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कोई शक नहीं कि अब राहुल से बड़े नेता हैं केजरीवाल, दिल्ली सीएम से सीख सकते हैं क्षेत्रीय क्षत्रप!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 08 दिसम्बर, 2022 11:33 AM
  • 07 दिसम्बर, 2022 08:52 PM
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केजरीवाल की सफलता से साफ़ हो गया कि किसी सिंडिकेट के इशारे पर भेड़-बकरियों की तरह झुंड के झुंड वोट देने वाला मुसलमान अब भारतीय राजनीति में कोई मुद्दा नहीं रहा. भारतीय लोकतंत्र की भलाई इसी में है. केजरीवाल की सफलता में बर्बाद हुई कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की पूरी कहानी याद रखना है.

अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक सफलताएं साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि राजनीति अब पूरी तरह से राष्ट्रवादी रिंग में है. सीधा-सीधा समझना चाहें तो राजनीति में 'हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व' की लड़ाई के युग की शुरुआत हो चुकी है. और यह असल में किसी तरह का धार्मिक विचार नहीं बल्कि भारतीयता का ही एक समानार्थी शब्द है. भारतीय मूल्यों में भरोसा रखने वाले हर व्यक्ति में हिंदुत्व है. उसकी अलग पूजा पद्धति, उसका निजी मसला हो सकता है. खैर, इसी साल पंजाब समेत तमाम राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद अब दिल्ली निगम में केजरीवाल की जबरदस्त जीत के मायने हैं. गुजरात और कुछ हद तक हिमाचल में भी उन्हें जो भी हासिल होता दिख रहा है, उसे भी मामूली नहीं कहा जा सकता. भले ही संख्या में सीटें दो-चार या फिर उससे कुछ ज्यादा ही हों.

महज कुछ साल पहले बनी एक पार्टी के जादुई करिश्मे में भारत के राजनीतिक भविष्य को देखा जा सकता है. केजरीवाल की हालिया सफलता असल में कांग्रेस के समूल विनाश की अब तक की सबसे बड़ी घोषणा है. तय मान लीजिए. सिर्फ लोकसभा को छोड़ दिया जाए तो दिल्ली में आप पार्टी लगभग अपराजेय है. पंजाब में भी दूर-दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा, जिसकी वजह से मान लिया जाए कि कल की तारीख में 'आप' वहां कोई राजनीतिक ताकत नहीं रहेगी. दिल्ली निगम और पंजाब की सफलता से पहले गोवा में आप ने इसी साल खाता खोला और दो सीटें जीतने में कामयाबी पाई. उत्तराखंड में पार्टी ने पहला चुनाव लड़ा. बड़ी कामयाबी तो नहीं मिली, मगर भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों की मौजूदगी में एक नई नवेली पार्टी ने 3.8% वोट हथियाए. क्या यह बहुत बड़ी बात नहीं.

राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल.

विपक्षी दलों को चाहिए कि उन चीजों को सुधारे जिसकी वजह से खो चुके हैं लोगों का...

अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की राजनीतिक सफलताएं साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि राजनीति अब पूरी तरह से राष्ट्रवादी रिंग में है. सीधा-सीधा समझना चाहें तो राजनीति में 'हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व' की लड़ाई के युग की शुरुआत हो चुकी है. और यह असल में किसी तरह का धार्मिक विचार नहीं बल्कि भारतीयता का ही एक समानार्थी शब्द है. भारतीय मूल्यों में भरोसा रखने वाले हर व्यक्ति में हिंदुत्व है. उसकी अलग पूजा पद्धति, उसका निजी मसला हो सकता है. खैर, इसी साल पंजाब समेत तमाम राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद अब दिल्ली निगम में केजरीवाल की जबरदस्त जीत के मायने हैं. गुजरात और कुछ हद तक हिमाचल में भी उन्हें जो भी हासिल होता दिख रहा है, उसे भी मामूली नहीं कहा जा सकता. भले ही संख्या में सीटें दो-चार या फिर उससे कुछ ज्यादा ही हों.

महज कुछ साल पहले बनी एक पार्टी के जादुई करिश्मे में भारत के राजनीतिक भविष्य को देखा जा सकता है. केजरीवाल की हालिया सफलता असल में कांग्रेस के समूल विनाश की अब तक की सबसे बड़ी घोषणा है. तय मान लीजिए. सिर्फ लोकसभा को छोड़ दिया जाए तो दिल्ली में आप पार्टी लगभग अपराजेय है. पंजाब में भी दूर-दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा, जिसकी वजह से मान लिया जाए कि कल की तारीख में 'आप' वहां कोई राजनीतिक ताकत नहीं रहेगी. दिल्ली निगम और पंजाब की सफलता से पहले गोवा में आप ने इसी साल खाता खोला और दो सीटें जीतने में कामयाबी पाई. उत्तराखंड में पार्टी ने पहला चुनाव लड़ा. बड़ी कामयाबी तो नहीं मिली, मगर भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों की मौजूदगी में एक नई नवेली पार्टी ने 3.8% वोट हथियाए. क्या यह बहुत बड़ी बात नहीं.

राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल.

विपक्षी दलों को चाहिए कि उन चीजों को सुधारे जिसकी वजह से खो चुके हैं लोगों का भरोसा

एक से बढ़कर एक महारथियों के बीच यूपी में आप के शुरुआती प्रयास को खारिज नहीं किया जा सकता. विधानसभा नतीजों के बाद "द हिंदू" से एक ख़ास बातचीत में संजय सिंह ने बताया था कि उनकी पार्टी ने यूपी में जो प्रदर्शन किया वह शानदार ही है. दो विधानसभा सीटों पर आप उम्मीदवारों ने 25 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए. कुछ सीटें ऐसी थीं जहां उम्मीदवारों को 7-8 हजार वोट मिले. सपा-भाजपा के बीच दो ध्रुवीय चुनाव में आप को 0.34 प्रतिशत ही वोट मिले थे. लेकिन नाममात्र ही सही यूपी में उनकी मौजूदगी को खारिज नहीं कर सकते.

अब विपक्षी दलों खासकर उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्रीय क्षत्रपों को एकांत में बैठकर ईमानदारी से सोचना चाहिए कि आखिर क्या वजहें हैं जो एक तरफ मोदी के नेतृत्व में भाजपा का लगातार विस्तार हो रहा है. दूसरी तरफ उसी मोदी और भाजपा की खिलाफत करने वाले केजरीवाल भी तमाम 'माहिर' और 'मोहरों' को दरकिनार करते हुए शिखर की तरफ बढ़ रहे हैं. केजरीवाल के पीछे जो मतदाता खड़ा है आखिर वह कौन है? केजरीवाल के सजातीय तो देशभर में इतनी संख्या में हैं भी नहीं और उन्हें भाजपा का कोर वोटर भी माना जाता है. समूचे विपक्ष का दायरा सिकुड़ रहा है. अब सवाल है कि भाजपा के सामने जब दूसरे क्षेत्रीय दल हारते जा रहे हैं फिर केजरीवाल के पास ऐसा क्या है जो उन्हें विपरीत हालात में कामयाबी हासिल हो रही है. वह भी लगातार.  

मोदी-केजरीवाल अपनी राजनीति को लेकर साफ़ हैं

केजरीवाल की कामयाबी के कई सारे मन्त्र हैं. वह सामाजिक बंटवारे की बात नहीं करते हैं. समानता की भी बात नहीं करते बल्कि समान मौकों की ज्यादा बात करते हैं. उनके वोट का सामाजिक बैकग्राउंड चेक करिए. अब हिंदुत्व पर भी उन्हें संकोच नहीं. पहले था. असल में केजरीवाल चीजों को उसकी असलियत में समझते हैं और बहुत बढ़िया कम्युनिकेटर हैं. राजनीति में आने से पहले उन्होंने जमीन पर बहुत काम किया है. उन्हें ज्यादा बेहतर मालूम है कि सरकारों के खिलाफ जो शोर खड़ा नजर आता है असल में उसकी सच्चाई और उसकी मंजिल क्या है? कभी वह खुद इसी जमात का ही हिस्सा थे. वे पब्लिक साउंड को बेहतर समझते हैं. तो उन्हें अब हिंदुत्व से भी परहेज नहीं है. अगर जरूरत पड़ी तो केजरीवाल मथुरा के लिए कारसेवा करने से भी पीछे नहीं हटेंगे. बावजूद ऐसा काम बिल्कुल नहीं करेंगे जिससे फायदा सिर्फ कांग्रेस और उसके सिंडिकेट का हो.

तीसरे दल यहीं चूक गए. कांग्रेस और उसके सिंडिकेट के झांसे में उन्होंने गलतियां पर गलतियां कीं. हिंदुत्व या राष्ट्रवादी विचार जो भी कह लें, आज के वक्त की मजबूरी और आवश्यकता दोनों है यह. केजरीवाल लोगों की असल समस्या को किसी मंझे नेता की बजाए ज्यादा बेहतर समझते हैं. महज इसी खूबी ने मोदी को भी अपराजेय बनाया हुआ है. मोदी भी तो मौजूदा राजनीति में सबसे बड़े कम्युनिकेटर हैं.

भारतीय समाज में 'इलिटिज्म' के पाखंड का एक जमाने से विरोध हो रहा है. गैरकांग्रेसवाद का विचार असल में है क्या? पाखंड को स्वीकार करना भारतीयों के डीएनए में है ही नहीं. गांधी जैसे नेताओं के नेतृत्व में आजादी का सपना सिर्फ गोरी सरकार से मुक्ति भर के लिए नहीं देखा गया था. देश की भूखी-नंगी और अनपढ़ जनता ने उन काले अंग्रेजों से भी मुक्ति का सपना देखा था जो बादशाहों के दौर से लेकर अंग्रेजी राज तक किसी ना किसी रूप में शासन करते ही रहे. उनका नियंत्रण कभी ख़त्म नहीं हुआ. कभी तलवार कभी लाठी के जोर पर, कभी ओहदे के जोर पर, कभी अंग्रेजी ज्ञान के जोर पर. कांग्रेस राज में उनका स्वर्णकाल रहा. हकीकत में आजादी के बाद भी गांव एक तरह से गुलाम ही थे. जमींदारों-सामंतों के गुलाम और शहरों के गुलाम. पहले भी शहरों के गुलाम ही थे और शहर के हर किए धरे की कीमत चुकाते थे. उन्हें बदले में जो मिला, उसे शहर ने ही लूट लिया.

सामंत और जमींदार शहरों के लुटेरे प्रतिनिधि थे. इनमें ज्यादातर सवर्ण और डोमिनेंट ओबीसी ही थे. इन सामंतों ने सामाजिक आधार पर अपने-अपने समाजों का गैरवाजिब इस्तेमाल किया, बावजूद कि इनके अपने लोग भी उसी तरह पीड़ित हुए जिस तरह दूसरे लोग. शहर का उपनिवेश बरकरार रहे- इसके लिए आजादी के बाद बहुत चालाकी से इन्हीं की मदद से सिंडिकेट ने समाज के स्वाभाविक 'क्लास' डिबेट को 'कास्ट' डिबेट में तब्दील कर दिया. समाज में बहुत सारी चीजें- दुर्भाग्य से सब की सब खराब ही रही हैं, इन्हीं की वजह से गांवों और उसके समाज तक तमाम बुराइयां पहुंचीं. आजादी एक बाद तो अन्धीधुन दिखती है कांग्रेस राज में. आजादी के बाद कांग्रेस ने समाज की स्वाभाविक चेतना को बहुत प्रभावित किया. बहुत दिनों बाद जब मुझे पता चला कि असल में पूर्व कांग्रेसी ज्योतिरादित्य सिंधिया और आरपीएन सिंह जैसे तमाम नेता पिछड़े हैं, मैं भरोसा नहीं कर पा रहा था.

मुझे हैरानी इस बात की ज्यादा थी कि आज की राजनीति में जब हर कोई अपने पिछड़े स्टेटस को सामने रखकर अपने समकक्ष पिछड़े समाज की सिम्पैथी बटोरने की कोशिश में रहता है आखिर कांग्रेस या उनके नेताओं ने स्टेटस छिपाना क्यों बेहतर समझा. कुछ साल पहले तक वे भी कांग्रेस की तरफ से किसी रईस या रजवाड़े के वंशज या ठाकुर साब बनकर ही आते थे. यह कास्ट डिबेट को बनाए रखने के लिए जानबूझकर किया जा रहा था. कुछ जातियों में पैदा होना शर्मनाक बना रहे- यह धारणा बनाए रखने के लिए किया जा रहा था. जबकि यह प्रेरक विषय था. आप देखिए, जब से कांग्रेस में 'आई' शब्द जुड़ा है- समाज विभाजन के लिए विजुअल तैयार किए जाने लगे. विजुअल दिमाग में याद रह जाते हैं. उनका बहुत बड़ा योगदान होता है. आप बॉलीवुड फिल्मों में दिखाए जा रहे संघर्ष में सामने निकलकर आ रहे प्रतीकों को उठाकर देख लीजिए.

सार्वजनिक कल्याण के मामले में मोदी-केजरीवाल का रवैया एक है

आजादी के बाद सारे क्रांतिकारी, शहरी सवर्ण क्लास पैदा कर रहा है. सभी क्रांतिकारी जमींदारों के घर में पैदा हो रहे थे. कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो जिन सामंतों के पिताओं ने सालों साल समाज (सभी जातियों को) को बंधक बनाकर लूटा- उन्हीं सामंतों के बेटे बंदूक उठाकर क्रांति के अग्र पुरुष बने नजर आते हैं. ठीक वैसे ही जैसे 15 अगस्त को भारत की आजादी के साथ ही ब्रिटेन रातोंरात मानवीयता का पहरू और संत बन गया. ठीक वैसे ही जैसे हीरोशीमा-नागासाकी में परमाणु गिराने के बाद अमेरिका विश्वरक्षक बन गया. क्या क्रांतिकारियों के बेटों ने असल में अपनी सुरक्षा के लिए बंदूके उठाई थी. उन्हें समाज के स्वाभाविक विद्रोह से डर था. उन्होंने मूल सवालों को बदल दिया. उन्होंने बंदूकों की नाल को वहां घुमा दिया असल में जहां उसे नहीं होना चाहिए था. जाति का रूप देकर. सभी क्रांतिकारियों के बैकग्राउंड को जाकर एक बार जरूर चेक करें. कांग्रेस और उसके सिंडिकेट ने क्या किया गांवों में? आजादी के बाद 'गांवों के देश' को लेकर संविधान में जो विजन था- उसे भुला दिया गया. बंदरबाट शुरू हो गई. शहर ने तमाम तरह की दीवारें खड़ी कर दी. चीजें गांव तक रिस ही नहीं पाई.

वो चाहे पीने का पानी हो, खाने का राशन, ढिबरी का कैरोसीन, बिजली, चलने के लिए पगडंडी- कांग्रेस और तीसरे दलों की सरकार में योजनाबद्ध तरीके से लूटपाट हुई. किसी चीज से जब शहर का पेट पूरी तरह से भर जाता था तब चीजें गांव की तरफ रुख करती थीं. गांव पहुंचा भी तो सामजिक भेद के साथ. जिन घरों पर अरब-तुर्क-अफगान, यूनियन जैक और ह्यूम की कांग्रेस का झंडा सबसे पहले लगा था- पहला हैंडपंप, पहली सड़क, पहला टेलीफोन उन्हीं के यहां लगा. या उनके कारिंदों के यहां. मोदी और केजरीवाल की राजनीति में यहीं एक बड़ा फर्क है. सार्जनिक कल्याण की योजनाओं के लिहाज से दोनों नेताओं में आम और ख़ास का फर्क नजर नहीं आता. किसी भी कल्याणकारी योजना में. यहां तक कि मोदी राज में तमाम मुस्लिम नागरिक भी खुलकर कहते हैं कि योजनाओं का उन्हें बिना भेदभाव के लाभ मिला है बावजूद मोदी को वोट नहीं करना चाहते.

मुस्लिमपरस्त राजनीति के युग का अंत हो चुका है कुल मिलाकर केजरीवाल की सक्सेस से पता चलता है कि अन्याय पर टिके राजनीति के मुस्लिमपरस्त युग का अंत हो चुका है. वह युग जो सिर्फ कांग्रेस और बाद में इंदिरा कांग्रेस की वजह से राजनीति में एक ऐसा रूप धरते चली गई जिसने हमारे आर्थिक-राजनीतिक-सामजिक मुद्दों को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया. असल में आजादी के बाद कांग्रेस ने ही दोबारा भारतीय राजनीति को हिंदू बनाम मुस्लिम की शक्ल देने का काम किया. सिर्फ वोट पॉलिटिक्स के जरिए सत्ता में बने रहने के लिए. फिर कहता हूं ये मुट्ठीभर लोग थे, जिनके घरों पर अरब-तुर्क-अफगान के लशकर का झंडा सबसे पहले लहराया था, इन्हीं घरों पर ह्यूम की कांग्रेस का झंडा भी सबसे पहले लगा. बाकी दरी बिछाने वाले लोग समानता, क्रान्ति के झूठे सब्जबाग में असलियत को समझ ही नहीं पाए.

इसका दुष्परिणाम यह रहा कि हजार साल के सभी उपनिवेशों से मुक्ति का स्वप्न बिखर गया. आजादी के बावजूद. भारतीय मूल्यों की रक्षा करने वाले संविधान की जो रूपरेखा बनाई गई थी, वोट पॉलिटिक्स में उसके असल मुद्दों को हटाकर कर उपनिवेशों के सिंडिकेट को ताकतवर बना दिया गया. नई व्यवस्था में भी वर्चस्व बनाए रखने के लिए 'क्लास' के संघर्ष को तमाम अन्य संघर्षों में तब्दील कर दिया गया. मौजूदा समाज और राजनीति में जो तमाम खाइयां दिखती हैं, असल में वह उन्हीं का नतीजा है. आजादी के बाद संविधान के लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ा जाता तो आज के जो तमाम सवाल मुंह बाए खड़े हैं और डराते दिखते हैं- वे कब के ख़त्म हो चुके रहते. कांग्रेस का तो फिर भी समझ में आता है, लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया के विचार पर टिके राजनीतिक दलों ने क्या किया?

संविधान का लक्ष्य क्या था, जातियों के झगड़े ख़त्म करना, सबको मौके देना- कितने क़ानून बनाए गए?  

समाज में असल झगड़ा जाति का था या वर्ग का. असल झगड़ा जाति का था तो वुद्धिजीवियों को आज की तारीख में आगे आकर बताना चाहिए कि तब शहर कैसे सालों साल खुशहाल और जातीय आधार पर शांत बने रहे? असल बात तो यह है कि झगड़ा जाति का नहीं संसाधनों का था. झगड़ा शहर के पाखंड और भारत की संस्कृति का था. इसीलिए गांधी या लोहिया ने बार-बार ग्रामीण भारत की पीड़ा को आवाज देने की कोशिश की. गांधी ने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के खात्मे की बात कही, जिसे बरकार रख कुछ लोग उसका बेजा राजनीतिक फायदा उठाना चाहते थे. बाद में कांग्रेस टूट भी गई और वह इंदिरा कांग्रेस के रूप में और व्यवस्थित सिंडिकेट के रूप में ही सामने आई.

संविधान का लक्ष्य तो समानता से था. एक जैसी शिक्षा, एक जैसा इलाज, एक जैसी सड़क और एक जैसा परिवहन. एक मौका तो एक जैसा हो. सबको दिया जा सकता था. सिर्फ क़ानून बनाने थे. यूसीसी तो यही था जिसे डॉ. अंबेडकर और तमाम नेता आजादी के बाद से ही लागू करना चाहते थे. अंग्रेजी और दूसरी विदेशी भाषाओं की बजाए भारतीय भाषाओं को महत्व देने की थी. कुछ नहीं करना था. इन्हें सिर्फ क़ानून बनाकर संस्थागत रूप देना था. जहां अंग्रेजी नहीं जानने वाला कोई बिहारी, कोई तमिल, कोई मराठी भी प्रतिस्पर्धा कर सकता था. मगर इससे शहर और सिंडिकेट के ढाँचे को नुकसान पहुंचता. उसे प्रतिद्वंद्विता से जूझना पड़ता. नहीं किया गया. उलटे उन्हें रोकने के लिए मानक गढ़े गए.

हुआ क्या? शहर में रहने और अंग्रेजी को ज्ञान और संपन्नता का प्रतिमान बना दिया गया. ठीक है- नेहरू जी ने आईआईटी, आईआईएम और एम्स देश को दिए. पर वहां पहुंचा कौन? वहां सिर्फ शहर पंहुचा या फिर शहर से जबरदस्त संपर्क रखने वाले उँगलियों पर गिने जा सकने वाले कुछ सामंत और जमींदार. बाकी गांवों में लोगों ने अपने बच्चों का नाम डिप्टी कलक्टर, जज, डाक्टर, कंपाउंडर आदि रखकर ही संतोष किया. उन्हें झूठ बताया गया कि आईआईटी करने के लिए शहरी होना जरूरी है. अंग्रेजी में पढ़ना जरूरी है. उन्हें घृणा की नजर से देखा गया. वो अपने वजूद अपने बैकग्राउंड से घिन करने लगे.

शहरों ने अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल बनाए गए और सरकारी स्कूलों को ईश्वर के भाग्य पर छोड़ दिया गया. कांग्रेस का राज यही था. अब तो गांव वालों ने भी ज्ञान की गंगोत्री का पता लगा लिया है. दो वक्त खाने वाला हर आदमी आज की तारीख में अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में भेज रहा है. बावजूद कि महंगी फीस भरना उसकी क्षमता में नहीं है. पर अब उनकी हिस्सेदारी देख लीजिए.

लोहिया मूर्ख नहीं थे, उनके अनुयायी अगर समझ नहीं पाए तो इसमें किसका दोष

लोहिया या अंबेडकर पागल नहीं थे जो उन्होंने गैरकांग्रेसवाद का नारा उछाला था. उन्हें मालूम था कि दबाव किस वजह से डाला जा रहा है. लोगों को तोड़ा क्यों जा रहा है. लोहिया तो नेहरू के अंतरिम मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए क्योंकि उनका जमीर उन्हें किसी साम्राज्ञी की शपथ लेने से रोक रहा था. उन्होंने किसी मूर्खता में गैरकांग्रेसवाद का सपना नहीं देखा था. विभाजन से पहले और बाद में उनका विचार पूरी तरह से स्पष्ट था. उन्होंने देखा था कि कैसे कांग्रेस में ही बहुसंख्यक लोगों की पसंद नहीं होने के बावजूद अलोकतांत्रिक तरीके से नेहरू को प्रधानमंत्री का पद दिया गया और समूचे स्वतंत्रता संग्राम को नेहरू की चरणों में समर्पित कर दिया गया. लोहिया ने दूर की कौड़ी के तहत लिखा- कि यह बहुरंगी और दशकों के दमन से टूट चुके देश का आत्मविश्वास राम, कृष्ण और गौतम के साथ ही पूरा होगा. अम्बेडकर अनपढ़ नहीं थे, जो बुद्ध बन गए. जबकि कांग्रेस और उसके सिंडिकेट ने उन्हें ठेलने की भरसक कोशिश की थी. वे चाहते तो ईसाई बनकर ज्यादा अंतराष्ट्रीय हो सकते थे. मगर कोई बात थी जो उन्होंने बुद्ध को ही चुना. वे सिंडिकेट के भुक्तभोगी थे.

मजेदार यह है कि लोहिया के अनुयायी अपने ही नेता को भूल गए. गैर कांग्रेसवाद का नारा तमाम सामजिक वजहों से आज का नहीं है. लोहिया के बाद जेपी ने भी तो इसी नारे से कांग्रेस को एक बार साफ़ कर ही दिया था. लेकिन लोहिया और जेपी के नामपर राजनीति करने वालों ने क्या किया? वे कांग्रेस को मजबूत करते रहे और उसकी पिच पर राजनीति करने उतर गए. हिंदू-मुसलमान की राजनीतिक पिच. समाज क्या सोच रहा था, उसकी असल तकलीफ क्या थी- किसी ने ध्यान ही नहीं दिया. बिना मेहनत थोक के वोट से मिली राजनीतिक सफलताओं ने उन्हें मदमस्त कर दिया. वे लोहिया और जेपी को भूलकर गांधी-नेहरू का नाम जपने लगे. लोहिया जिन विचारों को खारिज कर रहे थे, नए विचार स्थापित करना चाहते थे- उनके अनुयायी एक तरह से अपने ही नेता को अप्रासंगिक बनाते चले गए. लोहियावादी नेता आज की तारीख में जिन्ना, गांधी और नेहरू की प्राण प्रतिष्ठा करते मिल जाएंगे.

सवाल ही नहीं कि वे लोहिया की प्रतिष्ठा कर पाए. क्योंकि कानों में जो रुई घुस गई है वह समाज की आवाज नहीं पहुंचने दे रही. क्षेत्रीय दलों ने तुष्टिकरण की राजनीति में खुद को सुरक्षित करने के लिए कुनबा राजनीति को बढ़ावा दिया. उन्हें लगा कि कुछ वोटिंग ब्लॉक से उनकी राजनीति चलती रहेगी? यह सबकुछ कांग्रेस की वजह से मिली सत्ताओं के सुख से हुआ. और इस तरह लोहिया के तमाम अनुयायी राजनीति में दशकों निवेश करने के बावजूद अपना वजूद खो चुके हैं.

समाज उस तरह नहीं बंटा था जैसे सिंडिकेट के भरोसे में उसे बांटकर राजनीति की गई. तुष्टिकरण की राजनीति. अच्छा है कि भारतीय राजनीति में अब राजनीतिक सफलता के लिए 'मुसलमान' असर डालने वाले और निर्णायक मुद्दा नहीं रहे. किसी सिंडिकेट के इशारे पर भेड़-बकरियों की तरह झुंड के झुंड वोट देने वाला मुसलमान अब राजनीति में कोई मुद्दा ना ही रहे तो इसी में भारतीय लोकतंत्र की भलाई है और देश की संप्रभुता अक्षुण है. यह बहस करने या किसी को समझाने की बात नहीं रही कि अब तक मुसलमानों के सहारे हुई राजनीति से देश को क्या मिला? मुसलमानों के लिए भूख, गरीबी, महंगाई, रोजी-रोजगार, आबादी, स्थानीय भाषा संस्कृति, राष्ट्रीयता, संविधान, क़ानून, वाह्य-आतंरिक सुरक्षा आदि कभी मुद्दा ही नहीं रहे. वो चाहे पढ़ा-लिखा तबका हो या फिर अपढ़- उनके लिए स्वतंत्र धार्मिक पहचान हमेशा से सबसे बड़ा मुद्दा है. दुर्भाग्य से यह संविधान के मकसद में सबसे बड़ी बाधा भी है. वोट पॉलिटिक्स में इसी स्टेटस को बरकरार रखने के लिए मनमाने तिकड़म किए गए और भारतीय समाज को उसकी कीमत चुकानी पड़ी है.

बावजूद कि सिंडिकेट की ताकतें ख़त्म नहीं हुई हैं. उन्होंने अभी सिर्फ भरोसा खोया है. पुराने जहाज की तरह जर्जर हुए हैं. अरब महासागर में उनका डूबना अभी बाकी है. निश्चित ही 2024 में उन्हें डूबना पड़ेगा. भाजपा के दुप्रचार के बावजूद केजरीवाल को हिंदुत्व के मुद्दे पर भी वोट मिला. उन्हें मुस्लिम मतों का भारी नुकसान भी हुआ. पर आखिर में तो जीत याद रखी जाती है. जीत ने साफ़ किया कि अब हिंदू मुस्लिम राजनीति की जगह देश के अपने मुद्दे लेंगे. पाकिस्तान-कश्मीर के नाम पर ज्यादा दिन वोट नहीं लिया जा सकता. यह भाजपा के लिए भी एक संकेत है. हिंदुत्व पर उसका कॉपीराइट नहीं है. मतदाताओं ने अगर किसी नेता पर भरोसा किया कि वह ईमानदारी से हिंदुत्व के लिए समर्पित है तो उसे वोट देंगे. केजरीवाल ने मतदाताओं का भरोसा कमाया है. बाकी यह साफ़ हो गया कि आने वाले दिनों में केजरीवाल भी गैरकांग्रेसवाद की लहर पर सवार होकर आगे बढ़ेंगे. लोकसभा चुनाव से पहले अभी कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और केजरीवाल को निश्चित ही उल्लेखनीय सफलताएं मिलेंगी.

हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व की ऐसी राजनीतिक लड़ाइयों का स्वागत करना चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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