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कश्मीर मुद्दे पर पीएम मोदी की नीतियों की कलई खुल रही है

    • अमित अरोड़ा
    • Updated: 14 फरवरी, 2018 06:55 PM
  • 14 फरवरी, 2018 06:55 PM
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आज पूरे देश के सामने कश्मीर मसले पर पीएम मोदी की चुप्पी एक गहरी चिंता का विषय बनती जा रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि 2014 लोक सभा चुनाव से पहले पीएम ने कई मंचों से पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की बात कही थी.

नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति चाहे बहुत सफल रही हो, परंतु पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार की भी कश्मीर नीति बुरी तरह विफल रही है. 2014 के लोक सभा चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी पाकिस्तान और वहां से चल रही आतंकवादी गतिविधियों पर बहुत आक्रामक रहते थे. ऐसा लगता था की मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही पाकिस्तान भीगी बिल्ली बन जाएगा, और भारत को रोज़-रोज़ के आतंकवादी हमलों और युद्धविराम उल्लंघनों से मुक्ति मिल जाएगी. बड़े दुख की बात है की ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, आतंकवादी हमले और युद्धविराम उल्लंघन दोनों बदस्तूर जारी है.

वर्तमान परिपेक्ष के मद्देनजर पीएम मोदी की कश्मीर नीति संदेह के घेरों में है

पता नहीं क्यों पाकिस्तान से इतने धोखे और घाव खाने के बाद भी भारत उससे बातचीत करने को तैयार हो जाता है? प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनेताओं में विश्व स्तर के शांति दूत बनने की होड़ लग जाती है. समस्या यह है की भारत सरकार में अबतक बैठा हर राजनीतिक दल-सत्ता में आने के बाद यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह पाकिस्तान से शांतिपूर्ण रिश्ते रखना चाहता है. ऐसा करके वह केवल भारतीय जनमानस को बेवकूफ़ बनाते है और कुछ नहीं. शांति, प्रेम, आपसी विश्वास यह सब सभ्य समाज में तो आवश्यक है परन्तु जब आप पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश का सामना कर रहे हो तब यह सारे शब्द व्यर्थ है.

भारत में इस बात को कोई भी सातरूढ़ राजनीतिक दल समझ ही नहीं पाया या वह जानबूझकर अंजान बनने का धोखा देते रहे है. 2013-14 में जहां भाजपा की कश्मीर नीति बहुत आक्रामक थी, परंतु 2018 आते-आते यह नीति पूरी तरह भ्रमित लगती है. 2014 में मोदी सरकार का पक्ष था की वार्ता और आतंक साथ-साथ नहीं हो सकता है, पर बीते 2-3 वर्षों में हमने देखा की सरकार अपनी इस बात पर तटस्थ नहीं रही. जाहे वह मोदी-नवाज़ की बातचीत हो,...

नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति चाहे बहुत सफल रही हो, परंतु पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार की भी कश्मीर नीति बुरी तरह विफल रही है. 2014 के लोक सभा चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी पाकिस्तान और वहां से चल रही आतंकवादी गतिविधियों पर बहुत आक्रामक रहते थे. ऐसा लगता था की मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही पाकिस्तान भीगी बिल्ली बन जाएगा, और भारत को रोज़-रोज़ के आतंकवादी हमलों और युद्धविराम उल्लंघनों से मुक्ति मिल जाएगी. बड़े दुख की बात है की ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, आतंकवादी हमले और युद्धविराम उल्लंघन दोनों बदस्तूर जारी है.

वर्तमान परिपेक्ष के मद्देनजर पीएम मोदी की कश्मीर नीति संदेह के घेरों में है

पता नहीं क्यों पाकिस्तान से इतने धोखे और घाव खाने के बाद भी भारत उससे बातचीत करने को तैयार हो जाता है? प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनेताओं में विश्व स्तर के शांति दूत बनने की होड़ लग जाती है. समस्या यह है की भारत सरकार में अबतक बैठा हर राजनीतिक दल-सत्ता में आने के बाद यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह पाकिस्तान से शांतिपूर्ण रिश्ते रखना चाहता है. ऐसा करके वह केवल भारतीय जनमानस को बेवकूफ़ बनाते है और कुछ नहीं. शांति, प्रेम, आपसी विश्वास यह सब सभ्य समाज में तो आवश्यक है परन्तु जब आप पाकिस्तान जैसे आतंकवादी देश का सामना कर रहे हो तब यह सारे शब्द व्यर्थ है.

भारत में इस बात को कोई भी सातरूढ़ राजनीतिक दल समझ ही नहीं पाया या वह जानबूझकर अंजान बनने का धोखा देते रहे है. 2013-14 में जहां भाजपा की कश्मीर नीति बहुत आक्रामक थी, परंतु 2018 आते-आते यह नीति पूरी तरह भ्रमित लगती है. 2014 में मोदी सरकार का पक्ष था की वार्ता और आतंक साथ-साथ नहीं हो सकता है, पर बीते 2-3 वर्षों में हमने देखा की सरकार अपनी इस बात पर तटस्थ नहीं रही. जाहे वह मोदी-नवाज़ की बातचीत हो, दोनो देशों के सुरक्षा सलाहकारों की वार्ता हो, विदेश मंत्रियों की मुलाक़ातें हो- पाकिस्तानी आतंकवाद के बावज़ूद भारत-पाकिस्तान के बीच कई बार बातचीत हुई.

पहले मोदी सरकार कहती थी की हुर्रियत से कोई बात नहीं होगी पर अब जब से दिनेश्वर शर्मा को केंद्र सरकार ने कश्मीर पर बातचीत के लिए वार्ताकार नियुक्त किया है तब से सरकार हुर्रियत से भी बातचीत के लिए तैयार है. समस्या राज्य स्तर पर भी जहां पीडीपी पथरबाजों के समर्थन में काम करती है ती दूसरी तरफ राज्य भाजपा पथरबाजों का विरोध केवल टीवी बहस में ही करती है.

हम ऐसे कई मौके देख चुके हैं जब पाकिस्तान अपनी बात से मुकरता नजर आया है

यदि भाजपा के विधायक पीडीपी की पथरबाजों के प्रति नर्म रुख़ से सहमत नहीं है तो वह राज्य सरकार को छोड़ क्यों नहीं देते है? सत्य यह है की सत्ता की लालसा सिद्धांतों पर भारी पढ़ रही है. जब कोई बड़ा आतंकी हमला होता है तो भारत विरोध करता है, वार्ता स्थगित हो जाती है पर बाद में फिर वार्ता का दौर शुरू हो जाता है. मोदी सरकार ने हालांकि काफ़ी बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मौत के घाट उतरा है पर सरकार को पता होना चाहिए की 1 शहीद के बदले 4 आतंकवादियों को ख़त्म करने की नीति से समाधान संभव नहीं है. पाकिस्तान के पास तो आतंकियों की मंडी है, भारत जितने आतंकियों को मारेगा उतने और आतंकी पाकिस्तान हमारे यहां भेज देगा.

जब तक हम पाकिस्तान में चल रहे आतंकी प्रशिक्षण शिवरों को तबाह नहीं कर देते, तब तक यह खेल चलता रहेगा. इस तबाही का अर्थ होगा की वह प्रशिक्षण शिविर दुबारा शुरू न हो सके, यदि शुरू हो तो भारत उसे तत्काल तबाह कर दे. 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक में भारतीय सेना ने पेदल जाकर पीओके में कारवाही की थी. ऐसे हमले नियमित रूप में हो पर पेदल हमलों के बजाए हवाई हमले हो.

भारत जब तक स्वयम् पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित नहीं कर देता, तब तक हम कैसे दूसरे देशों से उम्मीद कर सकते हैं कि वह हमारे लिए पाकिस्तान को आतंकवादी कहेंगे? यह लड़ाई भारत की है, जिसे हमे ही लड़ना होगा, यदि हम सोचे की अमेरिका आकर हमारे लिए लड़ाई करेगा तो हम बेवकूफ़ी कर रहे होंगे.

शांति और 'अमन की आशा' वाली नीति से कुछ नहीं मिलने वाला-यह चीज़ पिछले कई दशकों ने हमे दिखा दी है. वर्तमान सरकार से आशा ही की जा सकती है वह सपनो की दुनिया से बाहर निकलकर वास्तविकता को स्वीकार करे, अन्यथा जो बाते भाजपा 2013-14 में कांग्रेस सरकार के लिए कहती थी वही उन पर कही जाएंगी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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