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मोदी-शाह को हैंडल करना RSS के लिए अटल-आडवाणी से मुश्किल होगा

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 03 जून, 2019 06:32 PM
  • 03 जून, 2019 06:32 PM
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NDA की पहली सरकार में माना जाता था कि वाजपेयी और आडवाणी के सख्त रवैये के चलते RSS की बहुत चल नहीं पाती थी. मोदी-शाह की जोड़ी तो गठबंधन भी नहीं बल्कि अपने बूते सत्ता में लौटी है - फिर तो मुश्किल होनी ही है.

देश में जहां कहीं भी बीजेपी चुनाव लड़ती है, RSS चट्टान की तरह पीछे खड़ा होता है. चुनावों के दौरान बीच बीच में बीजेपी नेतृत्व और संघ के बीच अहम मुद्दों पर चर्चाएं भी होती रहती हैं - और जब भी जरूरत पड़ती है, संघ सलाहियत भी जारी करता है जिस पर बीजेपी नेता लगभग आंख मूंद कर अमल भी करते सुने जाते हैं. हालांकि, संघ की ओर से मौके बे मौके साफ किया जाता रहा है कि बीजेपी के मामलों में संघ की कोई दखल नहीं होती.

संघ की दखल और फिर पीछे हट जाने की एक खबर आयी है मोदी कैबिनेट 2.0 के गठन के बीच से. मामला दिलचस्प इसलिए हो जा रहा है क्योंकि इस वाकये में नितिन गडकरी का नाम सामने आया है. नितिन गडकरी की संघ प्रमुख मोहन भागवत से करीबी तो जग जाहिर है ही - लेकिन मोदी मंत्रिमंडल के गठन के दौरान जो कुछ हुआ है वो भविष्य में मौजूदा बीजेपी नेतृत्व और RSS के रिश्तों की ओर ही इशारा करता है.

जब आगाज ऐसा है तो आगे क्या हाल होगा?

खबर है कि वित्त मंत्री के लिए संघ की पहली पसंद नितिन गडकरी थे - लेकिन अरुण जेटली की जगह मिली मोदी सरकार 1 में रक्षा मंत्री रहीं निर्मला सीतारमन को.

चुनाव से पहले नितिन गडकरी बीजेपी की मोदी विरोधी लॉबी और संघ के एक खेमे के समर्थन के कारण कई बार चर्चा में रहे. कई बार तो ऐसा लगा जैसे नितिन गडकरी संघ के प्लान-बी का हिस्सा हों. ऐसा लगा जैसे विशेष परिस्थितियों में अगर नरेंद्र मोदी कमजोर पड़े तो संघ प्रधानमंत्री पद के लिए नितिन गडकरी का नाम आगे बढ़ा देगा. मगर, ऐसा कुछ न हुआ और न आगे कुछ साल तक ऐसी कोई संभावना ही नजर आ रही है. जब 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार हुई तो नितिन गडकरी ने इशारों में ही सही बीजेपी नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह को निशाना बनाया था. मामला अंदर ही अंदर तूल तो काफी पकड़ा था, लेकिन चुनाव नतीजों ने सब नेस्तनाबूद कर दिया. नितिन गडकरी की संघ से करीबी सिर्फ हवा हवाई नहीं है बल्कि काफी मजबूत है.

अगर अमित शाह को कैबिनेट में शामिल नहीं होना होता, अरुण जेटली की...

देश में जहां कहीं भी बीजेपी चुनाव लड़ती है, RSS चट्टान की तरह पीछे खड़ा होता है. चुनावों के दौरान बीच बीच में बीजेपी नेतृत्व और संघ के बीच अहम मुद्दों पर चर्चाएं भी होती रहती हैं - और जब भी जरूरत पड़ती है, संघ सलाहियत भी जारी करता है जिस पर बीजेपी नेता लगभग आंख मूंद कर अमल भी करते सुने जाते हैं. हालांकि, संघ की ओर से मौके बे मौके साफ किया जाता रहा है कि बीजेपी के मामलों में संघ की कोई दखल नहीं होती.

संघ की दखल और फिर पीछे हट जाने की एक खबर आयी है मोदी कैबिनेट 2.0 के गठन के बीच से. मामला दिलचस्प इसलिए हो जा रहा है क्योंकि इस वाकये में नितिन गडकरी का नाम सामने आया है. नितिन गडकरी की संघ प्रमुख मोहन भागवत से करीबी तो जग जाहिर है ही - लेकिन मोदी मंत्रिमंडल के गठन के दौरान जो कुछ हुआ है वो भविष्य में मौजूदा बीजेपी नेतृत्व और RSS के रिश्तों की ओर ही इशारा करता है.

जब आगाज ऐसा है तो आगे क्या हाल होगा?

खबर है कि वित्त मंत्री के लिए संघ की पहली पसंद नितिन गडकरी थे - लेकिन अरुण जेटली की जगह मिली मोदी सरकार 1 में रक्षा मंत्री रहीं निर्मला सीतारमन को.

चुनाव से पहले नितिन गडकरी बीजेपी की मोदी विरोधी लॉबी और संघ के एक खेमे के समर्थन के कारण कई बार चर्चा में रहे. कई बार तो ऐसा लगा जैसे नितिन गडकरी संघ के प्लान-बी का हिस्सा हों. ऐसा लगा जैसे विशेष परिस्थितियों में अगर नरेंद्र मोदी कमजोर पड़े तो संघ प्रधानमंत्री पद के लिए नितिन गडकरी का नाम आगे बढ़ा देगा. मगर, ऐसा कुछ न हुआ और न आगे कुछ साल तक ऐसी कोई संभावना ही नजर आ रही है. जब 2018 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार हुई तो नितिन गडकरी ने इशारों में ही सही बीजेपी नेतृत्व यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह को निशाना बनाया था. मामला अंदर ही अंदर तूल तो काफी पकड़ा था, लेकिन चुनाव नतीजों ने सब नेस्तनाबूद कर दिया. नितिन गडकरी की संघ से करीबी सिर्फ हवा हवाई नहीं है बल्कि काफी मजबूत है.

अगर अमित शाह को कैबिनेट में शामिल नहीं होना होता, अरुण जेटली की सेहत दुरूस्त रहती और सुषमा स्वराज मंत्री पद लेने से इंकार नहीं करतीं तो मोदी कैबिनेट के अहम विभागों में बहुत ही कम फेरबदल की नौबत आती. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अमित शाह का गृह प्रवेश पक्का था इसलिए राजनाथ सिंह का भी हटना तय था. मगर, राजनाथ सिंह गृह मंत्रालय छोड़ने को राजी न थे. चूंकि राजनाथ सिंह को CCS यानी सुरक्षा मामलों की उच्च स्तरीय कमेटी में रखना ही था इसलिए उन्हें रक्षा मंत्रालय भेजा गया. रक्षा मंत्रालय पहले निर्मला सीतारमन के पास था.

मोदी-शाह का ताकतवर होना RSS के लिए कैसा होगा?

बताते हैं संघ का सुझाव था कि नितिन गडकरी को वित्त मंत्री बनाया जाये - लेकिन जब आम राय नहीं बन पायी तो आखिरी फैसला प्रधानमंत्री मोदी (स्वाभाविक है - और शाह भी) पर छोड़ दिया गया. प्रधानमंत्री मोदी वित्त मंत्रालय के लिए पहले से ही निर्मला सीतारमन का नाम फाइनल कर चुके थे. कहा जा रहा है कि खुद अरुण जेटली ने ही वित्त मंत्रालय के लिए निर्मला सीतारमन का नाम सुझाया था - और मोदी को बात जंच गयी.

2017 के यूपी चुनाव में जीत के आर्किटेक्ट तो अमित शाह ही थे, लेकिन लोग वोट प्रधानमंत्री के ही फेस वैल्यू पर बीजेपी को दिये थे. तब मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ भी संघ की पसंद बताये जाते हैं. वरना, मनोज सिन्हा तो घर से लेकर बनारस तक मंदिरों में मत्था टेक ही चुके थे - अभी तो आलम ये है कि वो अपनी गाजीपुर सीट से लोक सभा चुनाव भी हार चुके हैं.

2014 के बाद 2017 और अब तो 2019 आ चुका है - अब तो मोदी-शाह की जोड़ी को देश का मैंडेट मिल चुका है. वो भी मामूली नहीं बल्कि भारी बहुमत के साथ. जाहिर से अब बीजेपी नेतृत्व को मनमानी का हक तो बनता ही है - संघ जो बाहर कहता है वही उसे अंदर से भी स्वीकार करना होगा. नितिन गडकरी के मामले में संघ का पीछे हट जाना ही बड़ा संकेत है.

ये तो शुरुआत है - आगे चल कर तो संघ को काफी सोच समझ कर ही कोई सलाह देनी होगी. संघ के पक्ष में फिक्र न करने वाली एक ही महत्वपूर्ण बात है वो ये कि देश के ज्यादातर उच्च पदों पर संघ के प्रशिक्षित लोग ही आसीन हैं.

मोदी-शाह काफी आगे हैं अटल-आडवाणी से?

2014 का आम चुनाव बीजेपी ने राजनाथ सिंह के नेतृत्व में लड़ा था, लेकिन 2019 आते आते कमान पूरी तरह अमित शाह के हाथ में आ गयी. ये तो है कि पांच साल पहले बीजेपी ने राजनाथ सिंह के अध्यक्ष रहते केंद्र की सत्ता पर कब्जा किया, लेकिन इन्हीं पांच साल में पार्टी ने अमित शाह की अगुवाई में न सिर्फ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनी बल्कि देश के ज्यादातर राज्यों में भगवा भी लहरा दिया.

2013 में ये राजनाथ सिंह ही रहे जिन्होंने ने मौके की नजाकत को पहले ही पढ़ लिया और गोवा कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी को नंबर 1 और अपनी नंबर 2 की हैसियत घोषित कर दी. ये कुछ कुछ वैसा ही हुआ था जैसे एक दौर में गोवा की ही जमीन पर लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी सीमा और वाजपेयी का बड़ा कद स्वीकार करते हुए खुद को नंबर 2 और वाजपेयी को नंबर 1 घोषित कर दिया था.

2014 में जब सरकार बनी तो पांच साल तक राजनाथ सिंह नंबर दो रहे भी - लेकिन अब उस जगह अमित शाह का कब्जा हो चुका है. राजनाथ सिंह तीसरे नंबर पर पहुंच चुके हैं. राजनाथ ने सियासी कदम तो आडवाणी जैसा ही उठाया था लेकिन उनके उत्तराधिकारी नहीं बन पाये. यहां तक कि गांधीनगर से अमित शाह के नामांकन में ही राजनाथ सिंह ने अमित शाह को आडवाणी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था - फिर तो तय था सरकार में भी समीकरण बदलने वाले हैं.

बीजेपी में आडवाणी को लौह पुरुष के रूप में पेश किया जाता था. गुजरात से कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि के दिल्ली पहुंचे नरेंद्र मोदी ने भी शुरू में आडवाणी जैसे ही तेवर दिखाये लेकिन नाम वो सरदार वल्लभ भाई पटेल का ही लेते रहे. पांच साल प्रधानमंत्री रहने के दौरान हो सकता है मोदी को लगा हो कि वाजपेयी जैसी सबके बीच स्वीकार्यता हासिल करनी जरूरी है. अपनी दूसरी पारी में NDA का नेता चुने जाने के बाद मोदी ने इस बात का भी एहसास दिलाया कि वो वाजपेयी और नेहरू जैसे स्टेट्समैन का रूतबा हासिल करना चाहते हैं.

अल्पसंख्यकों का दिल जीतने की कोशिश वाली बातें तो यही इशारा करती हैं. जब मोदी, वाजपेयी जैसा बनने की कोशिश में हों तो स्वाभाविक है लौह पुरुष वाली आडवाणी की जगह अमित शाह झटक ही लेंगे. फिर तो राजनाथ सिंह को पिछड़ना ही था.

बाकी बातें अपनी जगह ये भारतीय राजनीति के उस रास्ते की ओर इशारा कर रहा है जहां मोदी-शाह पंचायत से पार्लियामेंट तक बीजेपी का झंडा फहराने के मिशन में जुटे हैं - और तब तक संघ को भी मूकदर्शक बन कर ताली बजाते रहना होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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