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बीजेपी के राष्ट्रपति चुनाव अभियान से जवाब मिलता है कि मोदी-शाह को हराना मुश्किल क्यों है

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 09 जुलाई, 2022 08:39 PM
  • 09 जुलाई, 2022 08:39 PM
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द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu Campaign) की जीत सौ फीसदी पक्की है, लेकिन ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) की नये मिजाज वाली बीजेपी है कि कैंपेन में कहीं कोई ढिलाई नहीं बरत रही है - जबकि चैलेंज करने की तैयारी से पहले ही विपक्ष ढेर हो चुका है.

राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu Campaign) की जीत बिलकुल पक्की है, फिर भी बीजेपी का चुनाव कैंपेन वैसे ही चल रहा है जैसे सामान्य स्थिति या कहें कि प्रतिकूल परिस्थितियों में चलना चाहिये - जैसे कोई कसर बाकी नहीं रखने की कोशिश हो, जैसे चूक की कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़नी हो.

ये तब भी हो रहा है जबकि विपक्ष की तरफ से ममता बनर्जी भी द्रौपदी मुर्मू की जीत पर मुहर लगा चुकी हैं, फिर भी बीजेपी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ रही - क्योंकि नयी बीजेपी को शाइनिंग इंडिया जैसे कैंपेन में यकीन नहीं रह गया है. 2004 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की हार की कई वजहों में से एक बीजेपी का शाइनिंग इंडिया कैंपेन भी माना जाता है.

ये मोदी-शाह की बीजेपी है. अब बीजेपी हर वक्त अलर्ट मोड में रहती है. सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. असल में तत्कालीन बीजेपी नेतृत्व वाजपेयी की सत्ता वापसी वैसे ही सुनिश्चित मान कर चल रहा था जैसे अभी द्रौपदी मुर्मू की जीत को लेकर फिलहाल हर कोई आश्वस्त है.

अप्रत्यक्ष चुनावों में ज्यादातर हार जीत गणित के हिसाब से ही तय होती है. प्रत्यक्ष चुनाव में सब कुछ जनता के मूड पर निर्भर करता है. आखिरी वक्त में भी किसी भी वजह से मूड बदल गया तो धारा उलटी दिशा में बहने लगती है.

राजनीति में गणित कई बार गड़बड़ भी हो जाती है, लेकिन वो इस बात पर निर्भर करता है कि कौन किस छोर पर खड़ा है. क्रॉस वोटिंग का डर सबको होता है, लेकिन बीजेपी के साथ फिलहाल ऐसी स्थिति तो कहीं नहीं लगती है. हां, विपक्ष के साथ ये स्थिति हर जगह बनी हुई है. महाराष्ट्र में सत्ता बदलने से पहले हुए राज्य सभा और विधान परिषद चुनाव में तो हार जीत का आधार भी क्रॉस वोटिंग ही रही.

राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu Campaign) की जीत बिलकुल पक्की है, फिर भी बीजेपी का चुनाव कैंपेन वैसे ही चल रहा है जैसे सामान्य स्थिति या कहें कि प्रतिकूल परिस्थितियों में चलना चाहिये - जैसे कोई कसर बाकी नहीं रखने की कोशिश हो, जैसे चूक की कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़नी हो.

ये तब भी हो रहा है जबकि विपक्ष की तरफ से ममता बनर्जी भी द्रौपदी मुर्मू की जीत पर मुहर लगा चुकी हैं, फिर भी बीजेपी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ रही - क्योंकि नयी बीजेपी को शाइनिंग इंडिया जैसे कैंपेन में यकीन नहीं रह गया है. 2004 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की हार की कई वजहों में से एक बीजेपी का शाइनिंग इंडिया कैंपेन भी माना जाता है.

ये मोदी-शाह की बीजेपी है. अब बीजेपी हर वक्त अलर्ट मोड में रहती है. सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. असल में तत्कालीन बीजेपी नेतृत्व वाजपेयी की सत्ता वापसी वैसे ही सुनिश्चित मान कर चल रहा था जैसे अभी द्रौपदी मुर्मू की जीत को लेकर फिलहाल हर कोई आश्वस्त है.

अप्रत्यक्ष चुनावों में ज्यादातर हार जीत गणित के हिसाब से ही तय होती है. प्रत्यक्ष चुनाव में सब कुछ जनता के मूड पर निर्भर करता है. आखिरी वक्त में भी किसी भी वजह से मूड बदल गया तो धारा उलटी दिशा में बहने लगती है.

राजनीति में गणित कई बार गड़बड़ भी हो जाती है, लेकिन वो इस बात पर निर्भर करता है कि कौन किस छोर पर खड़ा है. क्रॉस वोटिंग का डर सबको होता है, लेकिन बीजेपी के साथ फिलहाल ऐसी स्थिति तो कहीं नहीं लगती है. हां, विपक्ष के साथ ये स्थिति हर जगह बनी हुई है. महाराष्ट्र में सत्ता बदलने से पहले हुए राज्य सभा और विधान परिषद चुनाव में तो हार जीत का आधार भी क्रॉस वोटिंग ही रही.

द्रौपदी मुर्मू के लखनऊ दौरे के बाद तो साफ साफ समझ में आने लगा है कि कैसे बीजेपी विपक्षी खेमे के लोगों को भी साथ लाने की कोशिश कर रही है - और योगी आदित्यनाथ के बाद दिल्ली में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के डिनर का मकसद भी तो 'परिंदा भी पर न मार सके' जैसा इंतजाम करना ही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और उनके कैबिनेट साथी सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह (Amit Shah) के नेतृत्व वाली नयी भारतीय जनता पार्टी को चुनावी मशीन यूं नहीं माना जाता है - ये बात बीजेपी नेतृत्व के हर एक्शन में कदम कदम पर साफ साफ झलक रहा होता है, राष्ट्रपति चुनाव अभियान में भी उसी की झलक दिखायी दे रही है.

बीजेपी और विपक्ष के कैंपेन में बड़ा फर्क है

देश का विपक्ष मोदी-शाह और बीजेपी को चैलेंज करने के लिए खड़ा होने से पहले ही थक कर क्यों बैठ जाता है? ये ठीक है कि बीजेपी न तो संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद करने जैसे आरोपों की परवाह करती है, न ही ऑपरेशन लोटस के जरिये राजनीतिक विरोधियों की सरकार गिराने से ही परहेज करती है - लेकिन विपक्ष ऐसी तोहमत लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले तब तो हो चुकी राजनीति.

जीत पक्की है तो भी जोखिम उठाने को तैयार नहीं - ये है मोदी-शाह की बीजेपी

अब तो ये भी नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी राजनीतिक तौर पर इतनी समृद्ध हो चुकी है कि न तो उसे दबाव में लाया जा सकता है, न घेर कर मजबूर किया जा सकता है - अगर स्थिति वाकई ऐसी ही होती तो बीजेपी को नुपुर शर्मा केस में बैकफुट जाने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बचाव की मुद्रा अपनाने की जरूरत नहीं होती. नुपुर शर्मा और नवीन जिंदल की तरह बीजेपी के आईटी सेल के हेड की पोस्ट से अरुण यादव को हटाने की जरूरत नहीं पड़ती.

राष्ट्रपति चुनाव से बेहतर तो विपक्ष के लिए एकजुट होने का मौका कोई हो भी नहीं सकता. कम से कम प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर कोई टकराव की नौबत तो नहीं हो सकती. कौन बनेगा प्रधानमंत्री - विपक्ष के बिखरे रहने के लिए सबसे बड़ी बाधा साबित होता रहा है, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में तो पहले से ही आम राय बन गयी थी कि उम्मीदवार तो एक ही होगा. हुआ भी. शुरू में ऐसा जरूर लगा कि ममता बनर्जी कांग्रेस से अलग लाइन ले सकती हैं, लेकिन गांधी परिवार के मुश्किल में पड़ जाने से वो अड़चन भी खत्म हो गयी.

हालत ये है कि एनडीए की उम्मीदनवार द्रौपदी मुर्मू हर राज्य का दौरा कर रही हैं और पार्टीलाइन से इतर सबका साथ मांग रही हैं, लेकिन यशवंत सिन्हा के लिए तो पश्चिम बंगाल जाना भी मुनासिब नहीं हो रहा है जहां तृणमूल कांग्रेस की ही सरकार है - और झारखंड भी नहीं जा रहे जो उनका गृह राज्य है.

द्रौपदी मुर्मू के साथ बीजेपी का पूरा अमला मजबूती के खड़ा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ साथ जेपी नड्डा भी मोर्चा संभाले हुए हैं - और जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहां के मुख्यमंत्री भी अपनी तरफ से बेस्ट रिजल्ट देने के लिए लगातार प्रयासरत हैं.

यशंवत सिन्हा को तो ममता बनर्जी ने बंगाल बुला कर पूरे देश में 'एकला चलो' का रास्ता अख्तियार करने के लिए छोड़ दिया है. बेशक शरद पवार, यशवंत सिन्हा के सपोर्ट में खड़े हैं, लेकिन ममता बनर्जी का पीछे हट जाना तो ज्यादा ही भारी पड़ रहा होगा.

ममता बनर्जी ने तो ये कह कर पहले ही घुटने टेक दिये थे कि द्रौपदी मुर्मू की जीत के चांस हैं, जबकि यशवंत सिन्हा अपनी तरफ से प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार को कठघरे में खड़ा करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ रहे हैं.

एक प्रेस कांफ्रेंस में यशवंत सिन्हा कहते हैं, 'मैं कई जगहों पर पूछता हूं कि द्रौपदी जी कहीं गईं तो क्या उन्होंने कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की? देश की जो स्थिति है, उस पर कुछ बोला? आर्थिक स्थिति जो है देश की उस पर क्या ख्याल हैं? भारत की जो विदेश नीति है, उस पर उनके ख्याल क्या हैं? समाज में जो कुछ हो रहा है, उन पर उनके विचार क्या हैं?'

और फिर पूछते हैं, 'हम यह जानना चाहेंगे कि क्या वो मेरी तरह शपथ लेने के लिए तैयार हैं? क्या वो संविधान की रक्षा के लिए तैयार हैं? या एक साइलेंट और खामोश राष्ट्रपति बन कर रह जाएंगी? भारत को आज खामोश राष्ट्रपति नहीं चाहिये... आज भारत को अपने विवेक का इस्तेमाल करने वाला राष्ट्रपति चाहिये.'

यशवंत सिन्हा का सवाल तो वाजिब है. हालांकि, राष्ट्रपति पद के अधिकारों की हदें भी सबको मालूम ही हैं. यशवंत सिन्हा के तेवर से तो ऐसा लगता है जैसे परिस्थितियां विशेष हों और वो राष्ट्रपति भवन पहुंच जायें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहले से ही विरोध के कारण स्थितियां अजीब भी हो सकती हैं.

देखा जाये तो ऐसी संभावना तब जरूर देखी जा रही होगी जब कांग्रेस की राजनीतिक पृष्ठभूमि से प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति भवन पहुंचे थे - और 2014 में बिलकुल विरोधी विचारधारा वाले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, लेकिन दोनों में कभी टकराव की बात कौन कहे वे तो अक्सर एक-दूसरे की तारीफ करते ही देखे गये.

हां, अगर यशवंत सिन्हा का इशारा अगर 1975 जैसी स्थिति की तरफ है तो सोचने वाली बात तो है ही. 1975 में देश में इमरजेंसी लागू की गयी थी - और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मिले क्रेडिट का कुछ हिस्सा तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को भी जाना ही चाहिये.

नड्डा ने सिर्फ डिनर पर नहीं बुलाया है!

राष्ट्रपति चुनाव में 18 जुलाई को वोट डाले जाएंगे - और उससे ठीक दो दिन पहले बीजेपी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की तरफ से डिनर की तैयारी चल रही है. डिनर तो बस बहाना है असल में तो ये चुनावी तैयारियों का वर्कशॉप और किसी समीक्षा बैठक जैसा ही है.

डिनर वाले दिन ही यानी 16 जुलाई को सभी सांसदों को दिल्ली पहुंचने का फरमान जारी कर दिया गया है. जाहिर है ये व्यवस्था बीजेपी के सहयोगी दलों के सांसदों के लिए भी मानी जाएगी. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि ये सांसदों की शत प्रतिशत मौजूदगी सुनिश्चित करने का ही एक तरीका है.

बताते हैं कि दिल्ली पहुंचने पर सांसदों को राष्ट्रपति चुनाव में वोटिंग को लेकर प्रजेंटेशन दिखाया जाएगा और एक ट्रेनिंग सेशन का भी आयोजन किया जा रहा है. पूरे आयोजन का मकसद वोटिंग की प्रक्रिया से जुड़ी छोटी से छोटी चीजों की जानकारी देना है - ताकि किसी भी तरह की चूक की कहीं कोई गुंजाइश न बचे.

ये हाल तब है जब विपक्षी खेमे की सत्ता वाले राज्य झारखंड से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपनी तरफ से द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के समर्थन की पहले से ही घोषणा कर चुके हैं. बीएसपी नेता मायावती और जेडीएस की तरफ से भी सपोर्ट की बात कही जा चुकी है. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक समर्थन देने में गर्व महसूस कर रहे हैं और एनडीए में न होकर भी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी भी साथ में खड़े हैं.

योगी ने मुर्मू के बहाने अखिलेश को झटका दिया: जेपी नड्डा के डिनर का नजारा कैसा होगा, लखनऊ में योगी आदित्यनाथ के भोज में उसकी झलक पहले ही देखी जा चुकी है - राष्ट्रपति चुनाव के बहाने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी गठबंधन में सेंध लगा डाली है.

लखनऊ के लोक भवन यानी मुख्यमंत्री कार्यालय में द्रौपदी मुर्मू का बीजेपी और सहयोगी दलों के नेताओं ने स्वागत किया और समर्थन का भरोसा दिया जिनमें अपना दल और निषाद पार्टी के नेता शामिल थे, लेकिन डिनर के दौरान तो अलग ही नजारा देखने को मिला.

योगी आदित्यनाथ के डिनर में सबसे खास मौजूगदी रही ओम प्रकाश राजभर और शिवपाल यादव की. ये दोनों ही नेता यूपी चुनाव में समाजवादी गठबंधन का हिस्सा रहे थे. शिवपाल यादव और अखिलेश यादव में तो चुनाव नतीजे आने के बाद से ही खटपट शुरू हो गयी थी, अब तो ओमप्रकाश राजभर भी साथ छोड़ देने का संकेत कौन समझे सबूत भी दे चुके हैं.

द्रौपदी मुर्मू से पहले यशवंत सिन्हा भी लखनऊ गये थे और अखिलेश यादव ने उनके साथ बैठ कर प्रेस कांफ्रेंस भी की थी, लेकिन उसमें ओमप्रकाश राजभर को नहीं बुलाया गया था. उसके बाद ही ओमप्रकाश राजभर ने कह दिया था कि कार्यकर्ताओं से बातचीत के बाद वो 12 जुलाई को अपना स्टैंड साफ करेंगे, लेकिन डिनर में शामिल होकर पहले ही इरादा साफ कर दिया है.

डिनर में जनसत्ता दल की तरफ से रघुराज प्रताप सिंह और बीएसपी के एकमात्र विधायक उमाशंकर सिंह भी पहुंचे थे. यूपी की 403 सदस्यों वाली विधानसभा में सहयोगी दलों सहित बीजेपी के फेवर में 273 सदस्‍य हैं, जबकि जनसत्ता दल के 2 और बीएसपी के पास एक विधायक है. शिवपाल यादव और ओमप्रकाश राजभर अपने छह विधायकों के साथ इसमें इजाफा ही कर रहे हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि माफिया मुख्तार अंसारी का बेटा अब्बास अंसारी विधायक है - देखते हैं वो वोट किधर जाता है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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