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स्टालिन पर परफॉर्म करने का दबाव

    • आलोक रंजन
    • Updated: 28 दिसम्बर, 2017 05:31 PM
  • 28 दिसम्बर, 2017 05:31 PM
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आरके नगर उपचुनाव स्टालिन की पहली परीक्षा थी. पहली ही परीक्षा में वो फेल हो गए. करूणानिधि की तरह मंझा हुआ रणनीतिज्ञ बनने में स्टालिन को समय लगेगा. लेकिन प्रदर्शन का दबाव उन पर हमेशा रहेगा क्योंकि विरोध में कोई और नहीं खुद बड़ा भाई ही खड़ा है.

तमिलनाडु की प्रमुख विपक्षी पार्टी डीएमके ने एम के स्टालिन को जनवरी 2017 में कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया था. स्टालिन पार्टी प्रमुख करुणानिधि के बेटे हैं. करुणानिधि ने बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि उनके बेटे स्टालिन ही उनके सियासी उत्तराधिकारी होंगे. हाल ही में हुए तमिलनाडु के आरके नगर उपचुनाव में डीएमके को करारी हार मिली है. यहां से निर्दलीय उम्मीदवार टीटीवी दिनाकरन ने जीत हासिल की थी. इस हार के बाद स्टालिन की आलोचना शुरू हो गयी है.

करुणानिधि के स्वास्थ्य को देखते हुए लगता है कि पार्टी की सारी बागडोर आने वाले समय में उन्हीं के हाथों में होगी. डीएमके प्रमुख करुणानिधि के बड़े बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री एम के अलागिरी ने स्टालिन की कड़ी आलोचना की है. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जब तक स्टालिन डीएमके का कार्यकारी अध्यक्ष पद पर रहेंगे तब तक डीएमके के लिए जीतना मुश्किल है. उन्होंने हार का सारा ठीकरा स्टालिन पर ही फोड़ा है. साथ में ये भी कहा कि पार्टी को बदलाव की जरुरत है.

करुणानिधी ने स्टालिन को ही वारिस बनाया

ऐसा नहीं है कि अलागिरी ने पहली बार स्टालिन के विरुद्ध कुछ बोला है. करुणानिधि के दोनों बेटों के बीच की लड़ाई बहुत पुरानी है. अलागिरी को पार्टी से इसलिए ही निकला गया था क्योंकि उन्होंने स्टालिन के खिलाफ आपत्तिजनक टिपण्णी की थी. करूणानिधि की उम्र अब ऐसी नहीं है कि वो पूरा ध्यान पार्टी में दे सकें. 2जी घोटाले में ए राजा और कनिमोझी के बरी होने के बाद स्टालिन पर दबाव रहेगा की वो इन्हें पार्टी में क्या प्रमुखता देते हैं.

2019 के लोकसभा चुनाव में डीएमके की साख को वापस लाना उनकी प्रमुख चुनौती होगी. आरके नगर उपचुनाव के बाद पार्टी के कैडर में हताशा का माहौल है. उनकी प्राथमिकता होगी की समर्थकों में जोश भरने और पार्टी को एकजुट...

तमिलनाडु की प्रमुख विपक्षी पार्टी डीएमके ने एम के स्टालिन को जनवरी 2017 में कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया था. स्टालिन पार्टी प्रमुख करुणानिधि के बेटे हैं. करुणानिधि ने बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि उनके बेटे स्टालिन ही उनके सियासी उत्तराधिकारी होंगे. हाल ही में हुए तमिलनाडु के आरके नगर उपचुनाव में डीएमके को करारी हार मिली है. यहां से निर्दलीय उम्मीदवार टीटीवी दिनाकरन ने जीत हासिल की थी. इस हार के बाद स्टालिन की आलोचना शुरू हो गयी है.

करुणानिधि के स्वास्थ्य को देखते हुए लगता है कि पार्टी की सारी बागडोर आने वाले समय में उन्हीं के हाथों में होगी. डीएमके प्रमुख करुणानिधि के बड़े बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री एम के अलागिरी ने स्टालिन की कड़ी आलोचना की है. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जब तक स्टालिन डीएमके का कार्यकारी अध्यक्ष पद पर रहेंगे तब तक डीएमके के लिए जीतना मुश्किल है. उन्होंने हार का सारा ठीकरा स्टालिन पर ही फोड़ा है. साथ में ये भी कहा कि पार्टी को बदलाव की जरुरत है.

करुणानिधी ने स्टालिन को ही वारिस बनाया

ऐसा नहीं है कि अलागिरी ने पहली बार स्टालिन के विरुद्ध कुछ बोला है. करुणानिधि के दोनों बेटों के बीच की लड़ाई बहुत पुरानी है. अलागिरी को पार्टी से इसलिए ही निकला गया था क्योंकि उन्होंने स्टालिन के खिलाफ आपत्तिजनक टिपण्णी की थी. करूणानिधि की उम्र अब ऐसी नहीं है कि वो पूरा ध्यान पार्टी में दे सकें. 2जी घोटाले में ए राजा और कनिमोझी के बरी होने के बाद स्टालिन पर दबाव रहेगा की वो इन्हें पार्टी में क्या प्रमुखता देते हैं.

2019 के लोकसभा चुनाव में डीएमके की साख को वापस लाना उनकी प्रमुख चुनौती होगी. आरके नगर उपचुनाव के बाद पार्टी के कैडर में हताशा का माहौल है. उनकी प्राथमिकता होगी की समर्थकों में जोश भरने और पार्टी को एकजुट रखने की होगी. विरोध के स्वर उठ रहे हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जब तक करूणानिधि का हाथ उनके ऊपर है, पार्टी में उनकी ही चलेगी.

स्टालिन बनाम अलागिरी

जब डीएमके 2006 से 2011 के बीच तमिलनाडु में सत्ता में थी, तब अलागिरी ने पार्टी संगठन सचिव के रूप में कार्य करते हुए अपना दबदबा बनाया था. लेकिन बाद में अपने छोटे भाई स्टालिन के साथ संघर्ष के बाद पार्टी नेतृत्व के नजरों में वो गिर गए. परिणामस्वरूप 2014 में पार्टी से उनका निलंबन और निष्कासन हुआ.

2010 में ही अलागिरी ने साफ कर दिया था कि वो अपने छोटे भाई स्टालिन को पार्टी प्रमुख के रूप में कभी स्वीकार नहीं करेंगे. उनके इस बयान के बाद करुणानिधि को सक्रिय राजनीति छोड़ने का प्लान कैंसिल करना पड़ा था. अलागिरी ने ये भी कहा था कि अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना चाहिए.

दोनों के बीच की खाई उस समय और बढ़ गयी जब डीएमके ने मार्च 2013 में यूपीए सरकार से बाहर निकलने का फैसला किया और केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने मंत्रियों से इस्तीफा देने के लिए कहा. यह अलागिरी को पसंद नहीं आया था और उन्होंने कुछ दिनों तक रसायन और उर्वरक केंद्रीय मंत्री के रूप में अपना इस्तीफा देने में देरी की थी. वे कांग्रेस से रिश्ते तोड़ने के भी विरुद्ध थे. उन्होंने 15 दिसंबर, 2013 को चेन्नई में डीएमके की जनरल परिषद का भी बहिष्कार किया था.

स्टालिन के लिए कठिन है डगर राजनीति की

जनवरी 2014 में डीएमके द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव में डीएमडीके के साथ गठबंधन को लेकर अलागिरी ने नाराजगी जताई थी. उन्होंने कहा था कि वो केवल करुणानिधि को ही अपना लीडर मानेंगे. अनुशासनहीनता के आरोप में उन्हें पार्टी से सस्पेंड कर दिया गया और दो महीने बाद उन्हें पार्टी से भी निष्काषित कर दिया गया था. मार्च 2016 में अलागिरी ने करुणानिधि से मुलाकात की और ऐसा लगा की पार्टी में उनकी वापसी होगी. लेकिन स्टालिन ने इसको सिरे से खारिज कर दिया. उसके बाद से अलागिरी ने जब भी मुंह खोला स्टालिन के नेतृत्व की आलोचना ही की.

कनिमोझी और ए राजा को पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान देने के लिए दबाव

करुणानिधि की बेटी कनिमोझी जो पार्टी का दलित चेहरा और राज्यसभा से संसद हैं, पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से रिहा होने के बाद डीएमके के अंदर सरगर्मी बढ़ गयी है. स्टालिन पर दोनों को पार्टी में कोई बड़ी भूमिका देने का काफी दबाव है और दोनों के समर्थक भी ऐसा ही चाहते हैं. कनिमोझी की मां दयालु अम्माल भी बेटी को पार्टी में बड़ी भूमिका दिलाने के लिए प्रयासरत हैं.

तमिल राजनीति के समीक्षकों का कहना है कि अगर स्टालिन ने कनिमोझी को दरकिनार किया तो उन्हें इसका खामियाज़ा उठाना पड़ सकता है. हो सकता है कि वो अलागिरी के संपर्क में चली जाये और स्टालिन के लिए मुसीबत बढ़ जाये. आने वाले समय में जब करूणानिधि सक्रिय पॉलिटिक्स से सन्यास लेंगे तो डीएमके अध्यक्ष पद के लिए चुनाव भी हो सकता है. ऐसे में पार्टी में गुटबाजी हावी न हो, उसके लिए स्टालिन को सभी को साध कर चलना होगा.

आरके नगर उपचुनाव उनकी पहली परीक्षा थी और वो पहले ही परीक्षा में फेल हो गए. उन्हें अपने पिताजी करूणानिधि की तरह मंझा हुआ रणनीतिज्ञ बनने में समय लगेगा. आने वाला समय ही बताएगा कि वो इन चुनौतियों से कैसे पार पाते हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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