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'शहीद' के नाम पर राहुल गांधी ने जो कहा उसका सच कुछ और है

    • अनुज मौर्या
    • Updated: 24 फरवरी, 2019 04:24 PM
  • 24 फरवरी, 2019 04:24 PM
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शहीद जैसा कोई दर्जा होता ही नहीं है. ना तो सरकारी रिकॉर्ड में, ना ही सेना में. अब जो दर्जा होता ही नहीं है, उसे लेकर लड़ाई किस बात की? ये शब्द सिर्फ मीडिया और राजनीति में इस्तेमाल होता है और सेना इसका इस्तेमाल अपने जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए करती है.

जब भी सेना का कोई जवान मरता है, तो मीडिया से लेकर राजनीति तक में 'शहीद' शब्द गूंजने लगता है. शहीद का दर्जा देने को लेकर राजनीति शुरू हो जाती है. पुलवामा हमले में वीरगति को प्राप्त हुए जवानों को लेकर भी शहीद का दर्जा देने की राजनीति शुरू हो गई है. हाल ही में राहुल गांधी ने भी कहा है कि मोदी सरकार सीआरपीएफ और पैरा मिलिट्री फोर्स में वीरगति को प्राप्त होने वाले जवानों को शहीद का दर्जा नहीं देती है, लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आ जाती है तो वो इन्हें भी शहीद का दर्जा देंगे. हालांकि, 6 अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुए नकस्ली हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए थे, तब राहुल गांधी को उन्हें शहीद का दर्जा देने का ख्याल तक नहीं आया, जबकि तब केंद्र में कांग्रेस ही थी.

अब पते की बात सुनिए. शहीद जैसा कोई दर्जा होता ही नहीं है. ना तो सरकारी रिकॉर्ड में, ना ही सेना में. अब जो दर्जा होता ही नहीं है, उसे लेकर लड़ाई किस बात की? ये शब्द सिर्फ मीडिया और राजनीति में इस्तेमाल होता है और सेना इसका इस्तेमाल अपने जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए करती है. सोशल मीडिया पर शहीद का दर्जा देने की राहुल गांधी की मांग पर सेना के एक रिटायर्ड मेजर गौरव आर्या ने जो बातें बताई हैं, वो किसी की भी आंखें खोलने के लिए काफी हैं. मेजर गौरव ने लिखा है कि 'शहीद' जैसा कोई आधिकारिक दर्जा सेना में नहीं है. भारतीय सेना किसी कार्रवाई में मारे गए अपने जवान या अधिकारी के लिए KIA यानी किल्ड इन एक्शन (Killed In Action) शब्द का इस्तेमाल करती है और इसी के आधार पर मृत के परिवार को जरूरी सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. साथ ही उन्होंने राहुल गांधी की एक गलती को सही करते हुए लिखा है कि CRPF, BSF, ITBP & SSB सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स होती है ना कि पैरा मिलिट्री फोर्स.

'शहीद' का असली मतलब...

जब भी सेना का कोई जवान मरता है, तो मीडिया से लेकर राजनीति तक में 'शहीद' शब्द गूंजने लगता है. शहीद का दर्जा देने को लेकर राजनीति शुरू हो जाती है. पुलवामा हमले में वीरगति को प्राप्त हुए जवानों को लेकर भी शहीद का दर्जा देने की राजनीति शुरू हो गई है. हाल ही में राहुल गांधी ने भी कहा है कि मोदी सरकार सीआरपीएफ और पैरा मिलिट्री फोर्स में वीरगति को प्राप्त होने वाले जवानों को शहीद का दर्जा नहीं देती है, लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आ जाती है तो वो इन्हें भी शहीद का दर्जा देंगे. हालांकि, 6 अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुए नकस्ली हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए थे, तब राहुल गांधी को उन्हें शहीद का दर्जा देने का ख्याल तक नहीं आया, जबकि तब केंद्र में कांग्रेस ही थी.

अब पते की बात सुनिए. शहीद जैसा कोई दर्जा होता ही नहीं है. ना तो सरकारी रिकॉर्ड में, ना ही सेना में. अब जो दर्जा होता ही नहीं है, उसे लेकर लड़ाई किस बात की? ये शब्द सिर्फ मीडिया और राजनीति में इस्तेमाल होता है और सेना इसका इस्तेमाल अपने जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए करती है. सोशल मीडिया पर शहीद का दर्जा देने की राहुल गांधी की मांग पर सेना के एक रिटायर्ड मेजर गौरव आर्या ने जो बातें बताई हैं, वो किसी की भी आंखें खोलने के लिए काफी हैं. मेजर गौरव ने लिखा है कि 'शहीद' जैसा कोई आधिकारिक दर्जा सेना में नहीं है. भारतीय सेना किसी कार्रवाई में मारे गए अपने जवान या अधिकारी के लिए KIA यानी किल्ड इन एक्शन (Killed In Action) शब्द का इस्तेमाल करती है और इसी के आधार पर मृत के परिवार को जरूरी सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. साथ ही उन्होंने राहुल गांधी की एक गलती को सही करते हुए लिखा है कि CRPF, BSF, ITBP & SSB सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्स होती है ना कि पैरा मिलिट्री फोर्स.

'शहीद' का असली मतलब समझिए

'शहीद' शब्द का सही अर्थ कुरान शरीफ में मिलता है. इसका इस्लामिक मान्यताओं के लिए उपयोग किया जाता है. शहीद उस शख्स को कहते हैं जो इस्लाम की रक्षा करते हुए मौत होती है और मरने के बाद वह अल्लाह के होने की गवाही (शहादत) देता है. वैसे तो इस्लाम में मरने वाला हर शख्स शहीद होता है. भले ही वह देश की रक्षा के लिए लड़े या फिर इस्लाम की रक्षा के लिए लड़े. यहां तक कि अगर इस्लाम में किसी शख्स को गुनाह के लिए सजा के तौर पर मौत की सजा भी दी जाए तो उसे शहीद कहते हैं. माना जाता है कि अल्लाह ने उसे गुनाहों का हिसाब करने के लिए उसे बुलाया है और ये बात अल्लाह के होने की गवाही देती है. शहीद की तरह ही शहादत शब्द का इस्तेमाल भी गलत होता है. शहादत का मतलब होता है गवाही, जबकि उसे वीरगति प्राप्त करने वाले शख्स से जोड़कर देखा जाता है.

शहीद जैसा कोई दर्जा होता ही नहीं है. ना तो सरकारी रिकॉर्ड में, ना ही सेना में.

पाकिस्तानी सेना में हिंदू नहीं होता 'शहीद'

2013 में पाकिस्तानी सेना के हिंदू जवान अशोक कुमार की वजीरिस्तान में मौत हो गई थी. 23 मार्च 2015 को उन्हें तमगा-ए-शुजात दिया गया, लेकिन उनके नाम के आगे शहीद लिखने के बजाय स्वर्गीय लिखा गया. सेना के मुस्लिम जवानों की मौत पर उन्हें शहीद कहा जाता है, लेकिन हिंदू होने की वजह से अशोक को शहीद का दर्जा नहीं मिला. तब पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के नेता लाल माल्ही ने इस पर सवाल भी उठाए थे और पूछा था कि क्या वह देशप्रेम के चलते नहीं मरे? इसे लेकर स्पष्ट करते हुए मौलवियों ने तर्क दिया था कि अशोक को शहीद का दर्जा सिर्फ इसीलिए नहीं मिला, क्योंकि यह दर्जा सिर्फ इस्लाम धर्म के लोगों को दिया जाता है, जबकि अशोक हिंदू थे. खैर, पाकिस्तान में तो ये दर्जा दिया भी जाता है, लेकिन भारत में न तो सरकार ऐसा कोई दर्जा देती है, ना ही सेना. हां, जब भी कोई जवान मरता है तो शहीद शब्द पर राजनीति खूब होती है, जैसी अब राहुल गांधी कर रहे हैं. सुन लीजिए उन्होंने क्या कहा है.

किसी को नहीं मिलता शहीद का दर्जा

पुलवामा हमले के बाद एक मांग सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर घूमती भीड़ तक उठा रही है कि मारे गए जवानों को शहीद का दर्जा दिया जाए. ये मामला कभी दिल्ली हाइकोर्ट में भी पहुंचा था और तब अप्रैल 2015 में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने ये तर्क दिया था कि शहीद शब्द को कोई परिभाषा नहीं है. ना ही सेना में इसका इस्तेमाल होता है ना ही गृह मंत्रालय ने इसकी कोई परिभाषा तय की है. 22 दिसंबर 2015 को लोकसभा में भी किरण रिजिजू ने अपनी बात दोहराते हुए कहा था-‘भारतीय सशस्त्र सेनाओं यानी आर्मी, नेवी और एयरफोर्स में किसी तरह की केजुअल्टी के लिए आधिकारिक तौर पर शहीद शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है. केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों या पैरामिलिटरी फोर्सेज के जवानों के जान गंवाने पर भी शहीद शब्द का इस्तेमाल नहीं होता. हां, उनके परिजनों को service rules के मुताबिक पेंशन और क्षतिपूर्ति राशि दी जाती है.’ सेना में वीरगति को प्राप्त होने वाले सैनिक के लिए ‘Battle Casualty’ या ‘Operations Casualty’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं. लापता होने पर Missing In Action जैसी शब्दावली इस्तेमाल होती है.

सुरक्षा बलों के बारे में ये जानना भी जरूरी

इन दिनों सारी राजनीति पुलवामा आतंकी हमले को लेकर हो रही है. तो चलिए कश्मीर के परिपेक्ष में जानते हैं सुरक्षा बलों के बारे में. भारत में तीन तरह की सेनाएं हैं और तीनों ही जम्मू-कश्मीर में तैनात हैं.

- पहला सुरक्षा बल है सेना. इसके जवान जम्मू-कश्मीर की सीमा पर तैनात हैं, ताकि देश के बाहर के दुश्मनों से निपटा जा सके. हालांकि, जरूरत पड़ने पर इन्हें देश के अंदर किसी स्थिति से निपटने के लिए भी बुलाया जाता है. इसमें थल सेना, जल सेना और वायु सेना आती हैं जो सीधे राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में होती हैं.

- दूसरी होती है सीएपीएफ (सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेस) जिसमें CRPF, BSF, ITBP, CISF & SSB जैसे सुरक्षा बल आते हैं. इनका काम देश के अंदर कानून व्यवस्था बनाए रखना होता है. इन्हीं का काम सबसे कठिन भी होता है, क्योंकि इन्हें देश के अंदर के दुश्मनों से निपटना होता है. सीमा पर तैनात सेना को तो सीधे गोली मारने के आदेश होते हैं, क्योंकि उन पर दुश्मन भी सीधे गोली ही चलाते हैं. वहीं दूसरी ओर सीएपीएफ के जवान सीधे गोली नहीं चला सकते, क्योंकि उन्हें अपने ही देश के नागरिकों के बीच पैदा हुए तनाव से निपटना होता है और कानून व्यवस्था बनाए रखनी होती है. कश्मीर में आए दिन पत्थरबाजों से यही सेना निपटती हो जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करती है.

- तीसरी होती है पैरा मिलिट्री फोर्स, जिसमें असम राइफल्स और एसएफएफ यानी स्पेशल फ्रंटियर फोर्स आती हैं. असम राइफल्स तो गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है, लेकिन एसएफएफ इंडियन इंटेलिजेंस को रिपोर्ट करती है. जम्मू-कश्मीर में असम राइफल्स की जगह राष्ट्रीय राइफल्स तैनात है, जो सीधे रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करती है और इसमें सेना के कुछ चुने हुए जवान होते हैं.

हर नेता और मंत्री को पता है कि शहीद की कोई परिभाषा नहीं है. मीडिया भी जानता है कि शहीद शब्द न तो सेना के रिकॉर्ड में इस्तेमाल होता है ना ही सरकार के. बावजूद इसके, सभी वीरगति को प्राप्त होने वाले जवान को शहीद कहते हैं. यहां तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन दिक्कत तब होती है, जब शहीद का दर्जा देने को लेकर बयानबाजी होती है, जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है और गुमराह करने की कोशिश होती है. राजनीति में कई तरह के पैंतरे आजमाए जाते हैं, ताकि वोट खींचा जा सके, लेकिन देश के लिए मरने वाले सैनिक को तो राजनीति में घसीटना सबसे बड़ा देशद्रोह समझा जाना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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