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क्या गृह युद्ध छिड़ गया है पाकिस्तान में?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 15 अप्रिल, 2021 06:40 PM
  • 15 अप्रिल, 2021 05:48 PM
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हिंदी में एक प्रचलित मुहावरा है- बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाय. यानी अगर पेड़ बबूल का लगाया गया है तो भला उस पर आम का फल कैसे मिलेगा. बबूल तो कांटे ही देगा. पाकिस्तान पर यह मुहावरा बिल्कुल सटीक है.

पाकिस्तान को लगातार बेहद बुरे हालात का सामना करना पड़ रहा है. पड़ोसी देश के लगभग कई बड़े शहर फिलहाल हिंसा की चपेट में हैं. लोगों की मौतें हुई हैं. लगभग डेढ़ साल के अंदर ये दूसरा मौक़ा है जब भीड़ के सामने इमरान खान असहाय दिखे हैं. इससे पहले इमरान तब भी निरीह नजर आ रहे थे जब समूचा विपक्ष पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट बनाकर उन्हें घेरने इस्लामाबाद की सड़कों पर उतर आया था. हर मोर्चे पर फेल होने के आरोप लगाए गए थे. सेना-पुलिस ताकत का इस्तेमाल कर भी कमजोर और मामूली नजर आ रही है. जैसे हालात हैं उसे सिविल वार तक बताया जाने लगा है. आखिर हो क्या रहा है और इसके पीछे की वजहें क्या हैं, आइए जानते हैं:

पाकिस्तान में फिलहाल हो क्या रहा है?

पाकिस्तान के कई शहरों में पिछले कुछ दिनों से हिंसा हो रही है. सड़कों पर सेना और कट्टरपंथी भीड़ आमने-सामने है. हिंसा में अब तक आधा दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए हैं. करीब 350 से ज्यादा गंभीर रूप से जख्मी हैं. सेना पर अमानवीय तरीके से लोगों के दमन का आरोप है. सोशल मीडिया पर कुछ वीडियोज को सबूत के तौर पर भी साझा किया जा रहा है. हालांकि वीडियोज के सोर्स अथेंटिक नहीं हैं. साफ़-साफ़ ये नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तानी सेना सड़कों पर लोगों का दमन कर रही है.

हिंसा की वजह क्या है?

दरअसल, साल 2020 के अक्टूबर में इस्लाम को लेकर फ्रांस में कई घटनाएं सामने आई थीं. नीस शहर में एक टीचर ने पैगम्बर मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून को दिखाया था जिसके बाद उसे बुरी तरह से क़त्ल कर दिया गया था. घटना की प्रतिक्रया के फलस्वरूप फ्रांस में कई चीजें देखने को मिली. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मेक्रों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर इस्लाम के कट्टरवादी स्वरूप की आलोचना की. क़ानून के जरिए इस्लामिक कट्टरवाद को रोकने और 100 से ज्यादा मस्जिदों को बंद करने का ऐलान किया गया. दुनियाभर के इस्लामिक देशों की तीखी प्रतिक्रया में इसे फ्रांस का इस्लामोफोबिया करार दिया. फ्रांस के बायकाट की मुहिम चलने लगी.

पाकिस्तान को लगातार बेहद बुरे हालात का सामना करना पड़ रहा है. पड़ोसी देश के लगभग कई बड़े शहर फिलहाल हिंसा की चपेट में हैं. लोगों की मौतें हुई हैं. लगभग डेढ़ साल के अंदर ये दूसरा मौक़ा है जब भीड़ के सामने इमरान खान असहाय दिखे हैं. इससे पहले इमरान तब भी निरीह नजर आ रहे थे जब समूचा विपक्ष पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट बनाकर उन्हें घेरने इस्लामाबाद की सड़कों पर उतर आया था. हर मोर्चे पर फेल होने के आरोप लगाए गए थे. सेना-पुलिस ताकत का इस्तेमाल कर भी कमजोर और मामूली नजर आ रही है. जैसे हालात हैं उसे सिविल वार तक बताया जाने लगा है. आखिर हो क्या रहा है और इसके पीछे की वजहें क्या हैं, आइए जानते हैं:

पाकिस्तान में फिलहाल हो क्या रहा है?

पाकिस्तान के कई शहरों में पिछले कुछ दिनों से हिंसा हो रही है. सड़कों पर सेना और कट्टरपंथी भीड़ आमने-सामने है. हिंसा में अब तक आधा दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए हैं. करीब 350 से ज्यादा गंभीर रूप से जख्मी हैं. सेना पर अमानवीय तरीके से लोगों के दमन का आरोप है. सोशल मीडिया पर कुछ वीडियोज को सबूत के तौर पर भी साझा किया जा रहा है. हालांकि वीडियोज के सोर्स अथेंटिक नहीं हैं. साफ़-साफ़ ये नहीं कहा जा सकता कि पाकिस्तानी सेना सड़कों पर लोगों का दमन कर रही है.

हिंसा की वजह क्या है?

दरअसल, साल 2020 के अक्टूबर में इस्लाम को लेकर फ्रांस में कई घटनाएं सामने आई थीं. नीस शहर में एक टीचर ने पैगम्बर मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून को दिखाया था जिसके बाद उसे बुरी तरह से क़त्ल कर दिया गया था. घटना की प्रतिक्रया के फलस्वरूप फ्रांस में कई चीजें देखने को मिली. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मेक्रों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर इस्लाम के कट्टरवादी स्वरूप की आलोचना की. क़ानून के जरिए इस्लामिक कट्टरवाद को रोकने और 100 से ज्यादा मस्जिदों को बंद करने का ऐलान किया गया. दुनियाभर के इस्लामिक देशों की तीखी प्रतिक्रया में इसे फ्रांस का इस्लामोफोबिया करार दिया. फ्रांस के बायकाट की मुहिम चलने लगी.

पाकिस्तान में हिंसा का दृश्य। फोटो- इंडिया टुडे/एपी

कट्टरता भुना कर बचना चाहते थे इमरान

पाकिस्तान सरकार ने खुलकर फ्रांस के कदम की आलोचना की. इमरान खान ने सीधे-सीधे मेक्रों पर इस्लाम की निंदा करने का आरोप लगाया और कई ट्वीट किए. पाकिस्तान में फ्रांस के खिलाफ बने माहौल के जरिए विपक्ष की कोशिशों को कमजोर करना चाहते थे. उन्होंने हर फोरम पर फ्रांस के मुद्दे को आक्रामकता के साथ उठाया. यहां तक कि फेसबुक को भी एक पत्र लिखा जिसमें "इस्लामोफोबिक कंटेंट" को सोशल प्लेटफॉर्म पर पूरी तरह बैन करने की मांग की गई थी. हालांकि इमरान की तरह दूसरे कट्टरपंथी नेताओं ने भी इसे मुद्दा बना दिया जो अब इमरान के गले की फांस बनता जा रहा है. इसमें सबसे आगे हैं- मौलाना साद हुसैन रिजवी और उनका संगठन तहरीक-ए-लब्बैक. लब्बैक ने 30 अक्टूबर 2020 को फ़्रांसिसी दूतावास के सामने और कुछ अन्य हिस्सों में जोरदार प्रदर्शन किया था. तब मैनुअल का पुतला भी जलाया गया था.

पहले रिजवी का सपोर्ट, अब लगाया बैन

रिजवी समर्थकों के साथ कई दिन तक धरने पर बैठे रहे. फ्रांस से कारोबारी और कूटनीतिक रिश्ते ख़त्म करने की मांग पर अड़े रहे. जनता के बीच फ्रांस पर अपने स्टैंड को लेकर इमरान सरकार ने तहरीक-ए-लब्बैक को तब भरोसा दिया था कि ऐसा ही किया जाएगा. इस साल संसद में प्रस्ताव रखने की बात थी. मौलाना रिजवी ने इसके लिए 20 अप्रैल तक की समय सीमा दी थी. पाकिस्तान सरकार राजी भी थी. मगर दूसरे देशों की कृपा पर टिका पाकिस्तान भला कैसे फ्रांस और उसके मित्र देशों से दुश्मनी मोल ले सकता है. वो भी तब जब उसे खाद्यान्न संकट का भी सामना करना पड़ रहा है. इसे दबाने के लिए समयसीमा से पहले ही इमरान सरकार ने तहरीक-ए-लब्बैक चीफ रिजवी को गिरफ्तार कर लिया. तहरीक-ए-लब्बैक को आतंक विरोधी क़ानून के तहत बैन भी कर दिया है.

मगर अब रिजवी की गिरफ्तारी और बैन से समर्थक भड़क गए. पाकिस्तान के कई शहरों में हिंसा का तांडव उसी का नतीजा है. सेना और पुलिस ने बलपूर्वक हिंसा कुचलने की कोशिश की मगर नाकाम साबित हुई. हिंसा प्रभावित शहरों में स्कूल, व्यापार और दूसरी गतिविधियों पर बुरा असर पड़ा है.

क्या पाकिस्तान सिविल वार के मुहाने खड़ा है?

काफी हद तक हां. हिंदी में एक प्रचलित मुहावरा है- बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाय. यानी अगर पेड़ बबूल का लगाया गया है तो भला उस पर आम का फल कैसे मिलेगा. बबूल तो कांटे ही देगा. पाकिस्तान पर यह मुहावरा बिल्कुल सटीक है. पाकिस्तान ने एक शांत, प्रगतिशील, विकासोन्मुखी, सहिष्णु और लोकतांत्रिक देश के दावे के साथ जन्म लिया. लेकिन अब उसके पास जन्म का आधार इस्लाम ही बचा नजर आता है. जबरन धर्मांतरण, अल्पसंख्यकों की सामजिक आर्थिक हैसियत, हर क्षेत्र में कट्टरवाद को संरक्षण, आतंकवाद को संरक्षण, अमीरों-गरीबों में जमीन आसमान का अंतर, सेना का राजनीति पर दखल और सांस्कृतिक भेदभाव किसी से छिपा नहीं है.

बलूचिस्तान और पाकिस्तान के हिस्से का कश्मीर अब बांग्लादेश की तरह ही एक उपनिवेश बन चुका है. बलूचिस्तान में आजादी की पुरजोर मांग है. तमाम बंदिशों के बावजूद विरोध की आवाजें बाहर आती रहती हैं. कब्जे वाले कश्मीर से भी आवाजें बाहर आ रही हैं. लोग भारत के साथ आना चाहते हैं. गैरवाजिब प्रतिस्पर्धा में पाकिस्तानी की सबसे बड़ी पहचान इस्लामिक कट्टरपंथ मुल्क के तौर पर सामने आती है.

पाकिस्तान में हर सरकार ये उम्मीद देकर सत्ता में आती है कि पुरानी चीजें बदल जाएंगी, लेकिन बदलता कुछ नहीं है. कंट्रोल हमेशा सेना और कुछ प्रभावशाली लोगों के हाथ में नजर आता है. प्रधानमंत्री खिलौने की तरह. विपक्ष सीधे लोगों का हुजूम लेकर इस्लामाबाद पहुंच जाता है. सरकार कुछ नहीं कर पाती. सरकार भीड़ से डर जाती है. ये वही भीड़ है जो किसी अपील पर उम्मीद के साथ खड़ी हो जा रही है. और उम्मीद हर बार टूटता ही दिख रहा है.

धार्मिक आधार पर फ्रांस के मामले में यही उम्मीद दी गई थी. भीड़ भी वही है. लेकिन हैसियत के हिसाब से पाकिस्तान की अपनी सीमाएं और परेशानियां हैं. पॉलिटिकल पावर सिस्टम, सांस्थानिक भ्रष्टाचार, क्षेत्रीय-सांस्कृतिक असमानता और दूसरे हालत से उपज रहे संकेत तो यही बताते हैं कि पाकिस्तान सिविल वार के मुहाने पर ही खड़ा है. आखिर कब तक बंदूक की जोर पर लोगों को दबाकर रखा जा सकता है.

मोदी के बाद का भारत पाकिस्तान के गले की फांस

पाकिस्तान की सियासत भारत विरोध पर टिकी रही. भारत को नीचा दिखाने की कोशिश और छद्म युद्द में पाकिस्तान ने अपनी रिसोर्स का इस्तेमाल आतंकियों को पैदा करने और पालने पोसने में किया. जम्मू-कश्मीर में भारत अमानवीयता का हौवा खड़ा कर अपनी अवाम को गुमराह करते रहे. विदेशी मुल्कों के कर्ज से सम्पन्नता का प्रदर्शन किया जाता रहा. लेकिन आजिज आकर अमेरिका-सऊदी अरब के हाथ खींच लेने और नरेंद्र मोदी की सरकार के बाद पाकिस्तान के ये तर्क लोगों के सामने नंगे होने लगे. कुछ आतंकी हमलों के बाद भारत ने जिस तरह पाकिस्तान पर सीधे स्ट्राइक की कार्रवाई की और फिर बाद में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 ख़त्म कर दिया. जम्मू कश्मीर में शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव हुए. पाकिस्तान के साझीदार चीन के सामने भी भारत हमेशा एक मजबूत ताकतवर देश के रूप में खड़ा होता रहा है. ऊपर की घटनाओं और कोरोना के बाद पिछले डेढ़ साल में बने हालात का सामना कर रहे पाकिस्तान की असलियत उसके अपने लोगों के बीच पूरी तरह से बेपर्दा हो गई है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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