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नेताओं के अपशब्दों का गिरता स्तर

    • अरविंद मिश्रा
    • Updated: 11 अक्टूबर, 2016 08:34 PM
  • 11 अक्टूबर, 2016 08:34 PM
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इन दिनों लगभग प्रत्येक प्रसारण रिकार्ड होता है या ट्वीट या यू-ट्यूब पर डाला जाता है, फिर भी हमारे राजनीतिज्ञ सही बोलना या अपनी जुबान बंद रखना नहीं सीख पा रहे.

राहुल गांधी के खून का दलाली शब्द रुकने का नाम नहीं ले रहा है. हर पार्टी के लोग इस जुमले में कूद पड़े चाहे वो अखिलेश यादव हों, अरविन्द केजरीवाल हों या फिर लालू प्रसाद. राहुल गांधी द्वारा हाल ही में ‘खून की दलाली’ वाला भाषण मात्र अतिशयोक्तिपूर्ण ही नहीं है बल्कि इसने पाकिस्तान और कश्मीर के मसले पर संवाद को ही पूर्णत: बेपटरी कर दिया है.

 ‘खून की दलाली’ वाले भाषण को लेकर हो रही हैं राहुल गांधी की आलोचनाएं

लेकिन यदि खून की दलाली वाला विवाद नहीं खड़ा होता तो भारतीय नागरिकों को कभी पता ही नहीं चल पाता कि हमारे यहां उठाई गई एक बात पाकिस्तान में कितनी धमाकेदार खबर, कितनी ताकतवर सुर्खियां बन कर, प्रो-पाकिस्तान और एंटी-इंडिया बनाकर पेश की जाती है. हलांकि ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने पहली बार ऐसे जुमले का प्रयोग किया था. इससे पहले इन्होंने अरहर मोदी, सूट बूट कि सरकार, फेयर एंड लवली योजना, इत्यादि का इस्तेमाल कर चुके हैं.    

लेकिन सवाल यह उठता है कि कांग्रेस को 'मौत के सौदागर', 'जहर की खेती' और 'खून की दलाली' जैसे विषैले शीर्षक ही क्यों पसंद आते हैं? इसका जवाब तो शायद आने वाले विधान सभा चुनाव में पार्टियों को मिल सकता है. कुछ बीजेपी के मंत्रियों ने भी इसका भरपूर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की और संभवतः उसमें सफल भी हो सकते हैं. लेकिन क्या राजनीतिक स्वार्थ हमारे देश हित से ऊपर है?

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राहुल गांधी के खून का दलाली शब्द रुकने का नाम नहीं ले रहा है. हर पार्टी के लोग इस जुमले में कूद पड़े चाहे वो अखिलेश यादव हों, अरविन्द केजरीवाल हों या फिर लालू प्रसाद. राहुल गांधी द्वारा हाल ही में ‘खून की दलाली’ वाला भाषण मात्र अतिशयोक्तिपूर्ण ही नहीं है बल्कि इसने पाकिस्तान और कश्मीर के मसले पर संवाद को ही पूर्णत: बेपटरी कर दिया है.

 ‘खून की दलाली’ वाले भाषण को लेकर हो रही हैं राहुल गांधी की आलोचनाएं

लेकिन यदि खून की दलाली वाला विवाद नहीं खड़ा होता तो भारतीय नागरिकों को कभी पता ही नहीं चल पाता कि हमारे यहां उठाई गई एक बात पाकिस्तान में कितनी धमाकेदार खबर, कितनी ताकतवर सुर्खियां बन कर, प्रो-पाकिस्तान और एंटी-इंडिया बनाकर पेश की जाती है. हलांकि ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने पहली बार ऐसे जुमले का प्रयोग किया था. इससे पहले इन्होंने अरहर मोदी, सूट बूट कि सरकार, फेयर एंड लवली योजना, इत्यादि का इस्तेमाल कर चुके हैं.    

लेकिन सवाल यह उठता है कि कांग्रेस को 'मौत के सौदागर', 'जहर की खेती' और 'खून की दलाली' जैसे विषैले शीर्षक ही क्यों पसंद आते हैं? इसका जवाब तो शायद आने वाले विधान सभा चुनाव में पार्टियों को मिल सकता है. कुछ बीजेपी के मंत्रियों ने भी इसका भरपूर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की और संभवतः उसमें सफल भी हो सकते हैं. लेकिन क्या राजनीतिक स्वार्थ हमारे देश हित से ऊपर है?

ये भी पढ़ें- दलाली की बहस कांग्रेस को कलंकित करने वाली है राहुल जी!

सर्जिकल स्ट्राइक के लिए रक्षामंत्री पर्रिकर के स्वागत समारोह. उत्तरप्रदेश भाजपा द्वारा आयोजित थे ये. और यह निश्चित ही विचित्र था. पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले हमारे कश्मीर में सैन्य कार्रवाई से पचासों आतंकियों का सफाया बहुत ही प्रशंसनीय है. किन्तु पर्रिकर जैसे प्रभावी रक्षामंत्री को इसके लिए अपने स्वागत की स्वीकृति क्यों देनी चाहिए थी?  

अब कुछ ऐसा हो रहा है कि न सिर्फ राजनीतिक वक्तृत्व कला बल्कि जनता के साथ राजनीतिज्ञों के संवाद का स्तर, चाहे वह चुनावों से पहले हो या चुनावों के बाद, बुरी तरह गिर गया है.

भाषा में आई यह गिरावट केवल कांग्रेस तक ही सीमित नहीं है बल्कि ‘आप’ भी इसमें शामिल है. अरविंद केजरीवाल ने अनेक अभद्र कथनों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश-विदेश में कांग्रेसियों को विभिन्न आपत्तिजनक टिप्पणियों से सम्बोधित किया है. ये नेता जातिवाद, लैंगिकवाद और यहां तक कि धर्म तक पर टिप्पणियां करने पर विचार नहीं करते.

 अरविंद केजरीवाल ने अनेक अभद्र कथनों का प्रयोग किया है

यह गिरावट केवल भारत तक ही सीमित नहीं है. जहां तक अमरीका का संबंध है वहां तो ट्रम्प द्वारा अपने चुनाव अभियान के दौरान लगातार अश्लील शब्दावली के प्रयोग ने राजनीतिक भाषणों को निम्रतम स्तर पर पहुंचा दिया है. इससे पूर्व भी अमरीका के इतिहास में अक्सर अमरीकी राष्टपति अपशब्दों का इस्तेमाल करते थे परंतु यह सब बंद दरवाजों के पीछे होता था.

तो फिर विश्व भर में राजनीतिज्ञों द्वारा गलत शब्दावली के इस्तेमाल का कारण क्या है? क्या इसलिए है कि लोग अधीर और असंतुष्ट हो गए हैं तथा राजनीतिज्ञों द्वारा अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल उन्हें उनकी हताशाओं को भुनाने में सहायता करता है? लेकिन यह भी एक विडम्बना है कि कभी भी विश्व ने इससे पूर्व इतनी तरक्की नहीं देखी थी.

ये भी पढ़ें- सर्जिकल स्ट्राइक पर ये राजनीतिक पतंगबाजी है क्या ?

आज के राजनीतिज्ञों के पास अधिक अनुभव है, उन्हें विभिन्न टी.वी. चैनलों, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया से अधिक सहायता भी प्राप्त हो रही है जिससे उनकी अभिव्यक्ति में निखार आना चाहिए. इन दिनों लगभग प्रत्येक प्रसारण रिकार्ड होता है या ट्वीट अथवा यू-ट्यूब पर डाला जाता है, फिर भी हमारे राजनीतिज्ञ सही बोलना या अपनी जुबान बंद रखना नहीं सीख पा रहे.  

राजनीति में नेताओं का चीखना-चिल्लाना बंद हो, असंभव है. किन्तु बंद करना ही होगा. किन्तु सिर्फ वहीं, जहां ये देश के लिए घातक हो.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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