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नूपुर शर्मा केस राहुल गांधी के लिए कांग्रेस की सेक्युलर छवि मजबूत करने का आखिरी मौका है!

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 09 जून, 2022 08:26 PM
  • 09 जून, 2022 08:20 PM
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बीजेपी के खिलाफ नूपुर शर्मा (Nupur Sharma) का मुद्दा विपक्ष को बड़ी किस्मत से मिला है. राजनीति में झाड़-फूंक जैसे सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग करने वाले राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के लिए कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा (Congress Secular Ideology) को मजबूती से पेश करने का ये आखिरी मौका है.

नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) का मामला भी राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और कांग्रेस नेताओं को अगर राफेल डील, महंगाई, नोटबंदी और GST जैसा ही लगता है तो राजनीतिक समझ की बलिहारी ही कही जाएगी - कांग्रेस नेतृत्व को ये समझने की कोशिश करनी चाहिये कि 2014 के बाद ये पहला मौका है जब बीजेपी किसी मुद्दे पर बुरी तरह घिरी हुई हो - सफाई में दिये गये बयानों से लेकर दबाव के चलते नुपुर शर्मा और नवीन जिंदल के खिलाफ बीजेपी के एक्शन तक कदम कदम पर ये सब सहज तौर पर महसूस किया जा सकता है.

'सूट बूट की सरकार' से लेकर 'चौकीदार चोर है' जैसे स्लोगन के सहारे बीजेपी को घेरने में पूरी ताकत झोंक देने वाले राहुल गांधी को नुपुर शर्मा का मुद्दा ऐसे वक्त मिला है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सीनियर कैबिनेट साथी अमित शाह के गुजरात में विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं - बेशक बीजेपी गुजरात चुनाव के लिए पहले से ही तैयारी में जुटी हुई है, लेकिन गुजरात तो मोदी-शाह के लिए उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है.

जैसे कहा जाता है कि 'कोई किस्मतवाला ही प्रधानमंत्री बनता है', वैसे देखें तो किसी सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ नुपुर शर्मा जैसा मुद्दा विपक्ष को बड़ी किस्मत से ही मिलता है. बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को काउंटर करने के लिए राहुल गांधी अपने संघर्ष को विचारधारा की लड़ाई बताते रहे हैं - और मुकाबले के लिए राजनीतिक में झाड़-फूंक जैसे सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग तक करते रहे हैं.

अगर वास्तव में राहुल गांधी को हिंदुत्व की राजनीति के पक्ष में देश में बने माहौल के खिलाफ कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति (Congress Secular Ideology) पर अंदर से भरोसा हो रहा है तो बीजेपी के खिलाफ अपना स्टैंड सही साबित करने का ये आखिरी मौका है - देखना है कि राहुल गांधी...

नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) का मामला भी राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और कांग्रेस नेताओं को अगर राफेल डील, महंगाई, नोटबंदी और GST जैसा ही लगता है तो राजनीतिक समझ की बलिहारी ही कही जाएगी - कांग्रेस नेतृत्व को ये समझने की कोशिश करनी चाहिये कि 2014 के बाद ये पहला मौका है जब बीजेपी किसी मुद्दे पर बुरी तरह घिरी हुई हो - सफाई में दिये गये बयानों से लेकर दबाव के चलते नुपुर शर्मा और नवीन जिंदल के खिलाफ बीजेपी के एक्शन तक कदम कदम पर ये सब सहज तौर पर महसूस किया जा सकता है.

'सूट बूट की सरकार' से लेकर 'चौकीदार चोर है' जैसे स्लोगन के सहारे बीजेपी को घेरने में पूरी ताकत झोंक देने वाले राहुल गांधी को नुपुर शर्मा का मुद्दा ऐसे वक्त मिला है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सीनियर कैबिनेट साथी अमित शाह के गुजरात में विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं - बेशक बीजेपी गुजरात चुनाव के लिए पहले से ही तैयारी में जुटी हुई है, लेकिन गुजरात तो मोदी-शाह के लिए उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है.

जैसे कहा जाता है कि 'कोई किस्मतवाला ही प्रधानमंत्री बनता है', वैसे देखें तो किसी सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ नुपुर शर्मा जैसा मुद्दा विपक्ष को बड़ी किस्मत से ही मिलता है. बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को काउंटर करने के लिए राहुल गांधी अपने संघर्ष को विचारधारा की लड़ाई बताते रहे हैं - और मुकाबले के लिए राजनीतिक में झाड़-फूंक जैसे सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोग तक करते रहे हैं.

अगर वास्तव में राहुल गांधी को हिंदुत्व की राजनीति के पक्ष में देश में बने माहौल के खिलाफ कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति (Congress Secular Ideology) पर अंदर से भरोसा हो रहा है तो बीजेपी के खिलाफ अपना स्टैंड सही साबित करने का ये आखिरी मौका है - देखना है कि राहुल गांधी और कांग्रेस नेतृत्व की टीम बीजेपी को घेर लेने में सफल हो पाती है या एक बार फिर चूक जाती है?

ऐसा मौका फिर नहीं मिलने वाला है

राहुल गांधी कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी के साथ कांग्रेस की विचारधारा की लड़ाई है. अपनी दलील को दमदार बनाने के लिए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कांग्रेस नेता बात बात पर टारगेट करते हैं - कभी 'चौकीदार चोर है' जैसे नारे लगाकर, तो कभी चुनावी रैली में 'युवा डंडे मारेंगे' या 'रेप इन इंडिया' जैसे बयान देकर.

नुपुर शर्मा केस को मुद्दा बनाकर राहुल गांधी बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस मजबूती से खड़ा कर सकते हैं

भारत-चीन विवाद के साये में गलवान घाटी में सैनिकों के संघर्ष की घटना के बाद भी राहुल गांधी ने मोदी सरकार और बीजेपी को घेरने की कोशिश की और पुलवामा अटैक को लेकर भी, लेकिन हर बार बीजेपी का पूरा अमला टूट पड़ा और जो नैरेटिव गढ़ी गयी - राहुल गांधी पूरी तरह चूक गये, वो भी जब ये सब चुनावों से ठीक पहले हुआ था.

नुपुर शर्मा केस 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद संघ, बीजेपी और मोदी-शाह के सामने पहला मौका है जब बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है - और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारतीय राजनयिकों को सरकार के साथ साथ बीजेपी का भी बचाव करना पड़ा है.

ऐसे में जबकि कतर के भारतीय राजदूत को नुपुर शर्मा के बयान पर सफाई देनी पड़ती हो कि ये भारत सरकार या बीजेपी की राय नहीं है, मालूम नहीं कांग्रेस नेतृत्व और राहुल गांधी की टीम इसे कितनी गंभीरता से समझ रहे हैं?

पश्चिम बंगाल की चुनावी हार के साये और किसान आंदोलन के दबाव में कृषि कानूनों की वापसी के बाद संघ और बीजेपी का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था, फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लखीमपुर खीरी हिंसा को लेकर उठते सवालों के बावजूद अजय मिश्रा टेनी को कैबिनेट से बाहर नहीं किया. हां, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जरूर अपने जूनियर को स्टेज पर आने के बाद पीछे कहीं छुपा देते देखे गये.

लेकिन नुपुर शर्मा के एक बयान के लिए बीजेपी सस्पेंड कर दे और नुपुर शर्मा को फ्रिंज एलिमेंट करार दिया जाये - ये सब बता रहा है कि बीजेपी किस हद तक घिरी हुई महसूस कर रही है. कट्टर हिंदुत्व की राजनीति के बूते केंद्र में सरकार बनाने के बाद सत्ता में वापसी करने वाली बीजेपी को 'श्मशान और कब्रिस्तान' पर बहस में उलझाने की जगह ये कहना पड़ता हो कि 'वो सभी धर्मों का सम्मान करती है - और किसी भी धर्म का अपमान बीजेपी को स्वीकार्य नहीं है.'

असल बात तो ये है कि नुपुर शर्मा का मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्लोगन 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' पर सबसे बड़ा हमला है, लेकिन क्या राहुल गांधी और कांग्रेस नेताओं को ये चीज इसी रूप में समझ में आ भी रही है?

राहुल गांधी को समझना चाहिये कि बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने के लिए कांग्रेस के पास ये मौका रेयरेस्ट ऑफ रेयर केस जैसा ही है - गुजरात चुनाव के ठीक पहले मिला ये मौका फिर से नहीं मिलने वाला है और फिर मिल सकता है की जगह ऐसे समझना चाहिये कि ये आखिरी मौका ही है.

ये रिएक्शन है या रस्मअदायगी?

निश्चित तौर पर राहुल गांधी ने नुपुर शर्मा को सस्पेंड और नवीन जिंदल को बीजेपी से बाहर कर दिये जाने के तत्काल बाद ट्वीट किया है, लेकिन ये राहुल गांधी का ये रिएक्शन रस्मअदायगी से ज्यादा नहीं लगता.

ट्विटर पर राहुल गांधी लिखते हैं, 'भीतर से बंटा हुआ भारत, बाहर से कमजोर हो जाता है. बीजेपी की शर्मनाक कट्टरता ने हमें न सिर्फ अलग-थलग कर दिया बल्कि दुनिया भर में देश की छवि को भी नुकसान पहुंचाया है.'

ये रिएक्शन देने का टाइम नहीं हैं. राहुल गांधी को तो आगे बढ़ कर सवाल पूछना चाहिये - 'फ्रिंज एलिमेंट को प्रवक्ता क्यों बनाया?'

हाल ही में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी प्रेस कांफ्रेंस कर सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बयान पर प्रतिक्रिया दे रही थीं. स्मृति ईरानी की बातें सुन कर ऐसा लग रहा था जैसे प्रवर्तन निदेशालय की प्रेस कांफ्रेंस चल रही हो. तब भी जबकि स्मृति ईरानी मंत्रालय का ईडी से कोई वास्ता नहीं है. ऐसे प्रेस कांफ्रेंस बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा या और लोग भी करते रहते हैं.

सत्ताधारी पार्टी का आधिकारिक प्रवक्ता कोई ऐरा गैरा नहीं होता है. बतौर प्रवक्ता जब वो मीडिया के जरिये अपनी बातें कह रहा होता है तो उसकी बातें निजी भी नहीं होतीं - नुपुर शर्मा को कतर के राजदूत की तरफ से फ्रिंज एलिमेंट बताया जाना अपनेआप में काफी हास्यास्पद है.

बीजेपी ने सस्पेंड किया, चलेगा. अगर बीजेपी को लगता है कि प्रवक्ता के एक बयान से पार्टी और उसके सत्ता में होने के कारण सरकार की छवि प्रभावित हो रही है, तो ऐसा एक्शन ठीक है. चूंकि नवीन जिंदल ने नुपुर शर्मा के बयान को शेयर किया था, इसलिए वो भी बराबर के दोषी हैं, बीजेपी ने उनके साथ जो किया वो भी ठीक है, लेकिन इससे नुपुर शर्मा भला फ्रिंज एलिमेंट कैसे हो जाती हैं. ये तो पल्ला झाड़ने वाली बात हुई - और पल्ला झाड़ने की कोशिश में जो कुछ कहा गया वो तो फजीहत कराने वाला ही है.

नुपुर शर्मा के मामले में तो राहुल गांधी से बेहतर ट्वीट कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने किया है - वो अक्सर अंग्रेजी में ट्वीट करते हैं, लेकिन ये पूरा हिंदी में लिखा है.

पैगंबर मोहम्मद पर नुपुर शर्मा की विवादित टिप्पणी पर दर्जन भर इस्लामी मुल्कों की कड़ी प्रतिक्रिया के बीच आतंकी संगठन अल कायदा ने धमकी देकर दिल्ली, मुंबई, गुजरात और उत्तर प्रदेश में आत्मघाती हमलों की बात कही है - और मुंबई पुलिस ने नुपुर शर्मा को 22 जून को पूछताछ करने के लिए नोटिस दिया है.

नुपुर शर्मा को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी ने उम्मीदवार बनाया था. बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी की कार्यकर्ता रहीं नुपुर शर्मा 2008 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष बनी थीं. पहले दिल्ली बीजेपी की प्रवक्ता बनाने के बाद 2020 में नुपुर शर्मा को बीजेपी का राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया गया था. नुपुर शर्मा ने अपने बयान के लिए माफी मांगी है और ट्विटर पर अपने प्रोफाइल में अब सिर्फ एक शब्द लिखा है - भारतीय.

सिर्फ ट्विटर के भरोसे कब तक रहेंगे?

बीजेपी ने तो मौका दे दिया है: लंदन में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में राहुल गांधी ने बीजेपी पर जगह जगह केरोसिन छिड़कने का बेहद संगीन इल्जाम लगाया था, जिस पर बीजेपी ने कांग्रेस नेता को देश की छवि खराब करने के नाम पर घेर लिया था. अब बीजेपी उसी मुद्दे पर खुद घिर चुकी है - सवाल है कि राहुल गांधी और उनकी टीम फायदा उठा पाएगी क्या?

रिएक्शन बहुत हल्का है: राहुल गांधी ने रिएक्ट जरूर किया है, लेकिन मौके को भुना पाने के लिए वो काफी नहीं है. रिएक्शन महज कोई ट्वीट कर देना या थोड़ी देर के लिए टॉपिक विशेष का ट्रेंड करना नहीं होता.

आम लोगों के बीच बहस खड़ा करने से ही मुद्दा बड़ा बनता है. आखिर गली मोहल्ले और चाय-पान की दुकानों पर बहस हो रही है क्या? राह चलते ऑटोवाले, टैक्सीवाले और रिक्शावाले अपनी सवारियों से चर्चा करते हैं क्या? लोगों की राय जानने के बाद जो खुद समझा है, समझाने की कोशिश करता है क्या?

ठीक वैसे ही, राहुल गांधी चाहें तो सॉफ्ट हिंदुत्व की जगह सेक्युलर छवि के साथ लोगों के बीच अपनी विचारधारा समझा सकते हैं.

संघ और बीजेपी बचाव की मुद्रा में: कांग्रेस के पास अपनी सेक्युलर छवि मजबूती के साथ पेश करने का आखिरी मौका है - एनडीए की दूसरी बार सरकार बनने के बाद पहली बार बीजेपी खुद को घिरा हुआ महसूस कर रही है.

जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के मुद्दे पर कांग्रेस का विरोध बैकफायर कर गया और यूनिफॉर्म सिविल कोड, जनसंख्या कानून जैसे मुद्दों को बहाने से पेश करने की कोशिश हो रही है, लेकिन तभी संघ प्रमुख मोहन भागवत कहने लगते हैं - 'हर जगह शिवलिंग क्यों चाहिये?'

क्या कांग्रेस समझ पा रही है - संघ की तरफ से ऐसा बयान क्यों दिया जा रहा है? क्या कांग्रेस के समझ में आ रहा है - बीजेपी के लिए अपने ही स्लोगन 'सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास' को समझाना कितना मुश्किल हो रहा है?

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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