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Delhi riots: अजित डोभाल को सड़क पर उतारने में राजनीति भी, रणनीति भी

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 28 फरवरी, 2020 06:24 PM
  • 28 फरवरी, 2020 06:24 PM
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दिल्ली (Delhi Riots) में शांति धीरे धीरे कायम हो रही है और राजनीति तेज - सवाल है कि अमित शाह (Amit Shah) ने NSA अजीत डोभाल और स्पेशल कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव (Ajit Doval and SN Srivastava) को फील्ड में क्यों भेजा - खुद क्यों नहीं गये? ये सवाल ही राजनीतिक है और फैसले के पीछे राजनीति और रणनीति दोनों है.

दिल्ली में हिंसा और उपद्रव (Delhi Riots) के लिए दिल्ली पुलिस कठघरे में खड़ी है और गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) विपक्ष के निशाने पर हैं. दिल्ली पुलिस को सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली है तो गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा मांगने के बाद सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने कांग्रेस नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मिल कर उन्हें पद से हटाने की मांग की है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि अमित शाह ने खुद मैदान में उतरने की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और स्पेशल कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव (Ajit Doval and SN Srivastava) को फील्ड में क्यों उतार दिया?

एक राजनीतिक फैसला

दिल्ली में हिंसा और उपद्रव के दौरान कानून-व्यवस्था के हिसाब से स्थिति बेहद नाजुक हो चली थी - न हिंसक घटनाएं रुक पा रही थीं और न ही मौतों का आंकड़ा बढ़ने का सिलसिला. हालात को काबू करना प्रशासनिक के साथ साथ राजनैतिक नेतृत्व के लिए भी बड़ा चैलेंज रहा.

प्रशासनिक तौर पर दिल्ली की जिम्मेदारी उप राज्यपाल अनिल बैजल की है और कानून व्यवस्था लागू करने की पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक पर जो एक्सटेंशन पर चल रहे हैं. राजनीतिक रूप से दिल्ली पुलिस की रिपोर्टिंग गृह मंत्रालय को होने के कारण सारा दारोमदार अमित शाह पर पहुंच जा रहा.

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास बचाव का मजबूत बहाना था, इसलिए थोड़ी सी अपील और राजघाट पर फूल चढ़ाने जैसे रस्म निभा कर बैठ गये, बोले भी कि केंद्र सरकार स्थिति को संभाल लेगी. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी कुछ कुछ ट्वीट करके रस्मअदायगी निभा ली. दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी और निशाने पर भड़काऊ बयान को लेकर निशाने पर आये कपिल मिश्रा ने भी अहिंसा के पक्ष में एक बयान देकर अपने बचाव का इंतजाम कर लिया था.

ऐसे में सारा दारोमदार अमित शाह पर ही आ चुका था और दिल्ली चुनाव में शिकस्त के बाद हालात को हैंडल करना आसान भी नहीं था. जिन नेताओं को दिल्ली के लोगों ने करीब तीन हफ्ते पहले ही नकार दिया था उनको भला कैसे भरोसा होता कि मौके पर जाने पर लोग...

दिल्ली में हिंसा और उपद्रव (Delhi Riots) के लिए दिल्ली पुलिस कठघरे में खड़ी है और गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) विपक्ष के निशाने पर हैं. दिल्ली पुलिस को सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिली है तो गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा मांगने के बाद सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने कांग्रेस नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मिल कर उन्हें पद से हटाने की मांग की है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि अमित शाह ने खुद मैदान में उतरने की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और स्पेशल कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव (Ajit Doval and SN Srivastava) को फील्ड में क्यों उतार दिया?

एक राजनीतिक फैसला

दिल्ली में हिंसा और उपद्रव के दौरान कानून-व्यवस्था के हिसाब से स्थिति बेहद नाजुक हो चली थी - न हिंसक घटनाएं रुक पा रही थीं और न ही मौतों का आंकड़ा बढ़ने का सिलसिला. हालात को काबू करना प्रशासनिक के साथ साथ राजनैतिक नेतृत्व के लिए भी बड़ा चैलेंज रहा.

प्रशासनिक तौर पर दिल्ली की जिम्मेदारी उप राज्यपाल अनिल बैजल की है और कानून व्यवस्था लागू करने की पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक पर जो एक्सटेंशन पर चल रहे हैं. राजनीतिक रूप से दिल्ली पुलिस की रिपोर्टिंग गृह मंत्रालय को होने के कारण सारा दारोमदार अमित शाह पर पहुंच जा रहा.

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास बचाव का मजबूत बहाना था, इसलिए थोड़ी सी अपील और राजघाट पर फूल चढ़ाने जैसे रस्म निभा कर बैठ गये, बोले भी कि केंद्र सरकार स्थिति को संभाल लेगी. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी कुछ कुछ ट्वीट करके रस्मअदायगी निभा ली. दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी और निशाने पर भड़काऊ बयान को लेकर निशाने पर आये कपिल मिश्रा ने भी अहिंसा के पक्ष में एक बयान देकर अपने बचाव का इंतजाम कर लिया था.

ऐसे में सारा दारोमदार अमित शाह पर ही आ चुका था और दिल्ली चुनाव में शिकस्त के बाद हालात को हैंडल करना आसान भी नहीं था. जिन नेताओं को दिल्ली के लोगों ने करीब तीन हफ्ते पहले ही नकार दिया था उनको भला कैसे भरोसा होता कि मौके पर जाने पर लोग उनकी बात सुनेंगे ही, निश्चित तौर पर दिल्ली के मुश्किल वक्त में बीजेपी के संकटमोचक नेताओं के मन में ये बात जरूर आयी होगी.

अरविंद केजरीवाल और उनके साथी नेताओं के लिए तो ये आसान था, लेकिन बीजेपी के लिए काफी मुश्लिक टास्क था. अरविंद केजरीवाल दोबारा चुनाव जीत कर आये थे और आम आदमी पार्टी के नेता लोगों के कहीं ज्यादा करीब थे, लेकिन ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई.

बेकाबू हो चुके हालात में केंद्र सरकार की तरफ से NSA अजीत डोभाल को फील्ड में उतारा गया - वो भी आधी रात को. ये हर किसी के लिए मैसेज था. अजीत डोभाल के तत्काल बाद स्पेशल कमिश्नर बनाये गये एसएन श्रीवास्तव भी सड़क पर पहुंच गये और गश्त की कमान संभाल लिये.

अगर कांग्रेस नेतृत्व के मन में ऐसा कोई सवाल है तो समझना चाहिये कि 84 के दंगों के वक्त क्या तत्कालीन गृह मंत्री पीवी नरसिम्हा राव सड़क पर उतरे थे? तब तो न किसी ने राव का इस्तीफा मांगा और न ही वो खुद ऐसा कोई कदम उठाये. 84 के सिख दंगों का जिक्र भी तभी शुरू हुआ जब सोनिया गांधी ने अमित शाह का इस्तीफा मांगा.

अजीत डोभाल और एसएन श्रीवास्तव को दिल्ली की सड़कों पर उतारना वक्त की राजनीतिक डिमांड थी

अजीत डोभाल जब लोगों के बीच पहुंचे और बोले कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के कहने पर उनके बीज मौजूद हैं. बतौर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन दिल्ली की सड़कों पर वो शांति के दूत बन कर उतरे थे - और लोगों को भरोसा दिला रहे थे कि वे बेफिक्र रहें और अमन बनाये रखें. कोई उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा.

अजीत डोभाल के नॉन-पॉलिटकल होने का फायदा भी केंद्र की बीजेपी सरकार को मिला - न तो कांग्रेस और न ही आम आदमी पार्टी किसी ने भी अजीत डोभाल को लेकर ऐसा कोई सवाल उठाया जैसे सोनिया गांधी अमित शाह को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं. वैसे भी अजीत डोभाल कांधार की घटना के वक्त जहां वाजपेयी सरकार के भरोसेमंद रहे, वहीं मनमोहन सिंह सरकार ने IB का निदेशक बनाया था.

ये भी साफ है अगर ये टास्क दिल्ली बीजेपी के सांसदों या चुन कर आये विधायकों के लिए भी मुमकिन न था. दिल्ली के लोग न तो मनोज तिवारी की सुनते और प्रवेश वर्मा का तो ऐसे माहौल में शायद ही कोई असर हो पाता.

अमित शाह के पास अजीत डोभाल और एसएन श्रीवास्तव डबल ट्रंप कार्ड की तरह रहे और सही समय पर दोनों को फील्ड में उतार दिया गया - और उसका असर भी दिखा क्योंकि जल्दी ही स्थिति सुधरने भी लगी.

...और कुछ रणनीतिक प्रयोग

NSA अजीत डोभाल शुरू से ही फील्ड के आदमी रहे हैं. चाहे वो पंजाब में आतंकवाद का दौर रहा हो या फिर कांधार जैसी कठिन परिस्थिति, अजीत डोभाल मोर्चे पर पहुंच कर स्थिति संभाल ही लेते हैं. धारा 370 हटाये जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के तनाव भरे माहौल में भी केंद्र सरकार ने अजीत डोभाल को ही भेजा था और लोगों के साथ बातचीत करते उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब शेयर हुई थीं.

अजीत डोभाल और एसएन श्रीवास्तव के सेलेक्शन के पीछे दोनों के मिलते जुलते पुराने अनुभव लगते हैं - अजीत डोभाल को जहां सुरक्षा, पुलिसिंग और खुफिया काम का लंबा अनुभव रहा है, वहीं एसएन श्रीवास्तव के पास बतौर CRPF एडीजी कश्मीर में ऑपरेशन ऑल आउट के दौरान सेना के साथ मिल कर काम करने का अनुभव रहा है.

1985 बैच के IPS अफसर एसएन श्रीवास्तव को दिल्ली पुलिस का स्पेशल कमिश्नर बनाये जाने के पीछे भी अमित शाह की खास रणनीति रही - और जैसी की संभावना जतायी गयी थी, अब खबर आ रही है कि वो दिल्ली पुलिस के अगले कमिश्नर बनाये जा रहे हैं - और 1 मार्च से कार्यभार संभालेंगे. वो अमूल्य पटनायक की जगह लेंगे. अमूल्य पटनायक का कार्यकाल तो 31 जनवरी को ही खत्म हो गया था, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनावों के चलते एक महीने का एक्सटेंशन दे दिया गया था. जाते जाते अमूल्य पटनायक को सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी भी सुननी पड़ी कि दिल्ली पुलिस में पेशेवराने कौशल की कमी है - और ये सब दिल्ली हिंसा पर वक्त रहते काबू न पाने के लिए सुनना पड़ा.

स्पेशल कमिश्नर श्रीवास्तव को ऐसे मौके पर नाजुक हालात में फील्ड में उतार दिया गया जब दिल्ली में दंगे हो रहे थे. दिल्ली में कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने से पहले वो दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल में स्पेशल कमिश्नर भी रह चुके हैं.

स्पेशल कमिश्नर के रूप में श्रीवास्तव ने ओपनिंग शॉट तो काफी अच्छे खेले लेकिन आगे की पारी हद से ज्यादा चुनौतीपूर्ण होने वाली है. दिल्ली में कानून-व्यवस्था कायम करना तो उनकी पहली जिम्मेदारी होगी लेकिन दंगों की जांच और कोर्ट से दंगाइयों को सजा दिलवाना अलग चैलेंज होगा. एक पुलिस अफसर के हवाले से आयी इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में लगभग 350 खाली कारतूस मिले हैं. मतलब, इतनी गोलियां चली हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि तीन दिन तक चली हिंसा के दौरान 82 लोगों को गोली लगी है और मरने वालों में भी ज्यादातर वे ही हैं. दिल्ली के पुलिसकर्मी रतनलाल भी उनमें से एक हैं.

सवाल है कि दंगाइयों को हथियार और इतनी भारी मात्रा में कारतूस कहां से मिले? पुलिस फिलहाल मान कर चल रही है कि ये सब स्थानीय बदमाशों ने ही उपलब्ध कराये होंगे. अगर ऐसा है तो दिल्ली पुलिस के नाक तले ये सब कैसे होता रहा कि उसे भनक तक न लगी?

दैनिक भास्कर अखबार ने बीते 18 साल में देश भर में हुए दंगों पर एक रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट के अनुसार, 2002 के गुजरात दंगों में सबसे ज्यादा करीब 2000 लोगों की जान गयी थी. हालांकि, देश भर में सबसे ज्यादा 943 दंगे 2008 में हुए थे जिनमें 167 लोग मारे गये. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में 62 से ज्यादा लोग मारे गये जबकि 2017 में हरियाणा-पंजाब में हुए दंगों में 41 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी. दिल्ली दंगे के शिकार लोगों की तादाद इससे कुछ ही कम है.

दिल्ली दंगों की जांच के लिए दो SIT यानी विशेष जांच टीम बनायी गयी है. एक टीम को राजेश देव हैंडल कर रहे हैं तो दूसरे को जॉय टिर्की. दिल्ली पुलिस के ये दोनों ही अफसर हाल फिलहाल सुर्खियों में रहे हैं. राजेश देव को इलेक्शन कमीशन ने चुनाव ड्यूटी से हटा दिया था जबकि जॉय टिर्की की JN हिंसा की जांच को लेकर खासी किरकिरी हुई थी - और अब नये पुलिस कमिश्नर का कामकाज संभालने जा रहे एसएन श्रीवास्तव के लिए दंगा पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की जिम्मेदारी है, यही सबसे बड़ी चुनौती भी है. अच्छी बात यही है कि नये कमिश्नर के पास साल भर से ज्यादा वक्त मिल रहा है - 30 जून, 2021 तक.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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