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Delhi violence: दिल्‍ली के दंगों से निपटने में पुलिस क्‍यों नाकाम रही, जानिए...

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 27 फरवरी, 2020 01:29 PM
  • 26 फरवरी, 2020 08:40 PM
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नागरिकता कानून का विरोध (Anti CAA Protest ) जैसे दिल्ली में हिंसक हुआ (Violence In Delhi) और जैसे हिंसा और मौतें हुई दिल्ली पुलिस (Delhi Police)की कार्यप्रणाली पर सवालियां निशान लग रहे हैं. सवाल हो रहा है कि जो दिल्ली पुलिस दंगों (Riots In Delhi) से नहीं निपट सकती आखिर किस आधार पर उसे हाईटेक पुलिस का तमगा दिया गया है.

दिल्ली के जाफराबाद और मौजपुर में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शनों (Anti CAA protest in Delhi) के हिंसक (Delhi Violence) होने और 20 से ऊपर मौतों के बाद दिल्ली पुलिस (Delhi Police) सवालों के घेरे में है. कहा जा रहा है कि खुद को हाईटेक बताकर खुद की पीठ थपथपाने वाली दिल्ली पुलिस, लूट, छिनैती, मर्डर, रेप जैसे मामलों को भले ही निपटाने में सक्षम हो, लेकिन जब स्थिति दंगे (Delhi Riots) की होगी, तो वो तमाशबीन बने ख़राब हालात को वैसे ही देखेगी जैसा हाल फिलहाल में हमने दिल्ली के मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, खजूरी खास और शिव विहार में देखा. दिल्ली में दंगे (Riots in Delhi) क्यों भड़के? इसकी वजह कुछ भी रही हो. मगर जैसा पुलिस का रोल होना चाहिए यदि वैसा होता तो आज स्थिति दूसरी होती. दिल्ली पुलिस को शांति स्थापित करने और तनाव कम करने में इतनी मेहनत न करनी पड़ती. कह सकते हैं कि यदि वक़्त रहते दिल्ली पुलिस को आर्डर दिए जाते तो उन निर्देशों का पालन जरूर होता.

दिल्ली में हुई हिंसा के बाद पुलिस ने एक्शन तो लिया मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी

दिल्ली के मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये देखना रहा कि एक तरफ शहर जल रहा था. हिंसा हो रही थी. लोग मर रहे थे एक दूसरे को मार रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ हमारी दिल्ली पुलिस ये तक समझने में नाकाम थी कि ऐसा क्या किया जाए जिससे ख़राब स्थितियों को काबू किया जाए. सब कुछ दिल्ली पुलिस की नाक के नीचे हुए और चूंकि केंद्र और राज्य का भी एक दूसरे से छत्तीस का आंकड़ा है तो इसे भी दिल्ली के जलने की एक बड़ी वजह के तौर पर देखा जा सकता है. कुल मिलाकर जलती हुई दिल्ली और मरते हुए लोग देखकर ये कहना हमारे लिए अतिश्योक्ति नहीं है कि दिल्‍ली पुलिस की विफलता नेतृत्‍व की...

दिल्ली के जाफराबाद और मौजपुर में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शनों (Anti CAA protest in Delhi) के हिंसक (Delhi Violence) होने और 20 से ऊपर मौतों के बाद दिल्ली पुलिस (Delhi Police) सवालों के घेरे में है. कहा जा रहा है कि खुद को हाईटेक बताकर खुद की पीठ थपथपाने वाली दिल्ली पुलिस, लूट, छिनैती, मर्डर, रेप जैसे मामलों को भले ही निपटाने में सक्षम हो, लेकिन जब स्थिति दंगे (Delhi Riots) की होगी, तो वो तमाशबीन बने ख़राब हालात को वैसे ही देखेगी जैसा हाल फिलहाल में हमने दिल्ली के मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, खजूरी खास और शिव विहार में देखा. दिल्ली में दंगे (Riots in Delhi) क्यों भड़के? इसकी वजह कुछ भी रही हो. मगर जैसा पुलिस का रोल होना चाहिए यदि वैसा होता तो आज स्थिति दूसरी होती. दिल्ली पुलिस को शांति स्थापित करने और तनाव कम करने में इतनी मेहनत न करनी पड़ती. कह सकते हैं कि यदि वक़्त रहते दिल्ली पुलिस को आर्डर दिए जाते तो उन निर्देशों का पालन जरूर होता.

दिल्ली में हुई हिंसा के बाद पुलिस ने एक्शन तो लिया मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी

दिल्ली के मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये देखना रहा कि एक तरफ शहर जल रहा था. हिंसा हो रही थी. लोग मर रहे थे एक दूसरे को मार रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ हमारी दिल्ली पुलिस ये तक समझने में नाकाम थी कि ऐसा क्या किया जाए जिससे ख़राब स्थितियों को काबू किया जाए. सब कुछ दिल्ली पुलिस की नाक के नीचे हुए और चूंकि केंद्र और राज्य का भी एक दूसरे से छत्तीस का आंकड़ा है तो इसे भी दिल्ली के जलने की एक बड़ी वजह के तौर पर देखा जा सकता है. कुल मिलाकर जलती हुई दिल्ली और मरते हुए लोग देखकर ये कहना हमारे लिए अतिश्योक्ति नहीं है कि दिल्‍ली पुलिस की विफलता नेतृत्‍व की खामी का परिणाम है.

अब क्योंकि विषय 'नेतृत्‍व की खामी' पर आकर ठहर गया है तो हमें दिल्ली हिंसा के दौरान दिल्ली पुलिस के रवैये को देखकर ये भी समझना होगा कि दावे भले ही कितने क्यों न हुए हों लेकिन वास्तविकता यही है कि दंगे की स्थिति से कैसे निपटा जाता है? ये प्रैक्टिकल शायद ही कभी दिल्ली पुलिस ने किया हो. सवाल भले ही हैरत में डाल दें मगर सत्य यही है कि यदि दिल्ली पुलिस ने  प्रैक्टिकल किया होता तो आज विभाग का एक मुलाजिम हेड कांस्टेबल रतन लाल हम सब के बीच जिंदा होता.

लोगों को घर में रहने और शांति बनाए रखने की अपील करती दिल्ली पुलिस

इसके आलवा दिल्ली हिंसा की एक तस्वीर वो भी सामने आई है जिसमें शाहरुख़ नाम का हमलावर गोली चला रहा है और ड्यूटी में तैनात दिल्ली पुलिस का जवान खली हाथ उसे समझाने जा रहा है. कहने को दिल्ली पुलिस और इस विषय पर कई हजार शब्द कहे जा सकते हैं लेकिन अच्छा हुआ ये तस्वीर हमारे सामने आ गई और जिसने हमें हकीकत से रू-ब-रू करा दिया.

बहरहाल, आइये कुछ बिन्दुओं पर नजर डालें और इस बात को तफसील से समझें कि कैसे दिल्‍ली पुलिस की विफलता नेतृत्‍व की खामी का नतीजा है.

दंगे के कारण को शुरुआत में ही पकड़ पाने में नाकाम

CAA विरोध प्रदर्शन राजधानी दिल्ली में गुजरे 70 दिन से हो रहे हैं. शुरुआत इनकी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से हुई फिर ये विरोध शाहीनबाग पहुंचा और उसके बाद हौजरानी, सीलमपुर, जाफराबाद जैसे स्थानों पर इसे फैलते हुए हमने देखा. विषय क्योंकि दिल्ली हिंसा या ये कहें कि दिल्ली में हुए दंगे हैं तो बता दें कि इसकी शुरुआत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा से हुई.

माना जा रहा है कि अगर दिल्ली पुलिस मुस्तैद रहती तो अनहोनी होने से बच सकती थी

दिल्ली के जाफराबाद में धरना मेट्रो स्टेशन के नीचे शुरू कर दिया गया इसके बाद वो मौका भी आया जब सीएए समर्थक सड़कों पर आए और आम आदमी पार्टी में भाजपा में आए कपिल मिश्रा को राजनीति करने का मौका मिला और उन्होंने जाफराबाद में धरने के सन्दर्भ में भड़काऊ बयान दिया.

माना जा रहा है कि दिल्ली में दंगे भड़कने की एक बड़ी वजह ये बयान भी हैं. सवाल ये है कि चाहे जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर कानून का विरोध कर रहे लोगों का जमा होन हो या फिर महाल बिगाड़ने पहुंचे कपिल मिश्रा आखिर दिल्ली पुलिस ने इन सभी लोगों पर एक्शन क्यों नहीं लिया ? आखिर किस इंतजार में थी दिल्ली पुलिस ? कहा जा सकता है कि इन्हीं सब चीजों ने दंगों की आग में खर का काम किया था यदि समय रहते उन्हें नियंत्रित कर लिया जाता तो आज हालात कहीं बेहतर होते.  दिल्ली पुलिस भले ही इसे एक छोटी सी चूक कहकर नकार दे लेकिन ये छोटी सी चूक ही इस बड़े फसाद की जड़ है.

दंगों से निपटने में दिल्‍ली पुलिस की अक्षमता

दंगों के दौरान सिर्फ लाठी पटकना और आंसू गैस के गोले चला देना दंगे के दौरान की जाने वाली कार्रवाई नहीं होती. ऐसी स्थिति में पुलिस का सजग रहना बहुत जरूरी होता है. अब इसे हम अगर दिल्ली दंगों के सन्दर्भ में देखें तो सा पता चलता है कि दंगों से निपटने के लिए पुलिस के पास कोई प्लानिंग नहीं थी. जिस समय हिंसक वारदात को अंजाम दिया जा रहा था दिल्ली पुलिस के पास दिशा निर्देशों का आभाव था.

पुलिस एक जगह पर भीड़ को नियंत्रित करती दूसरी जगह बवाल शुरू हो जाता. तर्क दिया जा रहा है कि जिस समय बवाल हुआ पुलिस के लोग फ़ोर्स का आभाव झेल रहे थे. सवाल ये उठता है कि आखिर पुलिस का अपना इंटेलिजेंस या ये कहें कि स्थानीय सूत्र कहां थे ? यदि ये कहा जा रहा है कि ऐसा कुछ होगा इसकी जानकारी पुलिस के पास नहीं थी तो सबसे बड़ा झूठ यही है.

लोकल इंटेलिजेंस के रहते हुए पुलिस को ये जरूर बता था कि यहां बवाल हो सकता है जो किसी भी वक़्त उग्र रूप धारण कर सकता है. दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली बताने वाले वो तमाम वीडियो जो सोशल मीडिया पर फैल रहे हैं उन्हें देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है कि भले ही हाईटेक के दावे हुए हो मगर हकीकत यही है कि दिल्ली पुलिस ऐसी किसी भी स्थिति से निपटने में अक्षम है.

कहां थी रेपिड एक्‍शन फोर्स

नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शनों के उग्र होने के बाद दिल्ली धधक रही थी. मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, खजूरी खास और शिव विहार के स्थानीय लोग सड़कों पर थे. दंगा हो रहा था. दुकानों, मकानों और वाहनों को आग के हवाले किया जा रहा था. लोगों को घेर कर मारा जा रहा था. दिल्ली के इन हिस्सों का मंजर कुछ वैसा था जैसा हमने फिल्मों में देखा था.

सवाल आरएएफ को लेकर भी खड़े हो रहे हैं कि जब दिल्ली जल रही थी आरएएफ कहां थी

दिल्ली के दंगाग्रत क्षेत्रों में जब ये सब चल रहा था वहां रेपिड एक्‍शन फोर्स का न होना अपने आप में तमाम कड़े सवाल खड़े कर देता है.

रेपिड एक्‍शन फोर्स एक ऐसी फ़ोर्स जिसका निर्माण ही दंगों पर लगाम लगाने के लिए हुआ है उसकी एक भी टुकड़ी इन दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में नहीं दिखी. सवाल ये है कि आखिर इन ख़राब हालातों में दंगों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने वाली रेपिड एक्‍शन फोर्स कहां ही ? दिल्ली जब जल रही हो उसे ठोस एक्शन लेने के लिए क्यों नहीं मौके पर रवाना किया गया.

बता दें कि आरएएफ या रैपिड एक्शन फ़ोर्स, सीआरपीएफ की वो टुकड़ी है जिसका निर्माण 90 के दशक में इसलिए किया गया था ताकि वो दंगों और भीड़ को नियंत्रित कर ले. रैपिड एक्शन फ़ोर्स की ख़ास बात ये है कि ये हाई टेक है और इनके पास दंगे के दौरान भीड़ को तितर बितर करने के पर्याप्त संसाधन होते हैं. इन्हें भीड़ की साइकोलॉजी पता होती है और ये उस साइकोलॉजी से जनित चक्रव्यू को भेदना बखूबी जानते हैं.

सेना की मांग बेवकूफी से कम नहीं

दिल्ली हिंसा के दौरान एक्शन के नाम पर सबसे बेतुकी मांग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने की. केजरीवाल की मांग है कि दिल्ली के हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में सेना को तैनात किया जाए. नागरिकता संशोधन कानून को लेकर दिल्ली में भड़की हिंसा के बाद केजरीवाल ने गृह मंत्रालय को मेंशन करते हुए एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने फ़ौरन ही मौका ए वारदात पर सेना लगाने की मांग की थी.

अपने ट्वीट में केजरीवाल ने कहा था कि हालात बेहद खराब हैं और दिल्ली पुलिस इस पर काबू पाने में असमर्थ रही है. केजरीवाल ने ट्वीट किया कि मैं पूरी रात लोगों के संपर्क में रहा हूं। स्थिति काफी चिंताजनक है। पुलिस अपने सभी प्रयासों के बावजूद हालात को नियंत्रित करने और लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाने में असमर्थ रही है. सेना को तुरंत बुलाया जाए और बाकी प्रभावित इलाकों में कर्फ्यू लगाया जाए. इसके लिए मैं गृह मंत्री अमित शाह को एक पत्र लिख रहा हूं.

सवाल ये है कि केजरीवाल कोई आम आदमी नहीं हैं बल्कि वो एक चुने हुए मुख्यमंत्री हैं. एक ऐसे वक़्त में जब उन्हें एक्शन लेना चाहिए उनका ये राजनीतिक रुख साफ़ बता रहा है कि कहीं न कहीं दिल्ली हिंसा को पूरी तरह से भाजपा के पाले में डाल दिया जाए और हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाया जाए. जोकि बिलकुल भी सही नहीं है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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