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राहुल गांधी की कप्‍तानी से समझिए उनका प्रधानमंत्री बनने का दावा कितना मजबूत है

    • चन्द्रशेखर कुमार
    • Updated: 09 मई, 2018 04:41 PM
  • 09 मई, 2018 04:40 PM
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अपनी कप्तानी में सीरीज दर सीरीज गंवाते राहुल 2019 में वर्ल्डकप जीतना चाहते हैं. जीत की चाहत में वे यह भूल जाते हैं कि विजय के लिए एक संगठित टीम की दरकार होती है. होमवर्क और मजबूत कैप्टनसी के बिना जंगें नहीं जीती जातीं. खराब फील्ड‍िंग में जीत तो दूर प्रतिष्ठा भी नहीं बचती.

कांग्रेस में परिवारवाद का ही चरम है कि गांधी परिवार में नेहरु, इंदिरा और राजीव गांधी के बाद राहुल prime ministerial candidate हैं. परोक्ष रुप से ही सही, राहुल की मां सोनिया गांधी भी दस साल इस देश की प्रधानमंत्री रही हैं. परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस की सियासी ज़मीन दरक चुकी है. अभी जहां भी कांग्रेस सत्ता में है, गांधी परिवार की पकड़ वहां कमजोर है. जैसे कर्नाटक में सिद्धारमैया की चलती है, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की कप्तानी चलती है, राहुल यहां भी डग आऊट में बैठे नजर आते हैं.

नए नवेले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में युवाओं को कनेक्ट करने की क्षमता नहीं है. वहीं जीवन के 6 दशक पार कर चुके मोदी भलिभांति जानते हैं कि युवाओं को कैसे कनेक्ट करना है. कर्नाटक के चुनाव में यह साफ देखने को मिल रहा है. राहुल जनमानस से संवाद स्थापित करने में नकाम रहे हैं. अभी हालिया विभिन्न प्रकरण देखे जाएं तो राहुल का होमवर्क अगामी लोकसभा चुनाव के लिए शून्य है.

परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस की सियासी ज़मीन दरक चुकी है

जिस प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी पर निजी हमले करते हैं, उससे कांग्रेस को कोई फायदा नहीं मिलने वाला. इसका खामियाजा कांग्रेस गत चुनावों में भुगत चुकी है. कठुआ गैंग रेप मामला हो या दलित प्रकरण, कांग्रेस ने समाज का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया. इसका फायदा बीजेपी को ही मिला क्योंकि ऐसे अनरगल विवादों के बाद जन समान्य के मुद्दे ओझल हो जाते हैं. उसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने का फैसला भी निहायत ही गैरवाजिब था. उपराष्ट्रपति के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने भी महाभियोग के इस प्रस्ताव को खारिज खर दिया. कांग्रेस की फिर फजीहत हुई. सरकार को घेरने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संप्रभुता पर हमला करना कहां तक सही है?

कांग्रेस में परिवारवाद का ही चरम है कि गांधी परिवार में नेहरु, इंदिरा और राजीव गांधी के बाद राहुल prime ministerial candidate हैं. परोक्ष रुप से ही सही, राहुल की मां सोनिया गांधी भी दस साल इस देश की प्रधानमंत्री रही हैं. परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस की सियासी ज़मीन दरक चुकी है. अभी जहां भी कांग्रेस सत्ता में है, गांधी परिवार की पकड़ वहां कमजोर है. जैसे कर्नाटक में सिद्धारमैया की चलती है, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की कप्तानी चलती है, राहुल यहां भी डग आऊट में बैठे नजर आते हैं.

नए नवेले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में युवाओं को कनेक्ट करने की क्षमता नहीं है. वहीं जीवन के 6 दशक पार कर चुके मोदी भलिभांति जानते हैं कि युवाओं को कैसे कनेक्ट करना है. कर्नाटक के चुनाव में यह साफ देखने को मिल रहा है. राहुल जनमानस से संवाद स्थापित करने में नकाम रहे हैं. अभी हालिया विभिन्न प्रकरण देखे जाएं तो राहुल का होमवर्क अगामी लोकसभा चुनाव के लिए शून्य है.

परिवारवाद के कारण ही कांग्रेस की सियासी ज़मीन दरक चुकी है

जिस प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मोदी पर निजी हमले करते हैं, उससे कांग्रेस को कोई फायदा नहीं मिलने वाला. इसका खामियाजा कांग्रेस गत चुनावों में भुगत चुकी है. कठुआ गैंग रेप मामला हो या दलित प्रकरण, कांग्रेस ने समाज का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया. इसका फायदा बीजेपी को ही मिला क्योंकि ऐसे अनरगल विवादों के बाद जन समान्य के मुद्दे ओझल हो जाते हैं. उसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने का फैसला भी निहायत ही गैरवाजिब था. उपराष्ट्रपति के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने भी महाभियोग के इस प्रस्ताव को खारिज खर दिया. कांग्रेस की फिर फजीहत हुई. सरकार को घेरने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संप्रभुता पर हमला करना कहां तक सही है?

कांग्रेस की किरकिरी और फजीहत का जिम्मेदार कौन है?

जबाव होगा राहुल गांधी. वही राहुल गांधी जो सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठना चाहते हैं. अपनी कप्तानी में सीरीज दर सीरीज गंवाते राहुल 2019 में वर्ल्डकप जीतना चाहते हैं. जीत की चाहत में वे यह भूल जाते हैं कि विजय के लिए एक संगठित टीम की दरकार होती है. होमवर्क और मजबूत कैप्टनसी के बिना जंगें नहीं जीती जातीं. खराब फिल्ड़िंग में जीत तो दूर प्रतिष्ठा भी नहीं बचती. अफसोस कि राहुल गांधी कमजोर कैप्टनसी, खराब फील्ड़िंग और असंगठित टीम को लेकर 2019 का समर फतह करना चाहते हैं. यह उनकी कोरी कल्पना ही हो सकती है.

कांग्रेस का कुनबा सिमटता चला जा रहा है. 2014 में कांग्रेस पार्टी करीब एक दर्जन राज्यों में सरकार चला रही थी. मौजूदा दौर में केवल 4 राज्यों में सत्ता सिमट चुकी है. नये नवेले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से लोगों को कुछ अलग उम्मीदें थीं. लेकिन वे भी कांग्रेस की उसी घिसी-पिटी लीक पर चलने लगे.

अपनी कप्तानी में सीरीज दर सीरीज गंवाते राहुल 2019 में वर्ल्डकप जीतना चाहते हैं

विपक्ष के रुप में भी फेल रहे राहुल

विपक्ष के रुप में भी कांग्रेस और राहुल का नेतृत्व फेल हुआ. राहुल से उम्मीदें थीं कि वे जनमानस के मुद्दों को उठाएंगें. परंतु ऐसा नहीं हुआ. संसद की कार्रवाई अमूमन बाधित रही. वास्तव में इसमें सरकार भी उतनी ही दोषी है जितनी विपक्षी पार्टियां.  तमाम विपक्षी पार्टियों को लीड करने की कांग्रेस की तत्परता जगजाहिर है. किंतु उन्होंने संसद की कार्रवाई चलने में कोई समन्वयकारी भूमिका नहीं निभाई. बैंक घोटालों, आम बजट, और तीन तलाक विधेयक पर सदन में बहस नहीं हो पाई. सदन हंगामे की भेंट चढ़ता रहा. एक विपक्ष के नेतृत्वकर्त्ता के रुप में भी राहुल फेल हो गए.

राहुल गांधी की अपरिपक्वता ही कही जाए कि वे मोदी से पंद्रह मिनट मांग रहे हैं. जबकि पिछले कुछ दिनों में जनता के बीच वे पंद्रह घंटों से ज्यादा बोल चुके हैं. वे चाहते तो जन मुद्दों को उठाकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर देते.

चुनाव के दौरान जनमानस के मुद्दों पर बात होनी चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है. कर्नाटक के चुनाव में रेड्डी बंधुओं पर प्रहार करके उन्होंने बीजेपी पर भ्रष्टाचार का आरोप मढ़ा. जबकि कांग्रेस ने भी कई दागियों को टिकट दिए हैं. इस पर वे मौन हैं. मालूम हो कि 2014 के आम चुनाव में भ्रष्टाचार के जनआंदोलन ने ही कांग्रेस की जमानत जब्त कर दी थी. कांग्रेस के खिलाफ बने एंटी इनकमबेंसी के माहौल में बीजेपी सत्ता में आई. खैर राहुल की बार-बार भूल करने की फितरत रही है. वे गलतियों से सीखते नहीं हैं.

गलतियों से सीख नहीं लेते राहुल

धार्मिक समुदायों के तुष्टीकरण की नीति कांग्रेस की रही है. कर्नाटक के चुनाव से कुछ दिन पहले कांग्रेस ने लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने की घोषणा की. हिन्दुओं से पृथक करके लिंगायतों का ध्रुवीकरण किया गया. गौरतलब है कि कर्नाटक में  बीजेपी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं. इसलिए कांग्रेस द्वारा लिंगायत कार्ड खेला गया. इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव समीप आने पर कांग्रेस सरकार द्वारा जैनों को अलग धर्म का दर्जा दिया गया था. इससे साफ होता है कि कांग्रेस के डीएनए में संप्रदायिकता कूट-कूट कर भरी हुई है. धर्म को बांटकर सियासत के दांव-पेच खेले जाते हैं. राहुल गांधी यहां भी चूक कर बैठे. राहुल से उम्मीदें थीं कि वे कांग्रेस की इन वर्जनाओं से कांग्रेस को बाहर निकालेगें. नवोन्मेषी राजनीति के वाहक बनेगें, किंतु ऐसा न हो सका.

बहरहाल जो भी हो नेहरु गांधी खानदान की पांचवी पीढ़ी के राहुल पर 132 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वजूद को बचाने का संकट है, तो वहीं मोदी और अमित शाह की जोड़ी पूरे देश में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लेकर विजयरथ पर सवार है. ऐसे में एक कमजोर टीम को लेकर आगे बढ़ रहे कप्तान राहुल की प्रधानमंत्री बनने की लालसा बहुत कम है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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