• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

प्रियंका गांधी ने अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने से पहले कांग्रेस कार्यकर्ताओं को फेल कर दिया!

    • आईचौक
    • Updated: 14 जून, 2019 08:49 PM
  • 14 जून, 2019 08:49 PM
offline
प्रियंका गांधी वाड्रा ने आम चुनाव में 38 रैलियां की थीं. जिन उम्मीदवारों के लिए प्रियंका वाड्रा ने प्रचार किया उनमें से 34 हार गये थे और महज चार ही जीत पाये थे - हार में अमेठी भी शामिल रहा. आखिर प्रियंका हार की जिम्मेदारी से कैसे पल्ला झाड़ सकती हैं?

प्रियंका गांधी वाड्रा तो दूसरों पर दोष मढ़ने के मामले में राहुल गांधी से भी दो कदम आगे निकलीं. राहुल गांधी ने तो कम से कम हार की जिम्मेदारी स्वीकार की और इस्तीफे की पेशकश भी कर डाली थी - लेकिन प्रियंका वाड्रा तो उलटे कार्यकर्ताओं पर ही बरस पड़ी हैं. कांग्रेस की हार का सारा ठीकरा प्रियंका वाड्रा ने तो कार्यकर्ताओं पर ही फोड़ डाला है.

प्रियंका वाड्रा का ये तरीका काफी हद तक राहुल गांधी से मिलता जुलता भी है जिसमें वो अशोक गहलोत और कमलनाथ को फेमिली पॉलिटिक्स पर लेक्चर दे डालते हैं. सवाल तो ये है कि खुद खानदानी राजनीति की वजह से कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले राहुल गांधी कुछ नेताओं के बेटों को टिकट दिलवाने की जिद को कैसे कांग्रेस की हार की वजह बता सकते हैं?

निश्चित तौर पर कोई भी संगठन कार्यकर्ता या काडर, विचारधारा और नेतृत्व से आगे बढ़ता है - और हर हार-जीत टीम वर्क का नतीजा होती है. वस्तुस्थिति तो ये है कि कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में कार्यकर्ताओं के लाले पड़े हैं - और नेतृत्व खुद को सही साबित करने के लिए अपनी ही खामियों से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा है - असल बात तो ये है कि प्रियंका और राहुल दोनों ही दूसरों के सिर दोष थोप कर खुद की पीठ थपथपाने की कोशिश कर रहे हैं.

कार्यकर्ता नहीं, सवालों के घेरे में तो नेतृत्व है

ऐसा लगता है 2018 के आखिर में तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत भी कुछ हद तक आम चुनाव में पार्टी की हार की वजह बनी है. राहुल गांधी ने जीत का पूरा श्रेय अपने पास रख लिया था - और छह महीने के अंदर ही उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. ऐसे कैसे हो सकता है कि जो नेता खुद के बूते तीन राज्यों में सरकार बनवाने के आत्मविश्वास से भरा हो - और अगले ही आम चुनाव में उन राज्यों में भी तकरीबन सारी सीटें गवां डाले. तीनों राज्यों में कांग्रेस की जीत निश्चित रूप से राहुल गांधी के लिए एक खुशनुमा तोहफा रहा, लेकिन आगे की जंग वो उसी खुशफहमी में गवां बैठे. ये कांग्रेस की वो जीत ही रही जिसने उसे विपक्षी खेमे से...

प्रियंका गांधी वाड्रा तो दूसरों पर दोष मढ़ने के मामले में राहुल गांधी से भी दो कदम आगे निकलीं. राहुल गांधी ने तो कम से कम हार की जिम्मेदारी स्वीकार की और इस्तीफे की पेशकश भी कर डाली थी - लेकिन प्रियंका वाड्रा तो उलटे कार्यकर्ताओं पर ही बरस पड़ी हैं. कांग्रेस की हार का सारा ठीकरा प्रियंका वाड्रा ने तो कार्यकर्ताओं पर ही फोड़ डाला है.

प्रियंका वाड्रा का ये तरीका काफी हद तक राहुल गांधी से मिलता जुलता भी है जिसमें वो अशोक गहलोत और कमलनाथ को फेमिली पॉलिटिक्स पर लेक्चर दे डालते हैं. सवाल तो ये है कि खुद खानदानी राजनीति की वजह से कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले राहुल गांधी कुछ नेताओं के बेटों को टिकट दिलवाने की जिद को कैसे कांग्रेस की हार की वजह बता सकते हैं?

निश्चित तौर पर कोई भी संगठन कार्यकर्ता या काडर, विचारधारा और नेतृत्व से आगे बढ़ता है - और हर हार-जीत टीम वर्क का नतीजा होती है. वस्तुस्थिति तो ये है कि कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में कार्यकर्ताओं के लाले पड़े हैं - और नेतृत्व खुद को सही साबित करने के लिए अपनी ही खामियों से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा है - असल बात तो ये है कि प्रियंका और राहुल दोनों ही दूसरों के सिर दोष थोप कर खुद की पीठ थपथपाने की कोशिश कर रहे हैं.

कार्यकर्ता नहीं, सवालों के घेरे में तो नेतृत्व है

ऐसा लगता है 2018 के आखिर में तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत भी कुछ हद तक आम चुनाव में पार्टी की हार की वजह बनी है. राहुल गांधी ने जीत का पूरा श्रेय अपने पास रख लिया था - और छह महीने के अंदर ही उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. ऐसे कैसे हो सकता है कि जो नेता खुद के बूते तीन राज्यों में सरकार बनवाने के आत्मविश्वास से भरा हो - और अगले ही आम चुनाव में उन राज्यों में भी तकरीबन सारी सीटें गवां डाले. तीनों राज्यों में कांग्रेस की जीत निश्चित रूप से राहुल गांधी के लिए एक खुशनुमा तोहफा रहा, लेकिन आगे की जंग वो उसी खुशफहमी में गवां बैठे. ये कांग्रेस की वो जीत ही रही जिसने उसे विपक्षी खेमे से दूर कर दिया - और सारी कवायद धरी की धरी रह गयी.

प्रियंका गांधी वाड्रा को तो सबसे बड़ा सवाल खुद से पूछना चाहिये कि राहुल गांधी अमेठी क्यों हार गये? आखिर अमेठी में ऐसा क्या बदलाव हुआ था कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं से गलती हो गयी?

अमेठी में तो प्रियंका वाड्रा बरसों से काम करती रही हैं. वही कार्यकर्ता ही तो होंगे जो 2004 से 2014 तक राहुल गांधी की जीत सुनिश्चित करते आये होंगे. अमेठी और रायबरेली में तो किसी की दखल देने की भी हिम्मत नहीं होती रही. 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान पूरे यूपी में चुनावी रणनीतिकार प्रशांत कांग्रेस की मुहिम की निगरानी करते रहे लेकिन अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर से उन्हें दूर रहने का ही मैसेज दे दिया गया.

जहां तक कार्यकर्ताओं की भूमिका का सवाल है तो ये रायबरेली के लिए सवाल हो सकता था. रायबरेली में सोनिया गांधी के करीबी माने जाने वाले दिनेश प्रताप सिंह चुनाव से साल भर पहले बीजेपी में चले गये और कांग्रेस के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गये. जाहिर है कांग्रेस के काफी कार्यकर्ता बीजेपी के लिए काम किये होंगे - घोषित तौर पर ऐसी कोई बात अमेठी में तो रही नहीं. अब अगर किसी वजह से कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ता स्मृति ईरानी के सपोर्ट में मोदी-मोदी करने लगे तो इसके लिए दिन रात खून पसीना बहाने वाले बाकी कार्यकर्ता कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं.

क्या प्रियंका गांधी वाड्रा अमेठी की हार की जिम्मेदारी से बच सकती हैं?

बाकी जगह की छोड़ भी दें तो कम से कम अमेठी की हार की जिम्मेदारी तो खुले दिल से प्रियंका वाड्रा को स्वीकार करनी चाहिये. पहले तो वो वैसे ही परिवार का मामला होने के चलते अमेठी और रायबरेली की चुनावी मुहिम संभालती रहीं - इस बार तो कांग्रेस नेतृत्व ने औपचारिक तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान ही सौंप दी थी.

सबसे अजीब बात तो ये है कि राहुल गांधी के चुनाव हार जाने के बाद से कांग्रेस नेतृत्व ने अमेठी से दूरी बना रखी है. कहां राहुल गांधी पहले अमेठी जाते, तो वायनाड पहुंच गये और जन्मों का नाता जोड़ने लगे. सोनिया गांधी ने भी अमेठी की जगह रायबरेली को ही चुना - और तो और प्रियंका गांधी ने भी अमेठी जाना मुनासिब नहीं समझा जबकि रायबरेली में कांग्रेस की लगातार बैठकें होती रहीं.

जब गांधी परिवार एक हार से नाराज होकर अपने ही गढ़ से मुंह मोड़ लेगा, तो किस मुंह से कार्यकर्ताओं को कोसा जा सकता है - ये तो यही साबित करता है कि अमेठी वालों ने कांग्रेस नेतृत्व को सबक सिखाने का जो फैसला किया वो बिलकुल वाजिब है - ये कांग्रेस नेतृत्व ही है जो बार बार अमेठी के लोगों के फैसले को सही साबित करने पर तुला हुआ है.

हक तो कार्यकर्ताओं का बनता है नेतृत्व पर सवाल उठाने का

ये 2018 के ही पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव जिनके नतीजों को लेकर बीजेपी के सीनियर नेता नितिन गडकरी ने तब पार्टी नेतृत्व को कठघरे में खड़ा किया था. तब नितिन गडकरी का कहना रहा, 'असफलता का कोई पिता नहीं होता.' बाद में नितिन गडकरी ने भले अपने बयान को तोड़ने मरोड़ने का आरोप लगाकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की हो, लेकिन सवाल तो सही ही उठाया था.

अगर नेता जीत का श्रेय मुस्कुराते हुए आगे बढ़ कर ले लेता है तो हार की जिम्मेदारी भी उसी हिम्मत के साथ लेनी चाहिये.

अगर कार्यकर्ता नतीजे देने में नाकाम रह रहे हैं तो नेतृत्व के लिए इससे बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है?

आम चुनाव के कैंपेन को ही लें तो मोदी-शाह के भारी जीत हासिल करने में उनका उम्दा प्रदर्शन भी रहा. रैलियों के हिसाब से जीत का जो स्ट्राइक रेट बना था उसमें भी बीजेपी नेतृत्व ही टॉपर रहा. रैलियों की संख्या और जीत की तुलना करने पर मालूम हुआ कि सबसे ज्यादा स्ट्राइक रेट नरेंद्र मोदी का रहा, उसके बाद अमित शाह का, फिर योगी आदित्यनाथ का और उसके बाद ममता बनर्जी का. देश के छह बड़े नेताओं की इस सूची में पांचवे स्थान पर राहुल गांधी रहे और आखिरी पायदान पर जगह बनाकर प्रियंका गांधी ही फिसड्डी साबित हुईं.

राहुल गांधी ने आम चुनाव में 115 रैलियां की थी और उनका स्ट्राइक रेट 19 फीसदी रहा. जिन इलाकों में राहुल गांधी ने चुनावी रैली की थी उनमें से 81 कांग्रेस उम्मीदवार हार गये और सिर्फ 22 ही जीत हासिल कर पाये. जिम्मेदारी तो प्रियंका वाड्रा को पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिली थी लेकिन दूसरी जगहों पर भी उन्होंने रैलियां की थी. प्रियंका वाड्रा ने देश भर में 38 रैलियां की थीं लेकिन जीत सिर्फ चार सीटों पर ही नसीब हुई, बाकी 34 सीटों पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था. इस हिसाब से तो कार्यकर्ताओं का ही हक बनता है नेतृत्व के प्रदर्शन पर सवाल उठाने का - लेकिन ये तो उलटी गंगा ही बहाने की कोशिश चल पड़ी है.

राहुल गांधी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कॉपी करते देखे गये हैं - लेकिन लगता है सबक सीखने से चूक जाते हैं. अमित शाह से भी राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के लिए सीखने को काफी कुछ है. क्या राहुल गांधी या प्रियंका वाड्रा ने इस बात पर कभी ध्यान दिया कि गोरखपुर उपचुनाव में हार को लेकर बीजेपी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ को सार्वजनिक तौर पर कभी कुछ कहा हो. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तो यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का गोरखपुर की हार को लेकर भी बचाव करते ही देखे गये. जबकि हर तरफ चर्चा रही कि गोरखपुर उपचुनाव में बीजेपी को योगी आदित्यनाथ की नाराजगी की कीमत चुकानी पड़ी थी.

खबरें तो ऐसी भी आई हैं कि रायबरेली में भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने राहुल गांधी के प्रति ही नाराजगी जतायी है. सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा ने कांग्रेस पदाधिकारियों को बातचीत के लिए रायबरेली बुलाया था. उसी दौरान कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने आपस में और मीडिया से बातचीत में आरोप लगाया कि राहुल गांधी खुद न तो उम्मीदवारों को लेकर और नहीं चुनाव प्रचार की दशा और दिशा में कोई दिलचस्पी लेते थे.

तो क्या प्रियंका वाड्रा ने राहुल गांधी पर सवाल उठाने के चलते कार्यकर्ताओं पर हार की तोहमत मढ़ने की कोशिश की है?

क्या राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने कभी इस बात को महसूस किया है कि क्यों प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी समर्थक विरोधियों से किसी भी स्थान पर झगड़ा करने पर क्यों उतारू हो जाते हैं? ऐसे लोग गली, मोहल्ले, चाय-पान की दुकान या कहीं भी देखे जा सकते हैं. वे बीजेपी के कार्यकर्ता नहीं हैं फिर भी कैमरे के सामने से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह मोदी-मोदी किये रहते हैं.

ऐसा नहीं है कि ये इस देश में ऐसा पहली बार हो रहा है. हो सकता है अब ज्यादा हो रहा हो - लेकिन कभी इंदिरा गांधी की भी बहुत लोकप्रिय नेता हुआ करती रहीं. राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा जब तक इस बात को महसूस नहीं करेंगे - कांग्रेस का IC से बाहर निकलना नामुमकिन है.

इन्हें भी पढ़ें :

Rahul Gandhi का वायनाड दौरा बता रहा है कि अमेठी वालों का फैसला सही था

राहुल गांधी के विकल्प की तलाश खत्म, चुनौती वहीं की वहीं!

सोनिया गांधी के फिर मोर्चे पर लौटने का मतलब राहुल गांधी की विफलता पर मुहर



इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲