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भूखे भेड़िए पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को नोच खाएंगे, भारत कुछ करता क्यों नहीं?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 01 फरवरी, 2023 12:42 PM
  • 31 जनवरी, 2023 07:33 PM
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लगता है भारत ने बांग्लादेश की घटना से कोई सबक नहीं लिया है. पाकिस्तान में सरेआम मनुष्यता की हत्याएं की जा रही हैं, भारत की संप्रभुता पर चोट पहुंचाने की तैयारी है मगर वीर बहादुर भारत की सरकार का यूं चुप रहना हैरान करने वाला है.

पाकिस्तान में इस वक्त अराजकता चरम पर है. हालत कुछ यूं है कि लोग जब रात को अपने घरों में सोते हैं तो उन्हें यह यकीन नहीं रहता कि सुबह चीजें वैसे ही मिलेंगी जैसे रात को सोते वक्त थीं. और उनकी चिंताओं में आटा-दाल-चावल-चिकन या तेल भर नहीं है, जिसकी खबर लोगों तक रोज पहुंच रही है. असल में वहां ज्यादातर लोग अपने भविष्य को लेकर डरे हुए हैं. आम लोगों का यकीन किस कदर कमजोर हुआ है- इसे यूं समझें कि वहां सुबह उठते ही लोग सबसे पहले कुछ जरूरी चीजों को क्रॉस चेक कर ही घर से बाहर निकलते हैं. जैसे- पाकिस्तान में वही प्रधानमंत्री और सरकार है जो रात में थी. सेना ने सरकार को अपदस्थ तो नहीं कर दिया. बलूचिस्तान, पख्तून इलाकों के समेत पाकिस्तान के तमाम हिस्से अभी आधिकारिक रूप से अलग तो नहीं हुए. भारत ने सैन्य ऑपरेशन चलाकर पीओके ले तो नहीं लिया और रातभर में पूरे पाकिस्तान पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने कब्जा तो नहीं कर लिया. सुबह सड़कों पर तालिबान अपने प्रतिद्वंद्वियों को गोलियां तो नहीं मार रहा.

आटा-तेल के भाव से ज्यादा लोगों की चिंता का विषय यही है और इसकी वजहें हैं. गरीबी और तंगहाली में तो लोग गुजारा भी कर सकते हैं. लेकिन जान गंवाने को कोई तैयार नहीं है. दुर्भाग्य से पाकिस्तान में अब तक अल्पसंख्यकों के खिलाफ राजनीतिक वजहों से छिटपुट हत्याएं देखने को मिल रही थीं, लेकिन पेशावर ब्लास्ट ने वहां के लोगों की आशंका को चरम पर पहुंचा दिया है. मस्जिद में जिस तरह सुसाइड अटैक देखने को मिला और उसमें करीब 93 निर्दोष लोग मारे गए- हर कोई डरा हुआ होगा. लोग शायद बच्चों को स्कूल भेजना भी बंद कर दें. पेशावर में ही साल 2014 में स्कूल पर आतंकियों का वीभत्स हमला शायद लोगों को याद ही हो. पाकिस्तान सरकार ने भारत के लिए जिहादियों की जो नर्सरी तैयार की थी, वह अब भस्मासुर है. पाकिस्तान को ही लहूलुहान कर रहा है- बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय.

पाकिस्तान में इस वक्त अराजकता चरम पर है. हालत कुछ यूं है कि लोग जब रात को अपने घरों में सोते हैं तो उन्हें यह यकीन नहीं रहता कि सुबह चीजें वैसे ही मिलेंगी जैसे रात को सोते वक्त थीं. और उनकी चिंताओं में आटा-दाल-चावल-चिकन या तेल भर नहीं है, जिसकी खबर लोगों तक रोज पहुंच रही है. असल में वहां ज्यादातर लोग अपने भविष्य को लेकर डरे हुए हैं. आम लोगों का यकीन किस कदर कमजोर हुआ है- इसे यूं समझें कि वहां सुबह उठते ही लोग सबसे पहले कुछ जरूरी चीजों को क्रॉस चेक कर ही घर से बाहर निकलते हैं. जैसे- पाकिस्तान में वही प्रधानमंत्री और सरकार है जो रात में थी. सेना ने सरकार को अपदस्थ तो नहीं कर दिया. बलूचिस्तान, पख्तून इलाकों के समेत पाकिस्तान के तमाम हिस्से अभी आधिकारिक रूप से अलग तो नहीं हुए. भारत ने सैन्य ऑपरेशन चलाकर पीओके ले तो नहीं लिया और रातभर में पूरे पाकिस्तान पर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने कब्जा तो नहीं कर लिया. सुबह सड़कों पर तालिबान अपने प्रतिद्वंद्वियों को गोलियां तो नहीं मार रहा.

आटा-तेल के भाव से ज्यादा लोगों की चिंता का विषय यही है और इसकी वजहें हैं. गरीबी और तंगहाली में तो लोग गुजारा भी कर सकते हैं. लेकिन जान गंवाने को कोई तैयार नहीं है. दुर्भाग्य से पाकिस्तान में अब तक अल्पसंख्यकों के खिलाफ राजनीतिक वजहों से छिटपुट हत्याएं देखने को मिल रही थीं, लेकिन पेशावर ब्लास्ट ने वहां के लोगों की आशंका को चरम पर पहुंचा दिया है. मस्जिद में जिस तरह सुसाइड अटैक देखने को मिला और उसमें करीब 93 निर्दोष लोग मारे गए- हर कोई डरा हुआ होगा. लोग शायद बच्चों को स्कूल भेजना भी बंद कर दें. पेशावर में ही साल 2014 में स्कूल पर आतंकियों का वीभत्स हमला शायद लोगों को याद ही हो. पाकिस्तान सरकार ने भारत के लिए जिहादियों की जो नर्सरी तैयार की थी, वह अब भस्मासुर है. पाकिस्तान को ही लहूलुहान कर रहा है- बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय.

पेशावर धमाके के बाद का हाल.

यहां तक कहा जा रहा है कि यह पाकिस्तान और जिहादियों के बीच की मिलीजुली नूरा कुश्ती है. जो दशकों से जारी है. जब भी सरकार परेशान होती है- वहां हालात बद से बदतर होते हैं- कभी भारत को निशाना बनाया जाता है, भारत के अंदर सिंडिकेट के जरिए तमाम तरह की अराजकता पैदा की जाती है. अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है. हिंदू सिख और ईसाईयों की हत्याएं होती हैं. धर्मांतरण होता है. ईश निंदा को आधार बनाकर अहमदिया समुदाय के लोगों की हत्याएं होती हैं. शियाओं को सामूहिक रूप से निशाना बनाया जाता है. पहले वहां की सरकार का हाथ साफ़-साफ़ नजर आता था. मगर इधर के कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय आतंक को संरक्षण देने का आरोप लगने लगा. लादेन की हत्या के बाद तो पूरी दुनिया ने पाकिस्तान का चेहरा देख लिया. जिसके बाद वहां परदे के पीछे यह खेल, खेला जा रहा है.

रात में तेल की कीमतें बढीं और अगले दिन आतंकी हमला, क्या यह इत्तेफाक है?

ऐसा मानने वालों की कमी नहीं जिन्हें लगता है कि असल में पेशावर की मस्जिद में निर्दोष शियाओं को जानबूझकर निशाना बनाया गया है. और इसकी वजह सिर्फ यह है कि आर्थिक मोर्चों पर कुछ भी ना कर पाने की स्थिति में शहबाज शरीफ सरकार वहां की गरीब अवाम के खून का एक-एक बूंद निचोड़ लेना चाहती है. उसके पास कोई चारा भी नहीं. क्योंकि चीन जैसे उसके तमाम मित्र देश ही अब उसकी मदद को तैयार नहीं हैं. आशंका की वजहें तो नजर आ आ रही हैं.

अब वह है या नहीं यह दूसरी बात है. पेशावर हादसे से एक दिन पहले रात में शहबाज शरीफ की सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि की थी. 35 रुपये वृद्धि के साथ पेट्रोल 249.80 पैसे और डीजल का मूल्य 262.80 पैसे हो गया. मिट्टी का तेल भी 189.80 पैसे है. पड़ोसी देश में अभी भी ज्यादातर आबादी मिट्टी के तेल का इस्तेमाल रसोई में करती है. वहां कुकिंग गैस हर घर तक नहीं पहुंच पाया है. बताने की जरूरत नहीं महंगाई से जूझ रहे आम पाकिस्तानियों पर इसका क्या असर पड़ा होगा और यह भी बताने की जरूरत नहीं कि आम जनता इस पर किस तरह प्रतिक्रिया देगी.

शहबाज सरकार ने जो कीमतें बढ़ाई वह अगली सुबह 11 बजे से लागू होनी थीं और पड़ोसी देश में यह सरकार और वहां के रईस नेताओं की मुसीबत बड़ी बन सकती थी. पाकिस्तान की संप्रभुता के लिए भी बहुत बड़ी मुसीबत थी. लेकिन देखिए, क्या इत्तेफाक है कि बेतहाशा वृद्धि के बाद अगले ही दिन पाकिस्तान को अपने इतिहास में एक सबसे भीषण आतंकी हमला झेलना पड़ता है और धमाके की गूंज में करोड़ों लोगों की आवाज निकलने से पहले ही रुदालियों में दब गई. हालांकि ऊपरी तौर पर देखने से पता चलता है कि पाकिस्तान की सेना और टीटीपी आपस में लड़ रहे हैं. ऐसे में भला कीमत वृद्धि और आतंकी घटनाओं को कैसे जोड़ा सकता है?

बिखर चुके पाकिस्तान को बचाने के लिए अल्पसंख्यकों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे

लेकिन इमरान खान के जमाने से अब तक वहां के लगातार खराब हालात को देखते हैं तो समझ में आता है कि जैसे-जैसे पाकिस्तान की स्थिति बिगड़ती जा रही है टीटीपी के साथ उसकी अनबन भी बढ़ती दिख रही है. टीटीपी एक तरह से दूसरे मुद्दों को हवा दे रहा है. वर्ना तो फ्रांस में पैगम्बर साहब को लेकर हुए कार्टून विवाद में कम से कम पाकिस्तान की गली गली में आक्रामक प्रदर्शन नजर नहीं आते. कहां तो अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद पाकिस्तान की सरकार के साथ वहां की अवाम भी अभी बस कुछ महीनों पहले तक जश्न मनाते ही दिख रही थी.

खैर, यह इस्लामिक रिपब्लिक का अपना अंदरूनी मसला है. उसमें भारत या किसी तीसरे देश को गैरजरूरी हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं. लेकिन पाकिस्तान हमारा एक ऐसा पड़ोसी है जिसके तमाम हालात से हम चाहकर भी अनजान नहीं बन सकते. खासकर वहां पिछले दो महीनों में जो मौजूदा हालात बन चुके हैं- पेशावर ब्लास्ट के बाद उसे खारिज करना अब एक मूर्खतापूर्ण और भारत की संप्रभुता के साथ खिलवाड़ करने वाला कदम होगा. वहां की अराजकता और टीटीपी जैसे आतंकी और अलगाववादियों के संघर्ष में आम जनता खासकर अल्पसंख्यक समुदाय को चारे के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. यह साफ़ है. और वह भी राजनीतिक वजहों से ध्यान बंटाने के लिए ही या ध्यान आकर्षित करने के लिए ही निर्दोष लोगों की हत्याएं हो रही हैं.

वहां सिर्फ शिया या अहमदिया ही पाकिस्तानी सेना और टीटीपी के निशाने पर नहीं हैं बल्कि मुट्ठीभर बचे हिंदू और सिख भी हैं सेना और कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं. पेशावर ब्लास्ट के बहाने यूएन ने भी वहां के अल्पसंख्यकों की धार्मिक आजादी का सवाल उठाया है. वहां आधिकारिक रूप से हिंदुओं की संख्या 44 लाख बताई जाती है. इसमें लगभग दलित और आदिवासी ही हैं. ये ऐसे लोग हैं जो अशिक्षा और निर्धन होने की वजह से विभाजन के दौरान भारत नहीं आ पाए थे. बावजूद वहां धार्मिक स्वतंत्रता से जीना चाहते हैं, मगर 74 साल में उनकी आबादी जिस तेजी के साथ घटी हैं और उन्हें समाप्त करने के लिए जो तरीके अपनाए जा रहे हैं- समझिए कि जंगल में भूखे भेड़ियों के बीच रहने को विवश हैं. वजह उनकी अटल धार्मिक आस्था के सिवा कुछ भी नहीं.

विभाजन के वक्त दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों के लिए इन्हीं तमाम चिंताओं के मद्देनजर नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था, मगर पाकिस्तान की वजह से वह अब तक निष्प्रभावी हो चुका है. उलटे भारत को अबतक इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े. एक तरह से आज की तारीख में विभाजन के बड़ी कीमत चुकाने के बावजूद साफ़ साफ़ ठगा हुआ महसूस कर रहा है. याद ही होगा बांग्लादेश के 10 लाख से ज्यादा शरणार्थी किस तरह बोझ बनकर भारत में आए थे और उसके क्या नतीजे निकले. बेशक पाकिस्तान में शांति बनी और बांग्लादेश भी एक मुल्क के रूप में आजाद हुआ मगर भारत को तो नुकसान ही उठाने पड़े हर लिहाज से.

पाकिस्तान पर भारत की चुप्पी से पता चलता है कि हम बांग्लादेश के सबक को भूल चुके हैं

पाकिस्तान में जो हालात बने हैं वह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता पर चोट करते दिख रहे हैं. अभी तक पीओके को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच कोई समाधान नहीं हो पाया था. पाकिस्तान का वहां नाजायज कब्जा है. इस बीच टीटीपी भी पीओके पर अपना दावा ठोक रहा है. जबकि रूस समेत तमाम देशों ने पहले ही ना सिर्फ पीओके बल्कि चीन के कब्जे वाले अक्साई चीन और अरुणाचल प्रदेश को भी भारत का अधिकारिक हिस्सा दर्ज कर लिया है. रूस ने उस एससीओ में भारत का पूरा नक्शा रिकॉर्ड के रूप में दर्ज किया है जिसमें पाकिस्तान और चीन भी शामिल थे. यह एक बड़ी स्वीकृति है और इसके बड़े कूटनीतिक मायने हैं. जबकि पीओके के लोग भी लंबे वक्त से पाकिस्तान के चंगुल से निकलने का प्रयास कर रहे हैं. संघर्ष कर रहे हैं. वे पीओके में पाकिस्तान की जबरदस्ती और जनसांख्यिकीय बिगाड़ने से नाराज हैं. कश्मीर बहुत हद तक पीओके की जनसांख्यिकी बिगाड़ने में लगा है. अभी हाल ही में वहां के लोगों ने भारत में शामिल होने के लिए बहुत बड़ा प्रदर्शन किया. मगर उनकी आवाज को बंदूकों की बट से कुचल दिया गया.

पीओके को लेकर हमें चिंता करना चाहिए. टीटीपी और आतंकी संगठनों ने जिस तरह पीओके को लेकर दावा किया है- आम भारतवंशी, आम कश्मीरी वहां सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है. भारत पीओके को अपना हिस्सा मानता है और वह है ही. वहां के नागरिकों को अपना मानता है, इस लिहाज से भी भारत सरकार को पाकिस्तान के मौजूदा हालात में हस्तक्षेप करने की सख्त जरूरत है. भारत, वहां के तमाम हालात पर लगभग चुप नजर आ रहा है. बावजूद कि दुनियाभर में भारत की तारीफ़ हो रही है कि इस वक्त दुनिया की जो हालत है बावजूद भारत ने उसकी मजबूरियों का फायदा नहीं उठाया है. भारत ने पाकिस्तान जैसे अविश्वसनीय पड़ोसी पर हमला ना कर अब तक मिसाल पेश की है. लेकिन भारत वहां अल्पसंख्यकों खासकर अपने नागरिकों और अपनी भूमिका की सुरक्षा को लेकर कैसे चुप रह सकता है?

भारत कैसे चुप रह सकता है कि वहां बांग्लादेश की तरह लोगों को ध्यान बंटाने के लिए राजनीतिक 'चारा' के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. बांग्लादेश में जब अराजकता बढ़ी थी वहां भी अल्पसंख्यकों को ही चारा बनाया गया था. सामूहिक हत्याएं और सामूहिक बलात्कार के निशान आजतक मिटे नहीं हैं. क्या यह भारत भूल सकता है. भारत की भूमि पीओके को युद्ध का खतरनाक मैदान बनाने की साजिशें हैं. बांग्लादेश के सबक से अबतक भारत उबर नहीं पाया है. तब भी पाकिस्तान के विभाजन से पहले हालात इतने नाजुक नहीं थे, जितने अभी हैं. समझ में नहीं आता कि भारत का पक्ष और विपक्ष, भारत का मीडिया संयुक्त चिंताओं पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है? पेशावर ब्लास्ट ने अल्पसंख्यकों को हिलाकर रख दिया है. पाकिस्तान निकट भविष्य में सुधरता नहीं दिख रहा. आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि वहां पेशावर जैसे और हादसे देखने को मिलेंगे.

इससे पहले की मानवता को कीमत चुकानी पड़े, भारत को मनुष्यता की रक्षा के लिए कदम उठाने चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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