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कश्मीर से ही पूछो, उसके दर्द की दवा क्या है

    • स्नेहांशु शेखर
    • Updated: 23 अगस्त, 2016 10:02 PM
  • 23 अगस्त, 2016 10:02 PM
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क्या अब तक जारी कोशिशों से जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर के दर्द की दवा निकल कर बाहर आएगी? अब इस पर सवाल उठ रहे हैं. क्यों न अब कश्मीर खुद बताए कि क्या किया जाए?

कश्मीर पर अजीब उहापोह की स्थिति बनी हुई है. अब जबकि कश्मीर पर तीन प्रमुख सूचनाएं हैं और अगर उन तीनों सूचनाओं की समीक्षा करें तो कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझना थोड़ा आसान हो जाएगा. क्योंकि तीनों का मिजाज अलग है और अपने आप में एक अलग कहानी कहते हैं.

पहली सूचना है कि राजनाथ बुधवार से फिर कश्मीर जा रहे हैं, दूसरी खबर है कि थोड़े विराम के बाद सीमा सुरक्षा बल की 56 टुकड़ियां कश्मीर भेजी जा चुकी हैं और तीसरी खबर यह है कि स्पेशल ऑपरेशन ग्रूप के दो जवानों ने सार्वजनिक तौर पर अपने पद और काम से इस्तीफा देने की घोषणा की है. वजह यह बताई गई कि स्थानीय गांव वालों का भारी दबाव है. इन तीनों सूचनाओं के मर्म को थोड़ा समझने की जरूरत है और यह इसलिए भी जरूरी है कि घाटी में माहौल खराब हुए 46 दिन बीत चुके हैं और दो अलग चरणों की हिंसा में मरने वालों की संख्या करीब 65 तक पहुंच चुकी है. सेना और प्रदर्शनकारियों के घायलों की अनुमानित संख्या तो आठ हजार तक पहुंच चुकी है.

कश्मीर की समस्या पर राजनीतिक शह-मात का खेल जारी है. खेल नया नहीं है, पहले भी खेला गया है, सिर्फ पाले के किरदार बदल जाते है. इस बार कुछ बदला है और बदलाव यह रहा कि 2015 में कश्मीर में जब विधानसभा चुनाव हुए तो जो राजनीतिक समीकरण उभरे, वह कई मामलों में नया था. मोदी की छवि और बीजेपी की कश्मीर नीति में धारा 370 की जो धार थी, उस धार के साथ पीडीपी से मिलाप किस हद तक संभव था, यह विशेषज्ञों के लिए मंथन का विषय था. पर मजबूरी ही सही, गठजोड़ हुआ.

इसे भी पढ़ें: ओपिनियन: डिप्लोमेसी और हकीकत में पिसता कश्मीर मुद्दा

2014 लोकसभा के चुनावों के दौरान आयोजित रैलियों में नरेंद्र मोदी ने कश्मीर को लेकर जो मुद्दे उठाए थे, वह एक कसौटी बनी, जिन पर अब तक उन्हें लगातार कसा था. ऐसे में, 8 जुलाई को आतंकवादी बुरहान वानी को एनकाउंटर में...

कश्मीर पर अजीब उहापोह की स्थिति बनी हुई है. अब जबकि कश्मीर पर तीन प्रमुख सूचनाएं हैं और अगर उन तीनों सूचनाओं की समीक्षा करें तो कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझना थोड़ा आसान हो जाएगा. क्योंकि तीनों का मिजाज अलग है और अपने आप में एक अलग कहानी कहते हैं.

पहली सूचना है कि राजनाथ बुधवार से फिर कश्मीर जा रहे हैं, दूसरी खबर है कि थोड़े विराम के बाद सीमा सुरक्षा बल की 56 टुकड़ियां कश्मीर भेजी जा चुकी हैं और तीसरी खबर यह है कि स्पेशल ऑपरेशन ग्रूप के दो जवानों ने सार्वजनिक तौर पर अपने पद और काम से इस्तीफा देने की घोषणा की है. वजह यह बताई गई कि स्थानीय गांव वालों का भारी दबाव है. इन तीनों सूचनाओं के मर्म को थोड़ा समझने की जरूरत है और यह इसलिए भी जरूरी है कि घाटी में माहौल खराब हुए 46 दिन बीत चुके हैं और दो अलग चरणों की हिंसा में मरने वालों की संख्या करीब 65 तक पहुंच चुकी है. सेना और प्रदर्शनकारियों के घायलों की अनुमानित संख्या तो आठ हजार तक पहुंच चुकी है.

कश्मीर की समस्या पर राजनीतिक शह-मात का खेल जारी है. खेल नया नहीं है, पहले भी खेला गया है, सिर्फ पाले के किरदार बदल जाते है. इस बार कुछ बदला है और बदलाव यह रहा कि 2015 में कश्मीर में जब विधानसभा चुनाव हुए तो जो राजनीतिक समीकरण उभरे, वह कई मामलों में नया था. मोदी की छवि और बीजेपी की कश्मीर नीति में धारा 370 की जो धार थी, उस धार के साथ पीडीपी से मिलाप किस हद तक संभव था, यह विशेषज्ञों के लिए मंथन का विषय था. पर मजबूरी ही सही, गठजोड़ हुआ.

इसे भी पढ़ें: ओपिनियन: डिप्लोमेसी और हकीकत में पिसता कश्मीर मुद्दा

2014 लोकसभा के चुनावों के दौरान आयोजित रैलियों में नरेंद्र मोदी ने कश्मीर को लेकर जो मुद्दे उठाए थे, वह एक कसौटी बनी, जिन पर अब तक उन्हें लगातार कसा था. ऐसे में, 8 जुलाई को आतंकवादी बुरहान वानी को एनकाउंटर में मारा गया और इसके बाद जो हिंसा भड़की, उसके बाद से घाटी से जो रिपोर्ट आ रही हैं, उसमें सवाल उठना लाजिमी है कि मौजूदा परिस्थितियों में क्या हल संभव है?

केंद्र से जो संकेत मिल रहे है कि उनके मुताबिक केंद्र प्रदर्शनकारियों के प्रति कोई नरमी बरतने के मूड में नहीं है. और इसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं. खुफिय़ा एजेंसियों की सूचना यह है कि घाटी में हिंसा भड़काने के लिए बड़े पैमाने फंडिग हो रही है और यह आंकड़ा करीब 500 करोड़ तक का है. हवाला के जरिए यह फंडिग अलग-अलग बैंक अकाउंट के मार्फत अलगाववादियों तक पहुंच रही है.

सूचना यहां तक है कि पीओके में कैंप बने हुए हैं जहां से अलग-अलग एप्लीकेशन के लिए मैसेज भेजकर माहौल को गरमाने की कोशिश लगातार जारी है. खबर यहां तक है कि बाढ़ राहत और विकास के नाम पर केंद्र की तरफ से जो राशि गई है, उसका दुरूपयोग हुआ है और गलत तरीके से पैसे अलगाववादियों तक पहुंचे हैं. इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि सांबा की अपनी सभा में अरुण जेटली ने बीजेपी विधायकों को खास तौर पर आगाह किया कि जो पैसा विकास के नाम पर केंद्र से मिल रहा है उस पर नजर ऱखी जाए, ताकि सही स्थान पर उसे खर्च किया जा सके.

 कश्मीर में हिंसा

यह महज संयोग नहीं था कि कश्मीर में अशांति के दौरान पाक प्रधानमंत्री मुजफ्फराबाद जाते हैं और कश्मीर में वानी की शहादत का उन्हें ख्याल आता है और वह प्रदर्शनकारियों को अपना समर्थन देते हैं. मकसद साफ है कि अशांति के जरिए कश्मीर को फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने और सितंबर में संयुक्त राष्ट्र की बैठक के पहले तक माहौल को गरमाए रखने में पाक की दिलचस्पी ज्यादा है.

इधऱ, भारत द्वारा बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके के मुद्दे को उठाना भारत का रणनीतिक जवाब के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन इस रणनीतिक जंग के बीच कश्मीरियों का क्या? विपक्ष को वाजपेयी और उनकी कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत का दर्शन याद आ रहा है. कांग्रेस जितनी बार संसद में बहस को उतरी, बार-बार वाजपेयी की कश्मीर नीति में ज्यादा उलझी नजर आई. पार्टी में सलमान खुर्शीद की सोच सही है या गुलाम नबी आजाद की, पार्टी को ही तय करना शायद बाकी है.

मांग यह हो रही है कि घाटी में सख्ती कम हो, पैलेट गन का इस्तेमाल बंद हो और हर तबके से बातचीत की जाए. यह मांग लेकर उमर अब्दुल्ला भी दिल्ली में तीन दिनों से जमे रहे. लेकिन इस बात का जवाब उनके पास भी नहीं था कि 2010 में जब फर्जी एनकाउंटर में तीन लोग मारे गए और शोपियान में दो लड़कियों से बलात्कार की खबर के बाद हिंसा भड़की, तब उसे शांत करने में वे क्यों विफल रहे.

उमर उब्दुल्ला कहते हैं कि फिलहाल विकास से ज्यादा बातचीत की जरूरत है, पर यह उपाय तब क्यों नहीं लागू हो पाया. सरकार का कहना है कि जवानों के कम से कम बल प्रयोग का निर्देश दिया गया है और इसके समर्थन में संसद में जो आंकड़े दिए गए, उसके मुताबिक जहां सुरक्षा बलों के घायलों की संख्या 4500 से भी ऊपर पहुंच चुकी है, वहीं प्रदर्शनकारियों के घायलों की संख्या 3,200 के करीब है.

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पिछले कुछ दिनों में केंद्र की नीतियों में जो परिवर्तन दिख रहा है, उससे एक बात स्पष्ट है कि हुर्रियत जैसे नेताओं से कोई बातचीत नहीं होगी, पैलेट गन का इस्तेमाल भी नहीं रूकेगा, प्रदर्शनकारियों के प्रति कोई नरमी नहीं बरती जाएगी और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की टीम के जरिए बैकडोर बातचीत की प्रक्रिया शुरू होगी. इसका नतीजा यह भी निकल रहा है कि स्थानीय पुलिस जवानों के गांवों पर हमला हो रहे हैं, उनके परिवार को स्थानीय रोष का सामना करना पड़ रहा है. उनकी शिकायत है कि सरकार से सुरक्षा मिलती है और जवानों की कार्रवाई की खीझ उनके परिवारों पर उतारी जा रही है. ये घटनाएं पहले भी हुई है और अब भी हो रही है.

लेकिन जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर के दर्द की दवा इससे भी निकल कर बाहर आएगी, इस पर सवाल उठ रहे हैं. इस माहौल से घाटी के टूरिज्म को झटका लगा है. अमरनाथ यात्रा के दौरान तो प्रदर्शन हुए, यात्रियों को दिक्कतें आई, उसका संदेश भी गलत गया. रोजगार होगा नहीं, उमर उब्दुल्ला की मानें तो विकास की अभी ज्यादा जरूरत है नहीं, तो बातचीत किससे और किस हद तक, यह बड़ा सवाल है.

स्कूल-कालेज बंद पड़े हैं और अब तो वहां बीएसएफ ने कैंप तक बना लिया, तो बच्चे कैसे और क्या पढ़े, यह कश्मीरी हकों की बात करने वालों को क्यों नहीं सूझ रही? आज उत्पात मचाने वाला वर्ग ज्यादा युवा है, जिन्हें आसानी से सिर्फ पैसा ही नहीं मिल रहा, पत्थर से टुकड़ों से लेकर हथियार तक मुहैया कराए जा रहे हैं. जो तथाकथित अलगाववादी नेता घाटी में बैठे है, वे राजनीतिक प्रक्रिया में फिलहाल हाशिए पर है, क्योंकि केंद्र या राज्य सरकार से उन्हें कोई तवज्जों नहीं मिल पा रहा है. वे अब क्या करेंगे, अशांति? लिहाजा बरबस एक ही सवाल मन में उठता है कि अब जन्नत से ही पूछे कि वो ही बताए कि उसके इस दर्द की दवा क्या है?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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