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राम मंदिर आंदोलन पार्ट-2 शुरू होने के मायने

    • साहिल जोशी
    • Updated: 23 नवम्बर, 2018 11:26 PM
  • 23 नवम्बर, 2018 11:26 PM
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शिवसेना की राजनीति‍ में सटीक टायमिंग का बड़ा हाथ रहा है. चाहे 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने पर बाल ठाकरे द्वारा उसकी जिम्‍मेदारी लेना हो, या फिर अब उद्धव ठाकरे का 'चलो अयोध्‍या' का नारा लगाना.

भारत में राजनीतिक पार्टियों को आगे बढ़ने का रास्ता नहीं दिखता है तो वे धर्म, जाति‍ और भाषा का शॉर्टकट अपनाती हैं. इन मुद्दों का सबसे बडा फायदा ये होता है कि ना इसमें पार्टी के कार्यकर्ताओं को विचारधारा की घुट्टी पिलाने की कोशिश करनी पड़ती है. ना रोजमर्रा की समस्याओं, या देश को चलाने वाली नीति‍यों को समझने और समझाने की जद्दोजहद. देश के नेताओं के कुछ ऐसे ही काम आयें हैं- राम.

शाहबानो केस में धर्मनिरपेक्ष प्रतिमा को पहली बार झटका लगा. फिर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में शिलान्यास की अनुमति‍ दे डाली. लंबे समय तक राम मंदिर का मुद्दा विश्व हिंदु परिषद या निर्मोही अखाड़े के परिसर में ही घुमता रहा. लेकिन 1984 के लोकसभा चुनाव में तबाही के बाद बीजेपी में लालकृष्ण अडवाणी को लगने लगा अब वक्त आ गया है कि‍ उसे राजनीतिक रूप से उठाया जाय. कई साल तक इस पर बहस चलती रही कि क्या मंदिर निर्माण पार्टी का राजनीतिक अजेंडा बन सकता है? लेकिन आखिर में जब लगा कि आगे बढ़ने में श्रीराम का ही सहारा है, तब से अब तक ये मुद्दा देश में राजनीति‍ का एक अच्छा जरिया बना रहा है.

क्‍यों है राम-नाम का सहारा:

इस बार शिवसेना इस मुद्दे को भुनाना चाहती है. पिछले चार साल राजनीति‍ में डबलरोल निभा रही शिवसेना को अब सिर्फ राम नजर आ रहे हैं. चार साल तक सरकार में रहकर सरकार की ही हर नीति‍ का विरोध कर रही शिवसेना यहां तक कह चुकी है कि इसके आगे कोई भी चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन कर नहीं लडेंगी. लेकिन जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे ही पार्टी में अंदरुनी दबाव बन रहा है कि गठबंधन किया जाय. बीजेपी को तो शिवसेना सचमुच में डुबाना चाहती है लेकिन ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डुबेंगे’ के लिये तैयार नहीं है. क्योंकि इसमें खुद को भी कुर्बान होना पड़ेगा. तो फिर जो तय किया, उस पर उलटा कैसे घूमा जाय. इस सवाल के जवाब में श्रीराम दोबारा दिखने लगे हैं. 1988/89 में राम मंदिर का मुद्दा उठाना आसान था क्योंकी तब तो दूसरी पार्टी की सरकार थी. लेकिन अब तो प्रधानमंत्री ही वही हैं, जो तब रथयात्रा के प्रमुख आयोजक थे. डर था कि 2019 में 'अच्छे दिन' या 'विकास' की जगह बीजेपी कुछ और खेल खेलने के चक्कर में राम मंदिर का ही मुद्दा ना उठाले, शिवसेना इसे पहले ही हथिया...

भारत में राजनीतिक पार्टियों को आगे बढ़ने का रास्ता नहीं दिखता है तो वे धर्म, जाति‍ और भाषा का शॉर्टकट अपनाती हैं. इन मुद्दों का सबसे बडा फायदा ये होता है कि ना इसमें पार्टी के कार्यकर्ताओं को विचारधारा की घुट्टी पिलाने की कोशिश करनी पड़ती है. ना रोजमर्रा की समस्याओं, या देश को चलाने वाली नीति‍यों को समझने और समझाने की जद्दोजहद. देश के नेताओं के कुछ ऐसे ही काम आयें हैं- राम.

शाहबानो केस में धर्मनिरपेक्ष प्रतिमा को पहली बार झटका लगा. फिर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में शिलान्यास की अनुमति‍ दे डाली. लंबे समय तक राम मंदिर का मुद्दा विश्व हिंदु परिषद या निर्मोही अखाड़े के परिसर में ही घुमता रहा. लेकिन 1984 के लोकसभा चुनाव में तबाही के बाद बीजेपी में लालकृष्ण अडवाणी को लगने लगा अब वक्त आ गया है कि‍ उसे राजनीतिक रूप से उठाया जाय. कई साल तक इस पर बहस चलती रही कि क्या मंदिर निर्माण पार्टी का राजनीतिक अजेंडा बन सकता है? लेकिन आखिर में जब लगा कि आगे बढ़ने में श्रीराम का ही सहारा है, तब से अब तक ये मुद्दा देश में राजनीति‍ का एक अच्छा जरिया बना रहा है.

क्‍यों है राम-नाम का सहारा:

इस बार शिवसेना इस मुद्दे को भुनाना चाहती है. पिछले चार साल राजनीति‍ में डबलरोल निभा रही शिवसेना को अब सिर्फ राम नजर आ रहे हैं. चार साल तक सरकार में रहकर सरकार की ही हर नीति‍ का विरोध कर रही शिवसेना यहां तक कह चुकी है कि इसके आगे कोई भी चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन कर नहीं लडेंगी. लेकिन जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे ही पार्टी में अंदरुनी दबाव बन रहा है कि गठबंधन किया जाय. बीजेपी को तो शिवसेना सचमुच में डुबाना चाहती है लेकिन ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डुबेंगे’ के लिये तैयार नहीं है. क्योंकि इसमें खुद को भी कुर्बान होना पड़ेगा. तो फिर जो तय किया, उस पर उलटा कैसे घूमा जाय. इस सवाल के जवाब में श्रीराम दोबारा दिखने लगे हैं. 1988/89 में राम मंदिर का मुद्दा उठाना आसान था क्योंकी तब तो दूसरी पार्टी की सरकार थी. लेकिन अब तो प्रधानमंत्री ही वही हैं, जो तब रथयात्रा के प्रमुख आयोजक थे. डर था कि 2019 में 'अच्छे दिन' या 'विकास' की जगह बीजेपी कुछ और खेल खेलने के चक्कर में राम मंदिर का ही मुद्दा ना उठाले, शिवसेना इसे पहले ही हथिया लिया.

उद्धव ठाकरे का 'चलो अयोध्‍या' का नारा कई संदेश देगा. वे खुद 25 नवंबर को अयोध्‍या पहुंच रहे हैं.

उद्धव ठाकरे की तेजी का कारण:

सर संघचालक मोहन भागवत ने संघ के दशहरा संबोधन में सरकार को अध्यादेश लाने का सुझाव देकर शिवसेना के शक को विश्वास में बदल दिया. उसी दिन शाम को मुंबई में शिवसेना की दशहरा रैली में उद्धव ठाकरे ने अयोध्या जाने का ऐलान भी कर दिया. वो तो अब साफ कह रहे हैं कि बार-बार चुनावी मुद्दा बनने से बेहतर है कि इसी बार ये चुनाव का मुद्दा बने और खत्म हो जाये. शिवसेना का इतिहास रहा है, शुरुआत बीजेपी के विरोध से होती है, फिर हिंदुत्‍व का नाम आगे करके बीजेपी से ही गठबंधन कर लिया जाता है.

वाजपेयी सरकार के वक्त भी बाल ठाकरे एनडीए सरकार पर जमकर बरसते थे, लेकिन हिंदुत्व की रक्षा का नारा देकर बीजेपी को ही साथ लेते. इस बार वैसे शिवसेना ने ठान लिया था कि बीजेपी को सबक सिखायेंगे,  लेकिन चुनाव में विपक्ष को साथ आता देख बीजेपी को अहसास हुआ की इस बार भी शिवसेना और बाकी सहयोगियों को साथ लेना होगा. इसलिये चार साल तक शिवसेना को बिलकुल भाव ना देने वाले अमित शाह ने उद्धव ठाकरे का ‘इगो मसाज’ करने के लिये उनसे उनके घर जाकर मुलाकात की. और आपसी मसले सुलझाने की कोशिश शुरू की. बीजेपी नेताओं के शिवसेना के खिलाफ तेवर भी नरम पड़ने लगे. लेकिन मजे की बात ये है कि 2 घंटे तक चली इस मुलाकात में ना राम का जिक्र हुआ, ना मंदिर का.

कैसे बजी खतरे की घंटी:

महाराष्ट्र में लोकसभा की 2 सीटों पर हुए उपचुनाव में साफ हो गया कि अगर दोनों पार्टियां साथ नहीं आयेंगी तो 2014 की तरह 48 में से 42 तो दूर, आधी सीटें पाना भी मुश्किल हो जायेगा. उसके बाद से ही अचानक राम मंदिर का मुद्दा गर्माने लगा है. साफ दिख रहा है कि अब ये एक ही धागा है जिसको पकड़कर दोनों का लोकसभा चुनाव में गठबंधन हो सकता है.

दूसरी अहम बात मुंबई और आसपास के शहरों में बीजेपी के बढ़ते प्रभाव को लेकर है. 1992 के बाद जैसे ही शिवसेना ने हिंदुत्व पुरी तरह अपना लिया शिवसेना मराठी वोटों से उभरकर गैर मराठी वोटो में भी शिरकत करने लगी. लेकिन 2014 के बाद ये सारे वोट बीजेपी की तरफ मुड़ गए. शिवसेना की कोशिश है कि अब अयोध्‍या के रास्ते उनको एकबार फिर अपनी तरफ मोड़ा जाय. क्योंकि लोकसभा में गठबंधन तो हो जायेगा, लेकिन अगर विधानसभा में नहीं हो पाया तो एकबार फिर सामना बीजेपी से ही होगा.

शिवसैनिक तो अयोध्‍या के लिए निकल चुके हैं, और लगातार वहां पहुंच रहे हैं.

सियासी टाइमिंग की माहिर शिवसेना:

शिवसेना की राजनीति‍ में सटीक टायमिंग का बड़ा हाथ रहा है. भावनात्मक मुद्दे भी अचूक वक्त में उठाने पड़ते हैं वरना वो तीर जाया हो जाते हैं. 1992 में यात्रा की अडवाणी ने, कारसेवा की वीएचपी और आरएसएस ने. लेकिन जब बाबरी मस्जिद (जिसे अब संघ विवादि‍त ढांचा कहता है) गिरी तो उसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं था. तब बाल ठाकरे के एक बयान ने उन्हे हिंदुत्व का आइक़न बना दिया. उन्‍होंने कहा था- 'अगर बाबरी गिराने वाले शिवसैनिक हैं, तो मुझे उसका अभिमान है'. माहौल देखकर उन्होंने सटीक टाइमिंग दिखाई. इस बार वही काम उद्धव ठाकरे ने किया है. वे बीजेपी को कह रहे हैं- 'अगर आप मंदिर नही बना सकते तो हम बना देंगे'.

उद्धव माहौल बनाने की कोशिश में हैं, लेकिन बयान की टाईमिंग को गठबंधन की कोशिश की तरफ साधकर देखा जा रहा है. क्योंकि 1992 में उस माहौल में तैयार हुई पीढ़ी अब उम्र के 50 साल पुरी कर चुकी है, और उसे पता है कि मोदी सरकार राम मंदिर बनाए या ना बनाए शिवसेना अयोध्‍या जाकर मंदिर कभी खड़ा नहीं कर सकती. उन्हें ये भी पता चलने में देर नहीं लगेगी कि राम मदिर बन जाये तो कोई और इस तरह का नया मुद्दा बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. नये दौर में राम मंदिर की लड़ाई एक चक्र पूरा कर चुकी है. इस लड़ाई में कभी एक साथ खड़े होकर एक साथ वोट मांगने वाले, एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने के बाद फिर एक बार वोट मांगने के लिये एक साथ खड़े हो रहे हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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