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दिल्ली की जंग जारी है!

    • कुमार कुणाल
    • Updated: 09 अगस्त, 2016 11:09 PM
  • 09 अगस्त, 2016 11:09 PM
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आखिरकार सवाल अब ये कि दिल्ली को विशेष दर्जा क्यों? क्यों बाकी राज्यों की तर्ज पर यहां भी चुनी हुई सरकार को तमाम शक्तियां नहीं दे दी जाती हैं.

एक तरफ आम आदमी पार्टी के सीनियर नेता कुमार विश्वास प्रेस कांफ्रेस करके दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग को पानी पी-पी कर कोस रहे थे, तो दूसरी तरफ दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया उपराज्यपाल के घर यानि राज निवास मुलाकात करने पहुंच गए. यानि साफ है कि दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी सोची समझी दो अलग-अलग रणनीति पर काम कर रही है.

रणनीति ये कि उपराज्यपाल नजीब जंग से सियासी लड़ाई जारी रखी जाए वहीं पर्दे के पीछे बातचीत का दौर भी जारी रहे. 4 अगस्त को जब हाई कोर्ट का बड़ा फैसला आया तो उसी दिन दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने पिछले डेढ़ साल में अपनी पहली प्रेस कांफ्रेस की. प्रेस कांफ्रेस में कई बातें साफ थीं. पहली बात तो ये कि एलजी जंग हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार भर कर रहे थे, और मौका मिलते ही उन्होंने अपनी जुबान पर लगा ताला उतार दिया.

इसे भी पढ़ें: दिल्ली सरकार Vs केंद्र: तू डाल डाल, मैं पात पात...

संदेश बस इतना ही भर नहीं था कि वो अबतक चुप सिर्फ इसलिए बैठे थे कि मामला हाई कोर्ट में लंबित पड़ा हुआ था. संदेश ये भी साफ था कि अधिकारों की लड़ाई में मिली इस जीत को लेकर वो पहले से ही आश्वस्त थे. इसलिए सवाल चाहे जितने पूछे गए हर एक का जवाब दिया, हां ये बात जरुर थी कि जब कुछ निजी सवाल पूछे गए तो आम तौर पर गंभीर से दिखने वाले नजीब जंग झुंझलाते हुए भी नज़र आए.

दिल्ली का मामला क्यों है पेंचीदा

दरअसल दिल्ली में अधिकारों का मामला है ही इतना पेंचीदा कि उसमें अच्छे-अच्छे गच्चा खा जाते हैं. इसलिए जब दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच की लड़ाई शुरु हुई तो कईयों की समझ में यही नहीं आया कि आखिरकार ये लड़ाई है किस बात की. क्योंकि बचपन से ही जो सरकार कि परिभाषा पढ़ाई...

एक तरफ आम आदमी पार्टी के सीनियर नेता कुमार विश्वास प्रेस कांफ्रेस करके दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग को पानी पी-पी कर कोस रहे थे, तो दूसरी तरफ दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया उपराज्यपाल के घर यानि राज निवास मुलाकात करने पहुंच गए. यानि साफ है कि दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी सोची समझी दो अलग-अलग रणनीति पर काम कर रही है.

रणनीति ये कि उपराज्यपाल नजीब जंग से सियासी लड़ाई जारी रखी जाए वहीं पर्दे के पीछे बातचीत का दौर भी जारी रहे. 4 अगस्त को जब हाई कोर्ट का बड़ा फैसला आया तो उसी दिन दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने पिछले डेढ़ साल में अपनी पहली प्रेस कांफ्रेस की. प्रेस कांफ्रेस में कई बातें साफ थीं. पहली बात तो ये कि एलजी जंग हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार भर कर रहे थे, और मौका मिलते ही उन्होंने अपनी जुबान पर लगा ताला उतार दिया.

इसे भी पढ़ें: दिल्ली सरकार Vs केंद्र: तू डाल डाल, मैं पात पात...

संदेश बस इतना ही भर नहीं था कि वो अबतक चुप सिर्फ इसलिए बैठे थे कि मामला हाई कोर्ट में लंबित पड़ा हुआ था. संदेश ये भी साफ था कि अधिकारों की लड़ाई में मिली इस जीत को लेकर वो पहले से ही आश्वस्त थे. इसलिए सवाल चाहे जितने पूछे गए हर एक का जवाब दिया, हां ये बात जरुर थी कि जब कुछ निजी सवाल पूछे गए तो आम तौर पर गंभीर से दिखने वाले नजीब जंग झुंझलाते हुए भी नज़र आए.

दिल्ली का मामला क्यों है पेंचीदा

दरअसल दिल्ली में अधिकारों का मामला है ही इतना पेंचीदा कि उसमें अच्छे-अच्छे गच्चा खा जाते हैं. इसलिए जब दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच की लड़ाई शुरु हुई तो कईयों की समझ में यही नहीं आया कि आखिरकार ये लड़ाई है किस बात की. क्योंकि बचपन से ही जो सरकार कि परिभाषा पढ़ाई जाती है उसमें चुनी हुई सरकार ही सर्वेसर्वा होती है.

इसलिए आम लोगों की समझ में तो यही आ रहा था कि केंद्र के इशारे पर टांग अटकाने वाले उपराज्यपाल को संविधान की समझ है ही नहीं और इसलिए मामला जब अदालत में जाएगा तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. लेकिन नतीज़े उलट आए, और कई लोगों को चौंकना लाजिमी था.

दिल्ली की जंग जारी है.

हमारे जैसे पत्रकार जो लगभग एक दशक से दिल्ली सरकार और यहां की व्यवस्था को हर रोज़ कवर करते आए हैं उनके सामने कमोबेश स्थिति साफ थी और वो ये कि आम लोगों के नजरिए से चाहे जो सही और जो ग़लत हों लेकिन दिल्ली का मामला बाकी राज्यों से काफी अलग है.

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दिल्ली में विधानसभा होने के बावजूद उसे संविधान में राज्य का दर्ज नहीं है. यानि विधानसभा होने की वज़ह से वो विशेष दर्जा प्राप्त केंद्र शासित प्रदेश है, बस. यानि फैसले दिल्ली सरकार के होंगे जरुर लेकिन उसपर केंद्र की मुहर जरुरी होगी. इसलिए केंद्र सरकार के नुमाइंदे के तौर पर उपराज्यपाल हमेशा चुनी हुई सरकार पर भारी रहेगा. और कुछ ऐसा ही फैसला दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सुना दिया.

सरकार-एलजी विवाद दिल्ली के लिए नया नहीं

बात इतनी भर ही नहीं है. दिल्ली में मौजूदा सिस्टम 1993 से काम कर रहा है यानि इसे लागू हुए तकरीबन 23 साल हो गए. तो सवाल ये भी है कि पिछले डेढ़ साल को छोड़ दें तो उपराज्यपाल, दिल्ली सरकार के कामकाज में इतना दखल क्यों नहीं देते थे. या यूं कहें कि केंद्र सीधे-सीधे दिल्ली के मामलों में ऐसा दखल क्यों नहीं देता था? जवाब ये है कि तब भी केंद्र की दखलअंदाज़ी इतनी ही थी और छोटे-छोटे प्रोजेक्ट के लिए भी ज़मीन लेने तक दिल्ली के मुख्यमंत्री को सीधे केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के चक्कर लगाने होते थे.

तब भी दिल्ली की खस्ताहाल कानून व्यवस्था के लिए सुनना दिल्ली सरकार को पड़ता था, और पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय को सीधे रिपोर्ट करती थी. और तो और दिल्ली नगर निगम का अधिकार भी उसके तीन हिस्से होने से पहले केंद्र सरकार के पास ही था और जब शीला दीक्षित ने नगर निगम को तीन हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव भेजा तो तब के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कई अहम मांगें ठुकरा दीं, जैसे कि अब भी दिल्ली नगर निगम को भंग करने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास नहीं बल्कि केंद्र सरकार के पास ही है. और जहां तक रही उपराज्यपाल के साथ टकराव की बात तो बीजेपी की सरकार जब 1993 से 1998 तक थी तब उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना से तल्खी खूब हुई. उसके बाद शीला दीक्षित की सरकार के वक्त उपराज्यपाल विजय कपूर से भी कई मसलों पर सरकार की खूब किचकिच हुई.

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तो फिर रास्ता क्या है

आखिरकार सवाल अब ये कि दिल्ली को विशेष दर्जा क्यों? क्यों बाकी राज्यों की तर्ज पर यहां भी चुनी हुई सरकार को तमाम शक्तियां नहीं दे दी जाती हैं. तो केंद्र का तर्क ये होता है कि दिल्ली देश की राजधानी है? इसलिए यहां की सुरक्षा व्यवस्था से लेकर बाकी जिम्मेदारियों में केंद्र की भूमिका को नजर अंदाज़ नहीं किया जा सकता.

हां, ये सवाल जरुर है कि ये दखलअंदाजी कितनी होनी चाहिए इसपर बहस भी जरुरी है. लेकिन बहस ऐसी न हो कि सिर्फ तू-तू, मैं-मैं बन जाए. बल्कि सकारात्मक बहस हो जिससे दिल्ली वालों के फायदे के लिए कुछ निकले. और शायद यही वज़ह है कि जब दिल्ली के उपराज्यपाल ने सभी अधिकारियों को ये फरमान सुना दिया है कि वो पिछले डेढ़ साल में लिए गए फैसलों की समीक्षा करें तभी तमाम झगड़ों के बावजूद सिसोदिया जंग मुलाकात ये उम्मीद तो जगाते हैं कि आखिरकार दोनों पक्ष साथ बैठें और दिल्ली को अखाड़ा बनाने की बजाए मिल जुल कर विकास की नगरी बनाएं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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