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Sanjay Raut on Sonu Sood: सोनू भले महात्मा न हों, संजय राउत क्या हैं ये पता चल गया

    • सर्वेश त्रिपाठी
    • Updated: 07 जून, 2020 09:00 PM
  • 07 जून, 2020 09:00 PM
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बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद (Sonu Sood) द्वारा प्रवासी मजदूरों (Migrant Workers) और कामगारों को की गई मदद पर राजनीति करके शिवसेना (Shiv Sena) नेता संजय राउत (Sanjay Raut) ने खुद को और पार्टी दोनों को मुश्किल में डाल दिया है.

शिवसेना (Shivsena) के मुखपत्र सामना (Saamana) में लिखे अपने लेख में शिवसेना नेता संजय राउत (Sanjay Raut) द्वारा अभिनेता सोनू सूद (Sonu Sood) के प्रति व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी की गई. इसे भविष्य के उत्तर प्रदेश (ttar Pradesh) और बिहार (Bihar) के चुनावी समर से जोड़ कर भाजपा (BJP) को घेरने का भी प्रयास किया गया. संजय राउत का यह भी कहना था कि राजनीतिक कारणों से सोनू सूद के कार्यों को इतना बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है कि जनमानस में ऐसी छवि निर्मित हो कि ठाकरे सरकार इस स्थिति को संभालने में अक्षम साबित हो रही. जैसा कि विदित है, लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान अभिनेता सोनू सूद ने अपने निजी खर्च पर बिहार और उत्तरप्रदेश के कई मजदूरों और कामगार लोगों को अपने सुरक्षित घर वापसी के लिए साधन मुहैय्या कराया. सोनू सूद के इस कार्य की मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में काफ़ी चर्चा प्रशंसा हुई. सोशल मीडिया पर विशेषकर फेसबुक पर अभिनेता सोनू सूद के चित्रों को लोग सम्मानवश अपनी डीपी और कवर फोटो भी बनाने लगे. जैसा कि हम सबने लॉकडाउन में महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले मजदूरों और कामगारों को लॉकडाउन के प्रथम चरण से आवागमन सुविधाओं को रोक दिए जाने के कारण पैदल ही अपने परिवार और कई उदाहरणों में अपनी पूरी गृहस्थी के साथ अपने राज्यों में वापस लौटते देखा.

सामना में जो संजय राउत ने सोनू सूद के लिए लिखा है उसने शिवसेना का असली चेहरा दिखा दिया है

इस घर वापसी की प्रक्रिया में कई हृदय विदारक दृश्य भी सामने आए. सड़को और राजमार्गों पर दम तोड़ने से लेकर छालों और खून से सने पैरों को सबने देखा. इसी दौरान कई समाजसेवी संगठनों के अतिरिक्त आप जनता की व्यक्तिगत पहल से इन राहगीरों को भोजन पानी से लेकर जूते चप्पल तक मुहैय्या कराए गए....

शिवसेना (Shivsena) के मुखपत्र सामना (Saamana) में लिखे अपने लेख में शिवसेना नेता संजय राउत (Sanjay Raut) द्वारा अभिनेता सोनू सूद (Sonu Sood) के प्रति व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी की गई. इसे भविष्य के उत्तर प्रदेश (ttar Pradesh) और बिहार (Bihar) के चुनावी समर से जोड़ कर भाजपा (BJP) को घेरने का भी प्रयास किया गया. संजय राउत का यह भी कहना था कि राजनीतिक कारणों से सोनू सूद के कार्यों को इतना बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है कि जनमानस में ऐसी छवि निर्मित हो कि ठाकरे सरकार इस स्थिति को संभालने में अक्षम साबित हो रही. जैसा कि विदित है, लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान अभिनेता सोनू सूद ने अपने निजी खर्च पर बिहार और उत्तरप्रदेश के कई मजदूरों और कामगार लोगों को अपने सुरक्षित घर वापसी के लिए साधन मुहैय्या कराया. सोनू सूद के इस कार्य की मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में काफ़ी चर्चा प्रशंसा हुई. सोशल मीडिया पर विशेषकर फेसबुक पर अभिनेता सोनू सूद के चित्रों को लोग सम्मानवश अपनी डीपी और कवर फोटो भी बनाने लगे. जैसा कि हम सबने लॉकडाउन में महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले मजदूरों और कामगारों को लॉकडाउन के प्रथम चरण से आवागमन सुविधाओं को रोक दिए जाने के कारण पैदल ही अपने परिवार और कई उदाहरणों में अपनी पूरी गृहस्थी के साथ अपने राज्यों में वापस लौटते देखा.

सामना में जो संजय राउत ने सोनू सूद के लिए लिखा है उसने शिवसेना का असली चेहरा दिखा दिया है

इस घर वापसी की प्रक्रिया में कई हृदय विदारक दृश्य भी सामने आए. सड़को और राजमार्गों पर दम तोड़ने से लेकर छालों और खून से सने पैरों को सबने देखा. इसी दौरान कई समाजसेवी संगठनों के अतिरिक्त आप जनता की व्यक्तिगत पहल से इन राहगीरों को भोजन पानी से लेकर जूते चप्पल तक मुहैय्या कराए गए. सरकारें भी स्थिति बिगड़ते देख देर से ही सही पर चेती.

चूंकि यह अभी ताजातरीन मसला है इसलिए हर व्यक्ति के जेहन में सरकार से सवाल तो है. ये केंद्र और राज्य सरकार की साझा जिम्मेदारी थी. लेकिन संजय राउत के लेख ने इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में को राजनीतिक कोण दिखाया जा रहा, उस की भी आलोचना बनती है. संजय राउत भी यही कह रहे है न कि हमें प्रश्न करना ही होगा जब इतने अल्प समय में किसी को महात्मा बना दिया जाएगा.

बिल्कुल करिए भाई रोका किसने है आप तो ख़ुद ही सरकार हैं. किसकी मजाल जो आपको पूछने और लिखने से रोक दे. राउत साहब हम आपकी यह भी बात मानते हैं कि बिना शासन और प्रशासन की मदद के लॉक डाउन की तमाम बंदिशों में हजारों लोगों को उनके घर वापस भेजना मुमकिन नहीं था. और अंत में एक राजनीतिज्ञ के रूप में आपका अपने विपक्षी दल की भूमिका को भी संदेह के घेरे में लेना भी जायज़ है. पूरी तरह से जायज़.क्योंकि आप राजनीतिज्ञ हैं.

लेकिन साहब इस पूरे घटनाक्रम पर आपकी तल्ख़ टिप्पणी कहीं न कहीं आपकी कमज़ोरी भी दिखा रही है. कम से कम इस आपदा के दौरान तो राजनीति के मुंह पर भी कुछ दिन मास्क चढ़ा दीजिए. यदि ऐसा नहीं कर पा रहे तो आप भी तो अब राजनीति खेल रहे. अभी महामारी का खतरा टला नहीं है अभी जिस तरह से केसेज़ बढ़ रहे कई व्यवस्थाओं को मजबूत रखने की आपकी जिम्मेदारियों को परखना बाकी है. अभी तो ये पहली मंजिल थी और आपने अभी से घबरा कर कहानी सुनाना शुरू कर दिया.

लॉकडाउन के दौरान सभी राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी थी कि वो अपने अपने राज्यों में रह रहे अन्य राज्यों के मजदूरों और कामगारों को या प्रभावी आश्वासन दे कि उनके राज्यों की सीमा में रहने वाला हर व्यक्ति चाहे वो उसी राज्य का अन्य का सब सुरक्षित हैं. यूं ही कोई हजारों किलोमीटर पैदल नहीं निकल पड़ता है साहब.

मानिये इस बात को कि कहीं न कहीं आपकी जिम्मेदारी में चूक हुई है. वे लाखों लोग जो सड़कों पर अपनी गृहस्थी का झोला सर पर लादे और कांख में अपने बच्चों को दबाए अपने पैर के छालों को जख्मों में बदलते हुए किसी खुशी में नहीं निकले. आप फिलहाल ये पता लगाइए कि आखिर पलायन करने वाले लोगों में इतनी जल्दी यह डर पसरा कैसे कि जिस जगह से उनकी रोजी रोटी और उनके भविष्य के सपने जुड़े थे अब उनके लिए असुरक्षित है.

यह अविश्वास कैसे उपजा जब हमारी ही चुनी सरकार है हमारे लिए है और हमारे भले के लिए है. एक बार चिंतन करिएगा क्यों किसी अभिनेता को आगे बढ़कर एक नेता के दायित्वों को ओढ़ना पड़ा. हम कहां चाहते कि नेता और अभिनेता अपने कार्यों कि अदला बदली करे साहब.

आप सौ फीसदी सत्य कह रहे इतनी आसानी से महात्मा बनना हो तो कोई भी बन सकता है. सीमित संसाधनों में ही सही हमनें लॉकडाउन के दौरान हजारों लोगों को महात्मा बनते देखा. नहीं तो हम गरीब गुरबा तो गांधी के बाद आज तक किसी राजनेता के दूसरा गांधी बनने के इंतजार में आस लगाए बैठे ही थे. बस यही अफसोस रहेगा कि आप ही क्यों महात्मा नहीं बन गए. निकलकर उन गरीबों और मजदूरों को रोक लिया होता.

आपके आरोप और शिकायत कितने सत्य हैं वो तो समय सिद्ध करेगा। किन्तु ये भी समझ लीजिए जनता यही एक्ट अपनी सरकारों से देखना चाहती थी आपसे देखना चाहती थी. अफ़सोस राउत साहब, सोनू सूद महात्मा भले ही न हों पर आपने महात्मा बनने का एक स्वर्णिम अवसर गंवा दिया. चुनौतियां अभी बाकी हैं और आपकी अग्निपरीक्षा भी, लेख जनता भी लिखना जानती है और वह लेख विधाता के लेख की तरह ही न्यायपूर्ण होता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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