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समाज

फेल है सम और विषम फॉर्मूला, लेकिन मौजूद हैं 9 समाधान

    • गिरिजेश वशिष्ठ
    • Updated: 11 दिसम्बर, 2015 01:13 PM
  • 11 दिसम्बर, 2015 01:13 PM
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दिल्ली में वायु प्रदूषण रोकने के लिए सरकार का जो तरीका है वह नौकरशाही के आलस्‍य का ही सबूत है. वह कई दूसरे तरीके अपना सकती है, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

वायु प्रदूषण रोकने के लिए दिल्ली सरकार ने तय किया है कि अब प्राइवेट कारें दिन बदल बदल कर चलेंगी. या तो सड़क पर सम संख्या की गाड़ियां आएंगी या विषम संख्या की. दुनिया में जहां भी ऐसे सम-विषम संख्या वाले नियम आए हैं वहां प्रतिबंध के बाद गाड़ियां खरीदने वालों की तादाद तेजी से बढ़ी है. अनुमान है कि दिल्ली में नया कानून शुरू होने के 6 महीने के भीतर ही यहां वाहनों की दादात दुगुनी हो जाएगी. अगर इस आंकड़े को एक तरफ रख भी दिया जाए तो 2000 में दिल्ली में वाहनों की संख्या 34,56,579 होती थी ये इस साल मार्च तक 84,75,371 हो चुकी थी. यानी आंकड़ा बताता है कि 15 साल में दिल्ली में कारें करीब ढाई गुना हो जाती हैं. तो 15 साल बाद ईवन ऑड के फार्मूले के बावजूद कारें फिर उतनी हो जाएंगी बल्कि इससे भी ज्यादा. तब सरकार क्या करेगी? आखिर हर चीज का समाधान सरकार और नौकरशाह मांग को खत्म करके ही क्यों निकालना चाहते हैं. आपूर्ति पर ध्यान क्यों नहीं होता? आखिर डिमांड मैनेजमेंट क्यों किया जाता है? सप्लाई मैनेजमेंट क्यों नहीं? ये तो तरक्की का नकारात्मक मॉडल हुआ. आप दिल्ली को पीछे कैसे ले जा सकते हैं?

अगर आप मुझसे पूछना चाहें तो मैं राशनिंग को सही समाधान नहीं मानता. इससे हो सकता है कि नौकरशाहों को फौरी राहत मिल जाए. उन्हें प्रबंध करने की जहमत न उठानी पड़े लेकिन इससे लोगों की दिक्कतों का हल नहीं निकलेगा. नौकरशाही के आलस्य के कारण देश के हर हिस्से में सिर्फ राशनिंग ही राशनिंग है. राशनिंग एक सरकारी बीमारी है जो भारत को नौकरशाहों की अकर्मण्यता की देन है. सड़क पर राशनिंग का ये शौक नया है. लेकिन ये भी स्थायी समाधान नहीं है. 10 साल से भी कम समय में गाड़ियां दुगुनी हो जाएगी यानी सम विषम का कायदा भी बेकार. बल्कि इससे वाहन खरीदने की रफ्तार बढ़ेगी. यानी ये समाधान भी सिर्फ 7-8 ज्यादा से ज्यादा 10 साल काम करेगा.

जब मैं ये तर्क रखता हूं तो दिल्ली सरकारी तत्व और सरकार के हमदर्द प्रदूषण के आंकड़े दिखाने शुरू कर देते हैं. दरअसल दिल्ली में जानलेवा प्रदूषण के पीछे भी ये राशनिंग...

वायु प्रदूषण रोकने के लिए दिल्ली सरकार ने तय किया है कि अब प्राइवेट कारें दिन बदल बदल कर चलेंगी. या तो सड़क पर सम संख्या की गाड़ियां आएंगी या विषम संख्या की. दुनिया में जहां भी ऐसे सम-विषम संख्या वाले नियम आए हैं वहां प्रतिबंध के बाद गाड़ियां खरीदने वालों की तादाद तेजी से बढ़ी है. अनुमान है कि दिल्ली में नया कानून शुरू होने के 6 महीने के भीतर ही यहां वाहनों की दादात दुगुनी हो जाएगी. अगर इस आंकड़े को एक तरफ रख भी दिया जाए तो 2000 में दिल्ली में वाहनों की संख्या 34,56,579 होती थी ये इस साल मार्च तक 84,75,371 हो चुकी थी. यानी आंकड़ा बताता है कि 15 साल में दिल्ली में कारें करीब ढाई गुना हो जाती हैं. तो 15 साल बाद ईवन ऑड के फार्मूले के बावजूद कारें फिर उतनी हो जाएंगी बल्कि इससे भी ज्यादा. तब सरकार क्या करेगी? आखिर हर चीज का समाधान सरकार और नौकरशाह मांग को खत्म करके ही क्यों निकालना चाहते हैं. आपूर्ति पर ध्यान क्यों नहीं होता? आखिर डिमांड मैनेजमेंट क्यों किया जाता है? सप्लाई मैनेजमेंट क्यों नहीं? ये तो तरक्की का नकारात्मक मॉडल हुआ. आप दिल्ली को पीछे कैसे ले जा सकते हैं?

अगर आप मुझसे पूछना चाहें तो मैं राशनिंग को सही समाधान नहीं मानता. इससे हो सकता है कि नौकरशाहों को फौरी राहत मिल जाए. उन्हें प्रबंध करने की जहमत न उठानी पड़े लेकिन इससे लोगों की दिक्कतों का हल नहीं निकलेगा. नौकरशाही के आलस्य के कारण देश के हर हिस्से में सिर्फ राशनिंग ही राशनिंग है. राशनिंग एक सरकारी बीमारी है जो भारत को नौकरशाहों की अकर्मण्यता की देन है. सड़क पर राशनिंग का ये शौक नया है. लेकिन ये भी स्थायी समाधान नहीं है. 10 साल से भी कम समय में गाड़ियां दुगुनी हो जाएगी यानी सम विषम का कायदा भी बेकार. बल्कि इससे वाहन खरीदने की रफ्तार बढ़ेगी. यानी ये समाधान भी सिर्फ 7-8 ज्यादा से ज्यादा 10 साल काम करेगा.

जब मैं ये तर्क रखता हूं तो दिल्ली सरकारी तत्व और सरकार के हमदर्द प्रदूषण के आंकड़े दिखाने शुरू कर देते हैं. दरअसल दिल्ली में जानलेवा प्रदूषण के पीछे भी ये राशनिंग की सोच और डिमांड को टालने या कम करने की सोच है. सप्लाई की योजनाएं बनती भी हैं तो नौकरशाहों के निजी स्वार्थ, आलस्य और काहिली के कारण ठंडे बस्ते में चली जाती हैं. दिल्ली के ट्रेफिक को कम करने के लिए आसपास के राज्यों को सीधे तेज रफ्तार सड़कों से जोड़ना था लेकिन ये काम इतनी कमजोर रफ्तार से हुआ कि कछुआ भी जीत जाए.

कार कैलेंडर बनाने और सम-विषम योजना लाने के पक्षधर लोग जर्मनी की राजधानी बर्लिन का उदाहरण देते हैं. लेकिन बर्लिन में जितना काम हुआ है और जिस स्तर की नागरिक सुविधाएं जुटाई गई हैं उसका नाम मात्र भी दिल्ली में नहीं हुआ. एक बानगी देखिए...

सिर्फ 35 लाख की आबादी वाले बर्लिन में हर साल 40 करोड़ लोगों को लाने ले जाने वाली रेपिड ट्रांजिट रेल व्यवस्था जर्मनी की सेवा में हमेशा तैनात रहती है. 50 करोड़ लोग अंडरग्राउंड तेज रफ्तार रेल गाड़ियों से हर साल यात्रा करते हैं वीकेंड में ये सेवा 24 घंटे चलती हैं. करीब 19 करोड़ लोग कदम बढ़ाकर कभी भी ट्राम में चढ़ और उतर सकते हैं. 41 करोड़ मुसाफिरों के पास बस से चलने की सुविधा है. इसके अलावा बर्लिन में लोग धार्मिक आयोजनों में सड़कें खराब नहीं करते. वहां न तो कांवड़ियों के कैंप लगाकर रास्ते जाम करते हैं, न राम बारात निकलती है, न सड़कों पर नमाज पढ़ी जाती है, न मुहर्रम के जुलूस निकाले जाते हैं, न नगर कीर्तन निकलते है न कोई और तमाशा. बर्लिन में 60 फीसदी आबादी नास्तिक है. यहां सरकारें धार्मिक मामलों में ही डूबी रहती है.

अब भी वक्त है. दिल्ली में सरकार कई दूसरे तरीके अपनाकर अभी भी ऐसे रास्ते अपना सकती है जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. कई तरीके हो सकते हैं जो आसानी से अपनाए जा सकते हैं. उदाहरण के तौर पर...

1. अलग दिन अलग अलग तरह के दफ्तरों की साप्ताहिक छुट्टी हो सकती है. जैसे आईटी उद्योग का साप्ताहिक अवकाश रविवार और सोमवार हो तो कोई और इंडस्‍ट्री मंगल और बुधबार को बंद रहे. भारत में रविवार की छुट्टी औचित्यहीन है क्योंकि ईसाई देशों की तरह यहां सभी को रविवार चर्च नहीं जाना होता. अग्रेज़ों के लिए ये दिन मुफीद बैठता था.

2. दफ्तरों के लगने का समय भी बदला जा सकता है. कुछ दफ्तर सुबह 7 बजे शुरू हों और कुछ 8 बजे तो कुछ 9 बजे तो कुछ 10 बजे वापस लौटने का समय इसी क्रम में बदल दिया जाए.

3. सभी कार्यालयों में अनिवार्य रूप से 5 दिन का सप्ताह हो. यानी 5 डे वीक. इसके साथ ही 15 फीसदी के करीब दबाव सीधे सड़कों से कम हो जाएगा.

4. व्यावसायिक गतिविधियों को शहर के बाहर ले जाने का काम तेज़ी से हो. पुरानी दिल्ली से कागज मंडी को शहर से बाहर ले जाने का काम सालों से अटका पड़ा है ये काम जल्दी किया जाए. सिर्फ 15 दिन की मियाद में इसे शिफ्ट किया जा सकता है क्यों कि नयी जगह पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार है. ट्रांसपोर्ट नगर भी शहर के बाहर हो. माल की आमदरफ्त छोटी गाड़ियों के जरिये रात को हो. ट्रक माल बाहर उतार दें. 

5. एनसीआर प्लान को पूरी तरह लागू करने के लिए समय सीमा तय हो. अक्सर मुख्यमंत्रियों की व्यस्तता के कारण बोर्ड की बैठक नहीं हो पाती. इसे अनिवार्य किया जाए. हर महीने एक बैठक हो ताकि काम को समय पर रफ्तार दी जा सके. 

6. दिल्ली और आसपास के शहरों के बीच बिना वजह की अड़चनें हटाई जाएं. टोल तलाशी और प्रदूषण कर वसूलने जैसी बकवास चीजें लोगों को दिल्ली में रहने के लिए मजबूर करती हैं. 

7. साइकिल के लिए जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है वहां उसे मुक्त कराया जाए और साइकिलिंग करने वालों को बढ़ावा मिले, साइकिल स्टैंड मुफ्त और सुरक्षित हों. अब तो मेट्रो भी साइकिलिंग के लिये टिकट लगाने लगी है.

8. कार खरीदने के लिए आधारकार्ड अनिवार्य हो और बायोलॉजिकल आइडेंटिटी से एक व्यक्ति के लिए एक वाहन खरीदने की अनुमति ही हो. अगर मोटर साइकिल है तो कार तब तक न मिले जब तक मोटरसाइकिल नहीं बेच दी जाती.

9. शेयर टैक्सी को बढ़ावा दिया जाए. अब तक शेयर ऑटो और शेयर टैक्सी जैसे माध्यमों के सरकार बढ़ावा नहीं देती बल्कि ऐसे संसाधनों को हतोत्साहित किया जा सकता है.

संदेश यही है कि समस्या का समाधान करो. समस्या को छोटा करके उसे टाला तो जा सकता है लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता. केजरीवाल अगर सचमुच कुछ करना चाहते हैं तो नौकरशाही के चंगुल से बाहर निकलें, कुछ सकारात्मक सोचें.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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