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बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार का हाल प्रवासी मजदूरों जैसा हो गया

    • आईचौक
    • Updated: 20 सितम्बर, 2020 10:35 PM
  • 20 सितम्बर, 2020 10:35 PM
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प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) और कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) ने बड़े जोर शोर से बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) की तैयारी शुरू की थी लेकिन लॉकडाउन के चलते दोनों का हाल प्रवासी मजदूरों से भी बुरा हो गया - अभी तो ऐसा लग रहा है जैसे दोनों ही चुनावी सीन से नदारद हों.

बिहार चुनाव 2020 की तैयारियां जोर पकड़ चुकी हैं. एनडीए और महागठबंधन के नेता तो सक्रिय नजर आ रहे हैं, लेकिन ऐसे दो चेहरे जो लॉकडाउन से पहले एक्टिव रहे वे सीन से गायब लग रहे हैं - जेडीयू के उपाध्यक्ष रहे प्रशांत किशोर और सीपीआई के टिकट पर बेगूसराय संसदीय सीट से चुनाव लड़ चुके कन्हैया कुमार.

2020 के शुरू में ही कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर खासे एक्टिव रहे और अक्सर बताते रहे कि चुनावी मुद्दा क्या होने वाला है. कन्हैया कुमार CAA, NPR और NRC के विरोध में बिहार दौरे पर निकले थे और कई जगह उनको लोगों का विरोध भी झेलना पड़ा था. एक-दो जगह तो काफिले पर लोगों के हमले के बाद पुलिस को सुरक्षित निकालने के लिए मशक्कत करनी पड़ी थी.

प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने भी एक मुहिम शुरू की थी - 'बात बिहार की'. मुहिम को लेकर लंबे चौड़े दावे भी किये थे, लेकिन कुछ दिन बाद ही सब ठंडा पड़ गया. वजह भी कोई ऐसी वैसी नहीं थी, कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते दुनिया की बाकी चीजों की तरह परंपरागत राजनीति के तौर तरीके भी बदल गये. ले देकर सोशल मीडिया और वर्चुअल कैंपेन का ही सहारा बचा जो सत्ता पक्ष के लिए तो ठीक रहा लेकिन विपक्षी खेमा कुछ भी कर पाने में असमर्थ साबित होने लगा.

लॉकडाउन का सबसे ज्यादा बुरा और सीधा असर अगर किसी पर पड़ा तो वे प्रवासी मजदूर हैं, लेकिन राजनीति के हिसाब से देखें तो प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार का हाल तो उनके जैसा भी नहीं लग रहा है - कम से कम बिहार की राजनीति के मामले में तो ऐसा लगता ही है. प्रवासी मजदूरों के साथ एक बात तो है कि विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2020) में एक वोट बैंक के रूप में उनकी पूछ बनी रहेगी, लेकिन प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार तो वैसी भी किसी आवाज का हिस्सा नहीं लग रहे हैं.

लॉकडाउन ले डूबा!

प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार जिन दिनों बिहार चुनाव को लेकर खासे तत्पर दिखायी दे रहे थे, फोर्ब्स मैगजीन ने दुनिया के टॉप-20 निर्णायक लोगों की एक सूची जारी की थी. सूची...

बिहार चुनाव 2020 की तैयारियां जोर पकड़ चुकी हैं. एनडीए और महागठबंधन के नेता तो सक्रिय नजर आ रहे हैं, लेकिन ऐसे दो चेहरे जो लॉकडाउन से पहले एक्टिव रहे वे सीन से गायब लग रहे हैं - जेडीयू के उपाध्यक्ष रहे प्रशांत किशोर और सीपीआई के टिकट पर बेगूसराय संसदीय सीट से चुनाव लड़ चुके कन्हैया कुमार.

2020 के शुरू में ही कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर खासे एक्टिव रहे और अक्सर बताते रहे कि चुनावी मुद्दा क्या होने वाला है. कन्हैया कुमार CAA, NPR और NRC के विरोध में बिहार दौरे पर निकले थे और कई जगह उनको लोगों का विरोध भी झेलना पड़ा था. एक-दो जगह तो काफिले पर लोगों के हमले के बाद पुलिस को सुरक्षित निकालने के लिए मशक्कत करनी पड़ी थी.

प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने भी एक मुहिम शुरू की थी - 'बात बिहार की'. मुहिम को लेकर लंबे चौड़े दावे भी किये थे, लेकिन कुछ दिन बाद ही सब ठंडा पड़ गया. वजह भी कोई ऐसी वैसी नहीं थी, कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते दुनिया की बाकी चीजों की तरह परंपरागत राजनीति के तौर तरीके भी बदल गये. ले देकर सोशल मीडिया और वर्चुअल कैंपेन का ही सहारा बचा जो सत्ता पक्ष के लिए तो ठीक रहा लेकिन विपक्षी खेमा कुछ भी कर पाने में असमर्थ साबित होने लगा.

लॉकडाउन का सबसे ज्यादा बुरा और सीधा असर अगर किसी पर पड़ा तो वे प्रवासी मजदूर हैं, लेकिन राजनीति के हिसाब से देखें तो प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार का हाल तो उनके जैसा भी नहीं लग रहा है - कम से कम बिहार की राजनीति के मामले में तो ऐसा लगता ही है. प्रवासी मजदूरों के साथ एक बात तो है कि विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2020) में एक वोट बैंक के रूप में उनकी पूछ बनी रहेगी, लेकिन प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार तो वैसी भी किसी आवाज का हिस्सा नहीं लग रहे हैं.

लॉकडाउन ले डूबा!

प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार जिन दिनों बिहार चुनाव को लेकर खासे तत्पर दिखायी दे रहे थे, फोर्ब्स मैगजीन ने दुनिया के टॉप-20 निर्णायक लोगों की एक सूची जारी की थी. सूची में जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को अगले दशक का निर्णायक चेहरा बताया गया था. सूची में कन्हैया कुमार 12वें स्थान पर जगह बना सके थे और प्रशांत किशोर 16वें पायदान पर रहे.

कन्हैया कुमार के बारे में मैगजीन ने लिखा, वो भविष्य में भारतीय राजनीति में शक्तिशाली पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वैसे ही प्रशांत किशोर को लेकर लिखा, वो 2011 से एक राजनीतिक रणनीतिकार हैं जिन्होंने बीजेपी को गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने में मदद की और 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

हाल ही में एक चर्चा रही कि वो बेगूसराय से ही विधानसभा चुनाव लड़ सकते हैं. कन्हैया कुमार 2019 में बेगूसराय लोक सभा सीट पर बीजेपी के गिरिराज सिंह से चुनाव हार गये थे. अभी उनका नाम बेगूसराय की बछवाड़ा विधानसभा सीट से लिया गया. सोशल मीडिया पर भी चर्चा रही, लेकिन ऐसा संभव नहीं लगा.

बिहार चुनाव में कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर गैरहाजिर क्यों हैं

कन्हैया कुमार बिहार की सूबे की राजनीति में शायद ही कभी फिट साबित हो पायें. एक तो वो भूमिहार समुदाय से आते हैं और दूसरे उनकी पार्टी सीपीआई. बिहार की राजनीति जातिवाद से ही चलती है और सीपीआई का इससे कोई राजनीतिक वास्ता नहीं होता. कन्हैया कुमार अगर किसी दूसरी पार्टी से होते तो लोग उनको भूमिहार के तौर पर वोट देते, लेकिन इन बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता.

बीजेपी और जेडीयू से इतर बिहार की राजनीति में कन्हैया कुमार का युवा होना मिसफिट कर देता है. विपक्षी खेमे में आरजेडी भले ही लोक सभा चुनाव में कुछ भी हासिल नहीं कर पायी हो, लेकिन सबसे बड़े नेता तेजस्वी यादव माने जाते हैं - और यही वजह है कि कन्हैया कुमार को दूर कर दिया जाता है. सही बात भी है अगर एक ही मंच पर तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार खड़े हों तो कौन किस पर भारी पड़ेगा आसानी से समझा जा सकता है. तुलना करने वाले तो दोनों की शिक्षा-दीक्षा को लेकर भी करते हैं, लेकिन राजनीति में और भी चीजें मायने रखती हैं. कन्हैया कुमार जो भी हैं वो अपनी प्रतिभा के दम पर हैं और तेजस्वी यादव सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि वो लालू प्रसाद यादव के बेटे हैं.

कन्हैया कुमार पर एक और ठप्पा लगा हुआ है और जब तक उससे बरी नहीं होते वो उनका पीछा नहीं छोड़ने वाला - देशद्रोह का मुकदमा. कुछ दिन पहले दिल्ली दंगों को लेकर जेएनयू में कन्हैया कुमार के साथी रहे उमर खालिद को गिरफ्तार किया गया है. गिरफ्तारी के विरोध में एक प्रेस कांफ्रेंस बुलायी गयी थी और वहां भी कन्हैया कुमार की गैरमौजूदगी पर सवाल खड़े किये गये. बाद में कन्हैया कुमार की सफाई आयी कि वो एक सांसद के यहां जरूरी चुनावी मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे इसलिए प्रेस कांफ्रेंस में नहीं पहुंच पाये.

असल वजह जो भी हो, लेकिन कन्हैया कुमार के लिए ये सब दो नावों की सवारी ही साबित हो रहा है. उधर नहीं पहुंचते तो सवाल उठता ही है - और बिहार चुनाव में नजर नहीं आते तो भी सवाल उठना लाजिमी ही है.

बात बिहार की या पश्चिम बंगाल की?

ठीक पांच साल पहले बिहार चुनाव में ही प्रशांत किशोर वीआईपी बने हुए थे. चुनाव नतीजे आये तो मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जेडीयू में उपाध्यक्ष बनाकर नंबर दो की पोजीशन दे डाली - बताया भी, प्रशांत किशोर पार्टी का भविष्य हैं. भविष्य तो नहीं लेकिन भविष्यवाणी बहुत टिकाऊ नहीं रही. एक वक्त ऐसा आया कि नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जेडीयू से बाहर का रास्ता दिखा दिया.

फिर भी, जब अपनी मुहिम 'बात बिहार की' शुरू करने प्रशांत किशोर पटना पहुंचे तो नीतीश कुमार को पिता तुल्य और खुद को बेटे जैसा ही बताया. मुहिम को लेकर प्रशांत किशोर ने 100 दिन का एजेंडा भी बताया था. पंचायत, प्रखंड और गांव तक उनका दौरान होना था. 88 हजार पंचायतों में से एक हजार को चुन कर वहां काम करने की बात भी कही. लगे हाथ ये भी यकीन दिलाने की कोशिश की कि उनकी कोशिश होगी कि अलगे दस साल में बिहार देश में विकास के मामले में अगली कतार का राज्य बने.

प्रशांत किशोर ने अपनी पहल के साथ राजनीतिक पार्टी बनाने के भी संकेत दिये थे, लेकिन ये भी साफ कर दिया था कि अगर राजनीतिक दल खड़ा हुआ तो भी 2020 का चुनाव लड़ने का कार्यक्रम नहीं होगा क्योंकि उनकी नजर 2025 के विधानसभा चुनाव पर होगी.

प्रशांत किशोर का सोचना भी सही था. अब हर कोई अरविंद केजरीवाल जैसा हो भी तो नहीं सकता. प्रशांत किशोर भले ही अरविंद केजरीवाल को चुनाव जिता दें, लेकिन अरविंद केजरीवाल की तरह चुनाव मैदान में खुद तो फिलहाल नहीं ही उतर सकते, भविष्य की बात और है.

प्रशांत किशोर के ऐलान और पटना में दफ्तर खुलते ही सुबह से ही रजिस्ट्रेशन के लिए लोगों की लाइन लगने लगी. दफ्तर में काम भी करने वाले भी काफी लोग देखे गये, लेकिन कुछ दिन बाद ही ये सिलसिला थम गया. लॉकडाउन जो हो गया था, कोई रास्ता भी नहीं बचा था.

प्रशांत किशोर ने अपने ट्विटर हैंडल से आखिरी ट्वीट 20 जुलाई को किया था और उससे पहले एक ट्वीट में कोरोना महामारी की वजह से चुनाव टालने की सलाह दी थी. ऐसी सलाहियत तेजस्वी यादव और चिराग पासवान की तरफ से भी आयी थी.

'बात बिहार की' मुहिम सोशल मीडिया पर जारी है. इसके लिए एक फेसबुक पेज बना हुआ है और टीम पीके नाम से एक ट्विटर हैंडल भी. ट्विटर पर प्रशांत किशोर की तस्वीर वैसे ही लगी है जैसे बाकी नेताओं की होती है. दोनों प्लेटफॉर्म पर बात बिहार की जारी है, लेकिन मैदान से तो तंबू उखड़ ही चुका लगता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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