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चिराग को पशुपति पारस से अधिक भाजपा ने चोटिल किया

    • रीवा सिंह
    • Updated: 18 जून, 2021 07:11 PM
  • 18 जून, 2021 07:11 PM
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रामविलास द्वारा तैयार की गयी पार्टी चिराग के हाथों से फिसल गयी. आज उनके चाचा पशुपति पारस लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये और वे कुछ नहीं कर पा रहे सिवाय यह कहने के कि यह चुनाव अवैधानिक है. चिराग को सबकुछ बना-बनाया बेशक़ मिला लेकिन वे राजशाही नेता नहीं हैं.

सभी राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक ही होना चाहिए लेकिन ये बातें किताबी हैं. हक़ीक़त यह है कि मुलायम सिंह यादव की सत्ता अखिलेश संभाल रहे हैं, मायावती ने भतीजे आकाश को एंट्री दी है, ममता बनर्जी ने भतीजे अभिषेक बनर्जी को आगे बढ़ाया है और रामविलास पासवान का साम्राज्य चिराग पासवान को मिला. दलगत राजतंत्र का आलम यह है कि कांग्रेस में जब-तब राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिये चुनाव होते रहते हैं. राहुल गांधी इस्तीफ़ा देते हैं तो सोनिया कार्यकारी अध्यक्ष बनती हैं, फिर राहुल मान जाते हैं तो पदभार संभालते हैं, समूची कांग्रेस पार्टी में कोई दूजा योग्य प्रत्याशी नहीं मिलता. इस नीति को याद करते हुए चिराग के लिये दुख हो रहा है. रामविलास द्वारा तैयार की गयी पार्टी चिराग के हाथों से फिसल गयी. आज उनके चाचा पशुपति पारस लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये और वे कुछ नहीं कर पा रहे सिवाय यह कहने के कि यह चुनाव अवैधानिक है. चिराग को सबकुछ बना-बनाया बेशक़ मिला लेकिन वे राजशाही नेता नहीं हैं. चुनाव से पहले ख़ूब यात्राएं कीं, अध्ययन किया. रामविलास पासवान जैसे मौसम-विभाग विशेषज्ञ नेता भी नहीं हैं. सरकार चाहें किसी की हो, सीनियर पासवान का एक मंत्रालय फ़िक्स होता था. जानें कैसे जान लेते थे कि जनता का मूड क्या है और उसी दल संग गठबंधन कर लेते. इसे अवसरवादी भी कह सकते हैं, राजनीतिक सूझ-बूझ भी और यह कुशलता भी कि दोनों धुरविरोधी दल उन्हें सहजता से स्वीकारते रहे.

चिराग पासवान के साथ भी विडंबना यही रही कि उन्हें अपनों ने लूटा

चिराग पासवान ऐसे नहीं हैं. न वाकचातुर्य है न भविष्यज्ञाता हैं वे और न ही कुटिल. वे खरे हैं, स्पष्ट हैं, बिना लाग-लपेट के. ऐसा व्यक्ति जब दांव-पेंच में फंसता है तो अभिमन्यु-सा लगता है. यहां  चहुं ओर षड्यंत्र है, वे समझ रहे होंगे लेकिन फिर भी...

सभी राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक ही होना चाहिए लेकिन ये बातें किताबी हैं. हक़ीक़त यह है कि मुलायम सिंह यादव की सत्ता अखिलेश संभाल रहे हैं, मायावती ने भतीजे आकाश को एंट्री दी है, ममता बनर्जी ने भतीजे अभिषेक बनर्जी को आगे बढ़ाया है और रामविलास पासवान का साम्राज्य चिराग पासवान को मिला. दलगत राजतंत्र का आलम यह है कि कांग्रेस में जब-तब राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिये चुनाव होते रहते हैं. राहुल गांधी इस्तीफ़ा देते हैं तो सोनिया कार्यकारी अध्यक्ष बनती हैं, फिर राहुल मान जाते हैं तो पदभार संभालते हैं, समूची कांग्रेस पार्टी में कोई दूजा योग्य प्रत्याशी नहीं मिलता. इस नीति को याद करते हुए चिराग के लिये दुख हो रहा है. रामविलास द्वारा तैयार की गयी पार्टी चिराग के हाथों से फिसल गयी. आज उनके चाचा पशुपति पारस लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये और वे कुछ नहीं कर पा रहे सिवाय यह कहने के कि यह चुनाव अवैधानिक है. चिराग को सबकुछ बना-बनाया बेशक़ मिला लेकिन वे राजशाही नेता नहीं हैं. चुनाव से पहले ख़ूब यात्राएं कीं, अध्ययन किया. रामविलास पासवान जैसे मौसम-विभाग विशेषज्ञ नेता भी नहीं हैं. सरकार चाहें किसी की हो, सीनियर पासवान का एक मंत्रालय फ़िक्स होता था. जानें कैसे जान लेते थे कि जनता का मूड क्या है और उसी दल संग गठबंधन कर लेते. इसे अवसरवादी भी कह सकते हैं, राजनीतिक सूझ-बूझ भी और यह कुशलता भी कि दोनों धुरविरोधी दल उन्हें सहजता से स्वीकारते रहे.

चिराग पासवान के साथ भी विडंबना यही रही कि उन्हें अपनों ने लूटा

चिराग पासवान ऐसे नहीं हैं. न वाकचातुर्य है न भविष्यज्ञाता हैं वे और न ही कुटिल. वे खरे हैं, स्पष्ट हैं, बिना लाग-लपेट के. ऐसा व्यक्ति जब दांव-पेंच में फंसता है तो अभिमन्यु-सा लगता है. यहां  चहुं ओर षड्यंत्र है, वे समझ रहे होंगे लेकिन फिर भी चुना उसे जो उनका न था. पशुपति पारस से अधिक तकलीफ़ चिराग को भाजपा ने पहुंचाया होगा. बिहार विधान सभा चुनाव में वे खुलकर भाजपा के पक्ष में और जदयू के विरोध में आये. यह उनका ही असर रहा कि जदयू के वोट कटे और नीतीश बाबू तीसरे पायदान पर खिसक गये.

कूटनीतिज्ञ सुशासन बाबू को यह कब बर्दाश्त होता. हो गयी व्यूह रचना, पशुपति पारस तो कबसे तैयार बैठे थे, ग़ुमनामी के असहनीय बोझ में. चिराग ने बिहार चुनाव में खुलकर कहा कि जहां लोजपा नहीं लड़ रही वहां भाजपा को वोट दें. उनके हर वक्तव्य में भाजपा के प्रति, मोदी के प्रति उनकी आत्मीयता झलकती थी. मोदी अथवा शाह ने पलटकर कभी उस तरह उनका समर्थन न किया फिर भी चिराग भाजपा के लिये प्रचार करते रहे.

चुनाव के बाद भाजपा ने उसी नीतीश को सत्ता सौंपी और चिराग को उनके यहाँ गुलदस्ता लेकर भेज दिया. उस गुलदस्ते से फूल चुने गये या काँटे, किसने देखा. देखा यह गया कि चिराग ने ख़ुद को हनुमान कहा और भाजपा के उस जननेता को राम. अब जब उनकी ही लोक जनशक्ति पार्टी से उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है तो एक पत्रकार ने पूछा - आपने ख़ुद को हनुमान और भाजपा के एक बड़े नेता को राम कहा था तो क्या राम अपने हनुमान को बचाने आयेंगे?

चिराग का विश्वास देखने लायक था जब उन्होंने मुस्कुराकर कहा - हनुमान को राम से मदद मांगनी पड़े तो हनुमान काहे के और राम काहे के... इतना विश्वास था उन्हें उस दल के कर्णधार पर. वो निश्चिंत थे कि उनके राम मार्ग निकालेंगे, आश्वस्त थे कि उनका कोई गार्डियन है राजनीति में. वह राम मूक रह गया, उसके कण्ठ से कोई स्वर न फूटा और लोजपा के अध्यक्ष बन गये पशुपति पारस. भाजपा से किसी नेता ने इस कृत्य का विरोध नहीं किया जो वाकई अवैधानिक है.

युवा जोश और लगन से ओत-प्रोत जो नेता एक दल का प्रमुख था, आज उसे राजद व कांग्रेस अपने साथ काम करने के लिये आमंत्रित कर रहे हैं. उस नेता के पास यह विकल्प है कि वो इनमें से किसी का भी सदस्य हो जाए अथवा गठबंधन कर ले लेकिन उस सत्ता का क्या जो यूँ ही फिसल गयी, जहाँ उसका सबकुछ था. भाजपा मौन है, यह जानते हुए कि चिराग नये खिलाड़ी हैं, यह जानते हुए कि चिराग ने हमेशा उसका समर्थन किया है, यह जानते हुए कि वे चिराग में पलने वाली उम्मीद की लौ है.

राजनीति कितना निष्ठुर बना देती है. सद्भावना सिर्फ़ शपथग्रहण तक रह जाती है. आपका कोई दिलफ़रेब महबूब रहा है जिस पर जां निसार कर आप पूरी दुनिया से लड़ने को तैयार रहे हों और उसने अपनी सहूलियत चुनी हो? मेरा नहीं रहा. रहता तो जिसके लिये इतना करती उसके स्टैण्ड न लेने पर पैर तोड़कर हाथ में पकड़ा देती कि पैरों का करोगे क्या, स्टैण्ड तो लेना नहीं है. लेकिन वो मुहब्बत है ये मरघट है. यहां आने से पहले व्यक्ति चेतनाशून्य, संवेदनहीन, सिद्धांतविहीन हो जाता होगा. चिराग अभी नवोदित हैं, अनुभूतियां सीखाएंगी और सीख लेंगे तो शायद इन जैसे कुटिल-जटिल लेकिन सफल हो जाएंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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