लिए जाते हैं. और सवालों के घेरे में पंच भी आ जाते हैं मसलन दो दिन बाद संविधानिक पीठाध्यक्ष न्यायमूर्ति रिटायर हो रहे हैं या फिर असहमति रखने वाली एकमेव न्यायमूर्ति इसलिए बाक़ी चारों पर भारी है चूंकि वह भावी चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हैं. और जब कथित बुद्धिजीवी जमात फ़ैसले के प्रति क्रिटिकल होने के अतिरेक में न्यायमूर्तियों के प्रति क्रिटिकल हो जाती हैं तब लोकतंत्र क्रिटिकल स्थिति में आ जाता है. लोक मानस हतप्रभ हो जाता है चूंकि निहित स्वार्थवश स्वस्थ आलोचना की दुहाई देकर न्यायपालिका के विजडम पर सवाल उठाये जाते हैं.विडंबना ही है कि इसी संविधान पीठ के एक अन्य फैसले में भी न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने साथी चार जजों से असहमति जताई है. पीठ का फैसला है कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बोलने की स्वतंत्रता पर अधिक प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि अनुच्छेद 19(2) में पहले से ही बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और वे अंतिम हैं.

नोटबंदी पर जो फैसला जस्टिस बीवी नागारत्ना ने सुनाया है बात तो उसपर भी होनी चाहिए

हालांकि जस्टिस नागरत्ना ने माना कि अनुच्छेद 19(2) के प्रावधान संपूर्ण हैं लेकिन उन्होंने मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बेवजह की बयानबाजियों पर तल्ख़ टिपण्णियां करते हुए स्पष्ट और विपरीत बात कही कि अगर कोई मंत्री अपनी आधिकारिक क्षमता में अपमानजनक बयान देता है, तो ऐसे बयानों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि अब कोई एक्स्ट्रा विद्वान राजनीतिज्ञ या बुद्धिजीवी माननीय नागरत्ना को...

पंचों का फैसला शिरोधार्य कभी होता था. कोई नुक्ताचीनी नहीं होती थी. आज आलम ये है कि फ़ैसला अपनी मर्ज़ी का है तो पंच परमेश्वर हैं और यदि फ़ैसला विपरीत आ गया तो सवाल खड़े करने के लिए तमाम नुक़्ते तलाश लिए जाते हैं. और सवालों के घेरे में पंच भी आ जाते हैं मसलन दो दिन बाद संविधानिक पीठाध्यक्ष न्यायमूर्ति रिटायर हो रहे हैं या फिर असहमति रखने वाली एकमेव न्यायमूर्ति इसलिए बाक़ी चारों पर भारी है चूंकि वह भावी चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया हैं. और जब कथित बुद्धिजीवी जमात फ़ैसले के प्रति क्रिटिकल होने के अतिरेक में न्यायमूर्तियों के प्रति क्रिटिकल हो जाती हैं तब लोकतंत्र क्रिटिकल स्थिति में आ जाता है. लोक मानस हतप्रभ हो जाता है चूंकि निहित स्वार्थवश स्वस्थ आलोचना की दुहाई देकर न्यायपालिका के विजडम पर सवाल उठाये जाते हैं.विडंबना ही है कि इसी संविधान पीठ के एक अन्य फैसले में भी न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने साथी चार जजों से असहमति जताई है. पीठ का फैसला है कि मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बोलने की स्वतंत्रता पर अधिक प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि अनुच्छेद 19(2) में पहले से ही बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और वे अंतिम हैं.

नोटबंदी पर जो फैसला जस्टिस बीवी नागारत्ना ने सुनाया है बात तो उसपर भी होनी चाहिए

हालांकि जस्टिस नागरत्ना ने माना कि अनुच्छेद 19(2) के प्रावधान संपूर्ण हैं लेकिन उन्होंने मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बेवजह की बयानबाजियों पर तल्ख़ टिपण्णियां करते हुए स्पष्ट और विपरीत बात कही कि अगर कोई मंत्री अपनी आधिकारिक क्षमता में अपमानजनक बयान देता है, तो ऐसे बयानों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि अब कोई एक्स्ट्रा विद्वान राजनीतिज्ञ या बुद्धिजीवी माननीय नागरत्ना को 'डिस्सेंटिंग जज फॉरएवर' के तमगे से नवाज दें.

दोनों ही फैसलों में विद्वान न्यायमूर्ति असहमति रखते हुए भी अंतिम फैसले को प्रभावित नहीं करती मसलन नोटबंदी के मामले में भी उनका निष्कर्ष यही है कि 'नोटबंदी संदेह से परे थी, सुविचारित भी थी और सर्वोत्तम इरादे और नेक उद्देश्य सवालों के घेरे में नहीं हैं. इस उपाय को केवल विशुद्ध रूप से कानूनी विश्लेषण पर गैरकानूनी माना गया है, न कि डिमोनेटाइजेशन के उद्देश्य पर.' तदनुसार उन्होंने स्पष्ट भी किया कि याचिकाकर्ताओं को कोई राहत नहीं दी जा सकती.

लेकिन फिर भी सरकार विरोधी तबका, जिसमें विपक्ष भी और विपक्ष में कांग्रेस प्रमुख रूप से शामिल हैं, उनकी असहमतियों पर इस कदर मुखर हैं कि ना केवल तमाम बिंदुओं पर मेजोरिटी द्वारा दिए गए सिलसिलेवार निर्णय के आधार गौण कर दिए जा रहे हैं बल्कि उनके निष्कर्ष पर भी चुप्पी साध ली जा रही है.

और ऐसा होने की एकमात्र वजह सत्तालोलुप राजनीति है. नोटबंदी की तमाम 58 याचिकाओं ने सरकार के कदम को बदनीयती से उठाया गया नियम विपरीत ग़ैरक़ानूनी कदम बताया था, तदनुसार प्रचारित भी किया था . परिणामों का ज़िक्र किया ज़रूर था लेकिन परिणामों के आधार पर नोटबंदी से राहत नहीं मांगी थी. अपेक्षित परिणाम हुए या दुष्परिणाम हुए, विवादास्पद कल भी थे, आज भी है और कल भी रहेंगे; राजनीति यही तो है.

याचिकाओं के सभी बिंदुओं पर पीठ ने सरकार को क्लीन चिट दी और कहा कि नोटबंदी से पहले केंद्र और आरबीआई के बीच सलाह-मशविरा हुआ था, आवश्यक उचित प्रक्रिया का पालन हुआ था, कोई तुगलकी फरमान टाइप मनमाना फैसला नहीं था, सही नीयत से सही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कदम लिया गया था, नोट बदलवाने के लिए दिया गया बावन दिनों का समय भी पर्याप्त था.

आरबीआई एक्ट की धारा 26(2) का सीमित अर्थ नहीं निकाला जा सकता इस मायने में कि 'कोई भी' का मतलब 'सभी'  कदापि नहीं होगा. इसके अलावा पीठ ने सरकार द्वारा ऑर्डिनेंस या पार्लियामेंट्री रूट से हटकर कार्यकारी आदेश के माध्यम से नोटबंदी लागू करने को भी जायज ठहराया. अब चूंकि कांग्रेस के धुरंधरों ने ट्विस्ट ले ही लिया है 'नोटबंदी के परिणामों' वाला, दिलचस्प रहेगा देखना वे कब तक कायम रह पाते हैं और स्कोर कर पाते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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