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मतदाता दिवस 10 साल का होकर भी सिर्फ नाम के लिए ही!

    • मशाहिद अब्बास
    • Updated: 25 जनवरी, 2021 08:37 PM
  • 25 जनवरी, 2021 08:37 PM
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एक लोकतांत्रिक देश के लिए सबसे ज़रूरी है उसके वोटर्स का जागरुक रहना. भारत में वोटर्स डे (Voters Day) भी मनाया जाता है मतदाताओं को जागरूक करने के लिए, लेकिन इसका मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है. अब चुनाव आयोग (Election Commission) को किस बदलाव की ज़रूरत है जिससे मतदान में सभी की भागीदारी हो.

साल 2011 से ही हर साल 25 जनवरी को देश के वोटर्स को जागरुक करने के लिए वोटर्स डे मनाया जाता है. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल (Pratibha Devi Singh Patil) ने इस दिवस का शुभारंभ किया था. इस दिवस को मनाए जाने का मकसद था कि देश के मतदाता जागरुक हों और अपने मत के अधिकार और उसकी ताकत के बारे में जानकारी रखें, ताकि भारत के लोकतंत्र में उसकी पूरी भागीदारी हो. आज इस दिवस को मनाते हुए पूरे 10 वर्ष बीत चुके हैं तो इसका विश्लेषण होना भी ज़रूरी है कि आखिर इस दिवस के रूप में कितने बदलाव दिखे हैं. आज जब इस दिवस का आगाज़ हुआ तो देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind) ने एक वर्चुअल प्रोग्राम में सुरक्षित मतदान को लेकर चर्चा की है. भारत के मतदाताओं में एक बड़ी ताकत होती है. हर भारतीय नागरिक को वोट का अधिकार है और हर किसी के वोट की वैल्यू समान ही है. हर भारतीय नागरिक हर 5 साल पर लोकसभा और हर पांच साल पर विधानसभा सदस्य अपने वोट के सहारे चुनता है. इसके अलावा ग्रामीण इलाके हों या शहरी निकाय वहां भी सीधे जनता अपना प्रतिनिधी अपने वोट के सहारे चुनती है.

एक वोटर के लिहाज से मतदाता दिवस हमारे लिए एक खानापूर्ति से ज्यादा और कुछ नहीं है

कुछ मत ऐसे भी होते हैं जिसमें जनता सीधे अपना प्रतिनिधि नहीं चुनती है बल्कि उसके द्धारा चुने गए प्रतिनिधि ही उसकी ओर से मत का प्रयोग करते हैं. ऐसे ही राष्ट्रपति का चुनाव होता है, प्रधानमंत्री का चुनाव होता है, राज्यसभा सांसद या विधानपरिषद वगैरह के चुनाव भी ऐसे ही होते हैं. देश का कोई भी चुनाव हो वह मत के ज़रिए ही पूरा होता है.इसी को लोकतंत्र कहा जाता है जहां सारी शक्तियां जनता के हाथों में होती है.

भारत में मतदान को लेकर हमेशा जागरुकता के अभियान भी बड़े पैमाने पर चलाए जाते हैं. जहां एक...

साल 2011 से ही हर साल 25 जनवरी को देश के वोटर्स को जागरुक करने के लिए वोटर्स डे मनाया जाता है. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल (Pratibha Devi Singh Patil) ने इस दिवस का शुभारंभ किया था. इस दिवस को मनाए जाने का मकसद था कि देश के मतदाता जागरुक हों और अपने मत के अधिकार और उसकी ताकत के बारे में जानकारी रखें, ताकि भारत के लोकतंत्र में उसकी पूरी भागीदारी हो. आज इस दिवस को मनाते हुए पूरे 10 वर्ष बीत चुके हैं तो इसका विश्लेषण होना भी ज़रूरी है कि आखिर इस दिवस के रूप में कितने बदलाव दिखे हैं. आज जब इस दिवस का आगाज़ हुआ तो देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind) ने एक वर्चुअल प्रोग्राम में सुरक्षित मतदान को लेकर चर्चा की है. भारत के मतदाताओं में एक बड़ी ताकत होती है. हर भारतीय नागरिक को वोट का अधिकार है और हर किसी के वोट की वैल्यू समान ही है. हर भारतीय नागरिक हर 5 साल पर लोकसभा और हर पांच साल पर विधानसभा सदस्य अपने वोट के सहारे चुनता है. इसके अलावा ग्रामीण इलाके हों या शहरी निकाय वहां भी सीधे जनता अपना प्रतिनिधी अपने वोट के सहारे चुनती है.

एक वोटर के लिहाज से मतदाता दिवस हमारे लिए एक खानापूर्ति से ज्यादा और कुछ नहीं है

कुछ मत ऐसे भी होते हैं जिसमें जनता सीधे अपना प्रतिनिधि नहीं चुनती है बल्कि उसके द्धारा चुने गए प्रतिनिधि ही उसकी ओर से मत का प्रयोग करते हैं. ऐसे ही राष्ट्रपति का चुनाव होता है, प्रधानमंत्री का चुनाव होता है, राज्यसभा सांसद या विधानपरिषद वगैरह के चुनाव भी ऐसे ही होते हैं. देश का कोई भी चुनाव हो वह मत के ज़रिए ही पूरा होता है.इसी को लोकतंत्र कहा जाता है जहां सारी शक्तियां जनता के हाथों में होती है.

भारत में मतदान को लेकर हमेशा जागरुकता के अभियान भी बड़े पैमाने पर चलाए जाते हैं. जहां एक ओर लोगों को वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने के लिए जागरुक किया जाता है तो वहीं लोगों को मतदान करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है.भारतीय निर्वाचन आयोग हर चुनाव से पहले मतदान प्रतिशत में इज़ाफा करने का लक्ष्य बनाता है और मतदान प्रतिशत को बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करता रहता है.

इसी मतदान प्रतिशत को बढाने के लिए ही ईवीएम में नोटा जैसे बटन भी दिए गए और इसी मतदान प्रतिशत में इज़ाफा करने के लिए ही कुछ मतदान स्थल को आदर्श बूथ भी बनाया गया.ताकि किसी भी तरह से लोग मतदान के दिन घर से निकलें और चुनावी पर्व का हिस्सा बनें. लेकिन क्या मतदाता दिवस के बाद भी कोई बदलाव आया है इसके लिए पहले आपको आंकड़ों पर नज़र डालनी होगी. भारत का पहला लोकसभा चुनाव साल 1952 में हुआ और इस चुनाव में कुल 45 प्रतिशत लोगों ने हिस्सा लिया था.

उसके बाद से ही चुनाव में लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी हो इसके लिए कदम उठाए जाने लगे.1952 का सफर साल 2004 तक पहुंचा तो मतदान फीसदी में मात्र 13 प्रतिशत का ही इज़ाफा हो पाया. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कुल 58 फीसदी वोट, साल 2009 में 60 फीसदी मतदान हुआ. वर्ष 2011 से मतदाता दिवस मनाए जाने की परंपरा की शुरूआत हुयी तो साल 2014 में इसमें 6 प्रतिशत की वृद्धि हुयी और 66 फीसदी मतदान हुआ.

पिछले लोकसभा चुनाव में यह संख्या मात्र 1 फीसदी ही बढ़ पाई औऱ कुल 67 प्रतिशत ही मतदान हो सके. यानी आंकड़ों पर नज़र फेरते हुए देखा जाए तो मतदान प्रतिशत में कोई खास इज़ाफा नहीं हो पाता है. चुनाव आयोग हो या सरकार वह सभी मतदान प्रतिशत को बढ़ाने पर जोर ज़रूर लगाते हैं लेकिन मतदाता घर से न निकलने की मानों परंपरा ही बना बैठा हो.

ऐसा नहीं है कि मतदाता ही लचीलापन दिखाया करते हैं और मतदान स्थल तक नहीं पहुंचते हैं. चुनाव आयोग इतनी आधुनिकता के दौर में भी वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने और काटने का कार्य सही तरीके से नहीं कर पा रहा है. अभी भी लगभग हर वोटर लिस्ट में ऐसे नामों की संख्या होती है जो मतदाता इस दुनिया से गुज़र गए होते हैं या फिर ऐसे भी मतदाता होते हैं कि वह 18 साल की उम्र पार कर जाने के बाद भी वोटर लिस्ट में जगह नहीं बना पाते हैं.

कई ऐसे मतदाता भी होते हैं जिनके नाम दो से तीन वोटर लिस्ट में चढ़ जाते हैं. चुनाव आयोग लाख कोशिश के बावजूद इस समस्या से निजात नहीं पा पा रहा है. इसके अलावा चुनाव आयोग की भी अपनी अलग अलग रणनीतियां हैं जिससे मतदाता सूची में खामियां हो जाती हैं. निर्वाचन आयोग दो वोटर सूची बनाता है, एक विधानसभा सूची तो दूसरा ग्रामीण मतदाता सूची. अब इन दोनों में ही भिन्नता देखने को मिल जाया करती है.

भारत में मतदान फीसदी न बढ़ पाने की सबसे बड़ी वजह ये भी है कि जो मतदाता अपने बूथ स्थल के पास है बस वही मतदान कर सकता है, अगर वह मतदाता उसी क्षेत्र के शहरी इलाके में है तो मतदान नहीं कर सकता है. कोई भी हो वह अपने मत का इस्तेमाल अपने ही क्षेत्र में बने बूथ पर कर सकता है जबकि भारत में कई प्रतिशत मतदाता हैं जो अपने शहर से दूर हैं या फिर अन्य राज्यों में बसे हुए हैं.

वह अपने क्षेत्र में जाकर मतदान करने में असमर्थ होते हैं. ऐसे में मतदान प्रतिशत में कमी आना लाज़िमी है. चुनाव आयोग को ऐसी समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए और मतदाता दिवस को एक रस्म की तरह नहीं एक त्यौहार के रूप में मनाना चाहिए. भारत के हर मतदाताओं को चुनाव में भागीदारी के लिए जागरुक करने के साथ निर्वाचन आयोग को मतदाताओं के साथ आ रही परेशानियों से भी दो चार होना चाहिए और उसका समाधान निकालना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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