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भारत जोड़ो यात्रा की लंबी दूरी का सबसे बुरा असर इसके मकसद पर पड़ा

    • prakash kumar jain
    • Updated: 19 जनवरी, 2023 03:54 PM
  • 19 जनवरी, 2023 03:54 PM
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'भारत जोड़ो यात्रा' में दूरी असामान्य रूप से बड़ी है जिसे तय करने में मकसद इस कदर बदल रहे हैं कि कथित मूल मकसद गायब ही हो गया है. वस्तुतः 'भारत जोड़ो' का मकसद था ही नहीं, मकसद तो जोड़ने के नाम पर तोड़ना था. भाषा के नाम पर जब हिंदी विरोध दिखा, उत्तर-दक्षिण दिखा, जगजाहिर बांटने की बात करने वाले जहां-तहां जुड़ते दिखे.

रसूल ने कहा कि खुद को मार दिया है और जिसे अवाम देख रही है वो सिर्फ उनके दिमाग का तसव्वुर है. और फिर नवोदित स्वयंभू सर्वशक्तिमान ने हिंदू धर्म में ज्ञान बढ़ाने के लिए शिव जी को पढ़ने की राय भी दे डाली. बिन मांगे मोर.

दरअसल, हमारे मूसा पर जुनून सवार है परिपक्वता दिखाने की लेकिन ठंड के मारे वे मूड स्विंग्स पर काबू नहीं रख पा रहे हैं क्योंकि पूरा ध्यान तो टी शर्ट वाली छवि कायम रखने पर हैं. कुल मिलाकर बच्चा दिल है उनका, पर्सनल शेम से ऊपर है वे. उनका मूड स्विंग ही तो है मेधावी होने का आभास देते देते अचानक वे भुसकोल बन जाते हैं. यदि मकसद तलाशें उनकी यात्रा का तो एकमेव मकसद यही समझ आता है कि वे अब तक दुनिया की सभी यात्राओं को मात देना चाहते हैं लांगेस्ट वॉक यानी पैदल चलने के मामले में और वह भी निरंतर चलकर.

महात्मा गांधी की दांडी यात्रा साबरमती आश्रम से दांडी तक की थी, दूरी थी 390 किमी, जिसका मकसद था ब्रिटिश सरकार के नमक कानूनों को तोड़कर सविनय अवज्ञा प्रदर्शित करना. कुल मिलाकर मकसद बड़ा था, पैदल चलना प्रतीक स्वरुप था, इसलिए दूरी छोटी थी.

उनका मूड स्विंग ही तो है मेधावी होने का आभास देते देते अचानक वे भुसकोल बन जाते हैं.

मौजूदा यात्रा में दूरी असामान्य रूप से बड़ी है जिसे तय करने में मकसद इस कदर बदल रहे हैं कि कथित मूल मकसद गायब ही हो गया है. वस्तुतः "भारत जोड़ो" मकसद था ही नहीं, मकसद तो जोड़ने के नाम पर तोड़ना था. भाषा के नाम पर जब हिंदी विरोध दिखा, उत्तर-दक्षिण दिखा, जगजाहिर बांटने की बात करने वाले जहाँ तहाँ जुड़ते दिखे.

स्पष्ट है 'मूसा' की यात्रा महात्मा गांधी की प्रसिद्ध यात्राओं से प्रेरित नहीं थी. तो प्रेरणा कहाँ से मिली? उनके प्रेरणा स्त्रोत निश्चित ही फॉरेस्ट गंप हैं या फिर इटली के स्विट्ज़रलैंड बॉर्डर स्थित...

रसूल ने कहा कि खुद को मार दिया है और जिसे अवाम देख रही है वो सिर्फ उनके दिमाग का तसव्वुर है. और फिर नवोदित स्वयंभू सर्वशक्तिमान ने हिंदू धर्म में ज्ञान बढ़ाने के लिए शिव जी को पढ़ने की राय भी दे डाली. बिन मांगे मोर.

दरअसल, हमारे मूसा पर जुनून सवार है परिपक्वता दिखाने की लेकिन ठंड के मारे वे मूड स्विंग्स पर काबू नहीं रख पा रहे हैं क्योंकि पूरा ध्यान तो टी शर्ट वाली छवि कायम रखने पर हैं. कुल मिलाकर बच्चा दिल है उनका, पर्सनल शेम से ऊपर है वे. उनका मूड स्विंग ही तो है मेधावी होने का आभास देते देते अचानक वे भुसकोल बन जाते हैं. यदि मकसद तलाशें उनकी यात्रा का तो एकमेव मकसद यही समझ आता है कि वे अब तक दुनिया की सभी यात्राओं को मात देना चाहते हैं लांगेस्ट वॉक यानी पैदल चलने के मामले में और वह भी निरंतर चलकर.

महात्मा गांधी की दांडी यात्रा साबरमती आश्रम से दांडी तक की थी, दूरी थी 390 किमी, जिसका मकसद था ब्रिटिश सरकार के नमक कानूनों को तोड़कर सविनय अवज्ञा प्रदर्शित करना. कुल मिलाकर मकसद बड़ा था, पैदल चलना प्रतीक स्वरुप था, इसलिए दूरी छोटी थी.

उनका मूड स्विंग ही तो है मेधावी होने का आभास देते देते अचानक वे भुसकोल बन जाते हैं.

मौजूदा यात्रा में दूरी असामान्य रूप से बड़ी है जिसे तय करने में मकसद इस कदर बदल रहे हैं कि कथित मूल मकसद गायब ही हो गया है. वस्तुतः "भारत जोड़ो" मकसद था ही नहीं, मकसद तो जोड़ने के नाम पर तोड़ना था. भाषा के नाम पर जब हिंदी विरोध दिखा, उत्तर-दक्षिण दिखा, जगजाहिर बांटने की बात करने वाले जहाँ तहाँ जुड़ते दिखे.

स्पष्ट है 'मूसा' की यात्रा महात्मा गांधी की प्रसिद्ध यात्राओं से प्रेरित नहीं थी. तो प्रेरणा कहाँ से मिली? उनके प्रेरणा स्त्रोत निश्चित ही फॉरेस्ट गंप हैं या फिर इटली के स्विट्ज़रलैंड बॉर्डर स्थित "कोमो" शहर का वो शख्स था जो 450 किमी लगातार पैदल इसलिए चला चूंकि वह इतने गुस्से में था कि उसे पता ही नहीं चला कब इतनी दूर आ गया. बकौल उस शख्स के, "मैं इतने गुस्से में था कि मुझे पता ही नहीं चला कब इतनी दूर आ गया.

मैं सिर्फ अपना दिमाग शांत करने के लिए घर से पैदल ही निकला था.'' उसने बताया कि रास्ते में अनजान लोगों ने खाना खिलाया, वह एक दिन में करीब 64 किलोमीटर चलता. शख्स ने पुलिस वालों से कहा, ''मैं ठीक हूं, बस थोड़ा थक गया हूं.'' फॉरेस्ट गंप वाला स्त्रोत ज्यादा सटीक इसलिए है कि उसके साथ भी कारवां जुड़ता चला गया था जबकि इटली वाले शख्स की यात्रा 'एकला चलो रे' टाइप थी. फिर फॉरेस्ट गंप वही 'लाल सिंह चड्ढा' ही है जिनके किरदार में हमारे प्रिय आमिर खान के यात्रा वाले "लुक" को ही हमारे 'मूसा' ने अडॉप्ट किया है. या फिर दोनों यात्राओं के कॉमन उन्हें प्रेरित कर गए- "हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें, दूसरों की जय के पहले खुद की जय करें ." बात हो रही है "मूसा" की तो याद आ रहे हैं बराक ओबामा जिन्होंने दुनिया के समकालीन नामचीन व्यक्तियों के बारे में खरी खरी बातें रखीं थी.

उन्होंने बात की हमारे पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की, बात की उनकी सुंदरता की जिन्होंने प्रधानमंत्री की विदेशी बहू से कांग्रेस की सबसे लंबे अरसे तक अध्यक्ष रहने तक का सफर तय किया और बात हमारे 'मूसा' की भी की. उन्होंने कहा कि "उनमें एक ऐसे 'घबराए हुए और अनगढ़' छात्र के गुण हैं जिसने अपना पूरा पाठ्यक्रम पूरा कर लिया है और वह अपने शिक्षक को प्रभावित करने की चाहत रखता है लेकिन उसमें 'विषय में महारत हासिल' करने की योग्यता या फिर जूनून की कमी है." और इस "भारत जोड़ो यात्रा" ने ओबामा को सही साबित कर दिया है.

किसी भी अच्‍छे वक्‍ता और नेता से यह अपेक्षा की जाती है वह जो भी बोले उसका मतलब सीधा और सरल हो. उसके कई मायने निकालने की गुंजाइश नहीं हो. लेकिन 'मूसा' जब भी जो बोल रहे हैं, लोगों के पल्ले नहीं पड़ता. बोलते बोलते वे ऊक-चूक बोल जाते हैं और जब उन्हें इस बात का एहसास होता है तो वे अपने ऊक-चूक कहे को आध्यात्मिक पुट देने लगते हैं. फिर वे कह भी देते हैं कि जिस बंदे से कहा वो समझ गया.

यानी उन्हें पता था कि वह 'आध्यात्मिक' लहजे में जो कह रहे हैं उसे ज्यादा लोग समझ नहीं सकेंगे. अगर बात यही है तो देश की सबसे पुरानी पार्टी का शीर्ष नेता होते हुए वे ऐसा बोलते ही क्यों है मसलन "आपके देश की फिलॉसफी". या फिर वो कह दिया जिससे हमने शुरुआत की थी. ......... ही कर दी ........... की हत्या. कहना क्या चाह रहे हैं? वो इसे और ज्यादा स्पष्ट करते तो बेहतर होता. क्या वे किसी गहरे मनोवैज्ञानिक सत्य की तरफ इशारा कर रहे हैं? क्या वो कहना चाह रहे हैं कि लोगों के मन में जो उन्हें लेकर छवि बनी हुई है, धारणा बनी हुई है, उसे वे भूल जाएं, क्योंकि उन्होंने खुद ही उसे विस्मृति के हवाले कर दिया है, उसे मार दिया है, मिटा डाला है.

दरअसल मानवीय संबंधों में छवियों का बड़ा महत्व होता है और अक्सर जो छवि बन जाती है किसी की वो इतनी प्रबल होती है कि उसके पीछे लगातार बदलता, संघर्ष करता वास्तविक इंसान छिप ही जाता है. और यही हो रहा है . इसके अलावा हाल में ही खुद को 'तपस्वी' बता दिया. 'तपस्वी बताया' तक तो ठीक था लेकिन पता नहीं क्यों ज्ञान बखार दिया "पुजारी" के लिए. बेहतर होता कहते वे निरंतर सच्ची पूजा कर, ध्यानस्थ होकर तपस्वी बन चुके हैं; सूर्य, वायु, अग्नि, धूप, वर्षा, उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते. कौरव और पांडव की गाथा को उद्धृत करते हुए आरएसएस के स्वयंसेवकों को कौरव बता दिया. और फिर कह दिया कि 'भाई' से नफ़रत नहीं हैं, गले लगा लूंगा लेकिन वो कौरव है. वाह. क्या ज्ञान है?

नफ़रत की दूकान बंद कर प्यार बाँटने चले हैं लेकिन तमाम उन देशवासियों को, जो आरएसएस में कभी भी गए हैं, कौरव बताकर तज दे रहे हैं . दरअसल ना तो उन्होंने महाभारत को समझा है, ना ही गीता को , ना ही श्रीकृष्ण को और ना ही श्रीराम को. कहावत है 'अधजल गगरी छलकत जाए' जो उन पर पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है. तभी तो जब तब अनावश्यक ही गीता को उद्धृत करते हुए भी सुने गए हैं और मंदिर-मंदिर घूमते भी देखे गए हैं. बेहतर यही होगा वे समझ लें धर्म और दर्शन उनकी 'कप ऑफ़ टी' नहीं है, राजनतिक विमर्शं में तो कदापि नहीं.

धर्म और दर्शन के इलाकों से थोड़ी दूरी बनाए रखना ही उनके लिए श्रेयस्कर है. इस तरह के बयान जब भी वे देते हैं, अवाम बिल्कुल नहीं समझती कि उनकी गहरी समझ से उपजे हैं या कही और से. और फिर पार्टी के तमाम प्रवक्ता और नेता अपने अपने तरीके से 'अबूझ" को समझाने के निष्फल प्रयासों से आग में घी डालने का ही काम कर बैठते है. दरअसल जो वे कर रहे हैं, गैर जरूरी है. फिर कांग्रेस की तो यूएसबी रही है कि वो मत निरपेक्ष है और धर्म को राजनीति में नहीं घसीटती. उसे चेंज करने की क्या जरूरत है? उन्हें अभी से बीजेपी के अखाड़े में जाकर उनसेदांव क्यों आजमाने हैं?

उनकी पिच पर बैटिंग करने के खतरे को क्यों नहीं समझते? समझना चाहिए, तभी वे राजनीतिक रूप से परिपक्व बनकर उभरेंगे. क्या गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक और सामाजिक असंतुलन, सांप्रदायिक वैमनस्य सरीखे मुद्दों पर 'मूसा' को विश्वास नहीं है.? शायद वे समझ गए हैं कि इन तमाम मुद्दों में हाइप ज्यादा है, फ़साना ज्यादा है, हकीकत कम है. और यदि ऐसा है तो फिलहाल उन्हें देशहित में सकारात्मक रुख अपनाना होगा, स्वस्थ आलोचना और विमर्श से ही वे शनैः शनैः अपनी और पार्टी की छवि निखार पाएंगे.

आखिर बीजेपी को भी तो सत्ता के लिए दशकों इंतजार करना पड़ा था. फिर जब आप स्वस्थ राजनीति की डगर अपनाएंगे, जनता में विश्वास बढ़ेगा और तब शायद नौबत ये आये कि जनता वही स्ट्रेटेजी केंद्र के लिए अपनाए जो अमूमन राज्यों में अपनाती है मसलन पंचसालाना परिवर्तन बेहतर परफॉरमेंस के लिए, देशहित में जनहित में बेहतर भविष्य के लिएॉ. कुल मिलाकर सिर्फ और सिर्फ बेहतरी के लिए अपने विज़न को रखें, समझाएं बजाय फिजूल की, बेसिरपैर की नुक्ताचीनी के.

सो फिलहाल सिर्फ सोचें एक मजबूत विकल्प के रूप में उभरने की और विपक्ष के रूप में खुद को स्थापित करने की, वरना उनकी छोटी मोटी जीतें बेमानी ही साबित होगी और जनता ठगा हुआ ही महसूस करेगी. ऐसा ही कुछ हिमाचल की जनता सोच भी रही है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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