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सच्चे सफाई वीरों की भी सोच लो कोई ?

    • गिरिजेश वशिष्ठ
    • Updated: 13 अक्टूबर, 2019 08:20 PM
  • 13 अक्टूबर, 2019 07:31 PM
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पिछले 30-40 साल में इन रैगपिकर्स, या कूड़ा बीनने वाले या सफाई वीरों की बेहतरी के लिए क्या किया गया ? क्या किसी सरकार ने इनको बेहतर मॉस्क देने की कोशिश की. कुछ उपकरण देने की दिशा में प्रयास किया. इनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई काम किया ?

यहां आपके सामने दो तस्वीरें हैं. एक में प्रधानमंत्री मोदी एक साफ सुधरे समुद्र तट पर फैलाई गई बोतलों को उठाकर प्लास्टिक मुक्त भारत का संदेश दे रहे हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जो हर रोज़ यही काम करते हैं. प्रधानमंत्री की प्रेरणा है कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक जहां भी हो उसे खत्म किया जाए. एक तो लोग प्लास्टिक की पन्नी और बोतलों का इस्तेमाल न करें और दूसरा अगर करते हैं तो उसे कूड़े में न फेंके और अगर किसी ने फेंक दी है तो उसे उठाकर रिसायकिलिंग के लिए दे दें.

अब आपको लेकर चलते है प्रधानमंत्री के सिंगल यूज प्लास्टिक पर बयान के बाद पेट बॉटल इस्तेमाल करने वाली कंपनियों के विज्ञापन की ओर. इन कंपनियों का दावा है कि प्लास्टिक की 90 फीसदी बोतलें रिसाइकल हो जाती हैं. इसलिए पर्यावारण को इससे कोई खतरा नहीं है. इसी तरह पॉलीथीन भी कूड़ों के लैंडफिल साइट पर जाने से पहले 80 फीसदी तक चुन ली जाती हैं.

समझने की बात ये है कि ये प्लास्टिक का कचरा अलग कौन करता है और इतने बड़े स्तर पर समाज के प्लास्टिक की सफाई का काम कौन कर रहा है. ये काम वही लोग कर रहे हैं जो दूसरी तस्वीर में दिखाई दे रहे हैं. इन लोगों ने ही प्लास्टिक के चलन में आने के बाद से लगातार भारत को प्लास्टिक प्रदूषण से दूर रखने का काम किया है. आपके घर से कूड़ा निकलने के बाद सबसे पहले उन जगहों पर पहुंचता है जहां इसकी छंटाई होती है. दिल्ली की स्थानीय भाषा में इसे खत्ता कहते हैं. इन खत्तों पर लगातार बेहद स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्थितियों में कूड़ा बीनने वाले लोग काम करते रहते हैं और रीसायकिलिंग के काम की हर चीज अलग करते हैं. चाहे वो प्लास्टिक हो. धातुएं हों, कांच हो या कुछ और. इसके बाद कूड़ा लैंडफिल साइट पर चला जाता है. एक एक साइट पर पचास से सौ तक लोग कूड़ा बीनने का काम करते हैं. इनमें ज्यादातर या तो बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं या बंगाल और असम की सीमावर्ती इलाकों के गरीब लोग.

यहां आपके सामने दो तस्वीरें हैं. एक में प्रधानमंत्री मोदी एक साफ सुधरे समुद्र तट पर फैलाई गई बोतलों को उठाकर प्लास्टिक मुक्त भारत का संदेश दे रहे हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं जो हर रोज़ यही काम करते हैं. प्रधानमंत्री की प्रेरणा है कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक जहां भी हो उसे खत्म किया जाए. एक तो लोग प्लास्टिक की पन्नी और बोतलों का इस्तेमाल न करें और दूसरा अगर करते हैं तो उसे कूड़े में न फेंके और अगर किसी ने फेंक दी है तो उसे उठाकर रिसायकिलिंग के लिए दे दें.

अब आपको लेकर चलते है प्रधानमंत्री के सिंगल यूज प्लास्टिक पर बयान के बाद पेट बॉटल इस्तेमाल करने वाली कंपनियों के विज्ञापन की ओर. इन कंपनियों का दावा है कि प्लास्टिक की 90 फीसदी बोतलें रिसाइकल हो जाती हैं. इसलिए पर्यावारण को इससे कोई खतरा नहीं है. इसी तरह पॉलीथीन भी कूड़ों के लैंडफिल साइट पर जाने से पहले 80 फीसदी तक चुन ली जाती हैं.

समझने की बात ये है कि ये प्लास्टिक का कचरा अलग कौन करता है और इतने बड़े स्तर पर समाज के प्लास्टिक की सफाई का काम कौन कर रहा है. ये काम वही लोग कर रहे हैं जो दूसरी तस्वीर में दिखाई दे रहे हैं. इन लोगों ने ही प्लास्टिक के चलन में आने के बाद से लगातार भारत को प्लास्टिक प्रदूषण से दूर रखने का काम किया है. आपके घर से कूड़ा निकलने के बाद सबसे पहले उन जगहों पर पहुंचता है जहां इसकी छंटाई होती है. दिल्ली की स्थानीय भाषा में इसे खत्ता कहते हैं. इन खत्तों पर लगातार बेहद स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्थितियों में कूड़ा बीनने वाले लोग काम करते रहते हैं और रीसायकिलिंग के काम की हर चीज अलग करते हैं. चाहे वो प्लास्टिक हो. धातुएं हों, कांच हो या कुछ और. इसके बाद कूड़ा लैंडफिल साइट पर चला जाता है. एक एक साइट पर पचास से सौ तक लोग कूड़ा बीनने का काम करते हैं. इनमें ज्यादातर या तो बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं या बंगाल और असम की सीमावर्ती इलाकों के गरीब लोग.

सफाई की ये दो तस्वीरें देखिए और आपके मन में कुछ सवाल जरूर उठेंगे.

सारी जानकारी देने के बाद मैं ये जानना चाहता हूं कि पिछले 30-40 साल में इन रैगपिकर्स, या कूड़ा बीनने वाले या सफाई वीरों की बेहतरी के लिए क्या किया गया ? क्या किसी सरकार ने इनको बेहतर मॉस्क देने की कोशिश की. कुछ उपकरण देने की दिशा में प्रयास किया. इनके बच्चों की शिक्षा के लिए कोई काम किया ? नहीं किया तो क्यों नहीं किया ? क्या ये काम हज हाऊस बनाने, सैकड़ों खर्च करके दिवाली मनाने और कुभ का जश्न मनाने से ज्यादा ज़रूरी नहीं था.

इसके उलट इनके साथ हमेशा गलत ही हुआ. मैं जहां रहता हूं वहां के दस किलोमीटर के घेरे में कम से कम 10-15 खत्ते थे. ये काम प्लॉट को चारों तरफ से घेरकर किया जाता था. मोदी जी के स्वच्छ भारत इनीशियेटिव के बाद रामभक्त योगी सरकार ने इन सारे खत्तों को हटा दिया. ये सिर्फ कूड़ा नहीं बीनते थे, बल्कि मुफ्त में लोगों के घर से कूड़ा उठाते थे. मुफ्त इसलिए क्योंकि कूड़ा उठाने का इनको कुछ नहीं मिलता था, बल्कि हर घर से तीस से पचास रुपये बिचौलिए ले लिया करते थे. ये बिचौलिया कूड़ा इकट्ठा करने वालों को कूड़ा उठाने की इजाजत देता था. आम तौर पर ये बिचौलिया या तो सोसायटी का मेन्टेनेंस का काम करता था या वहां का सफाई ठेकेदार.

इंदिरापुरम इलाके में न तो नगर निगम नालियों की दैनिक सफाई करता न घरों से कूड़ा ले जाता. सफाई की सारी व्यवस्था इन्हीं लोगों के भरोसे है.

हाल के स्वच्छ भारत अभियान के बाद एक गाड़ी आने लगी है इसके लिए भी लोगों को सत्तर रुपये महीने चुकाने होंगे, जो बाद में हाऊस टैक्स में जुड़ जाएंगे. यानी आपको पास चूं चपड़ करने का कोई चांस ही नहीं होगा. कुल मिलाकर मोटा टैक्स वसूलने, उसके बाद हर सेवा के लिए अलग से लगान लेने और तरह तरह के करप्शन करने के बाद भी सरकार को जो काम स्वच्छता के लिए करना चाहिए, वो तो हो ही नहीं रहा. सरकार मतलब स्थानीय प्रशासन से लेकर केन्द्र सरकार तक.

अब आप सोचिए कि जिस सरकार को कुछ करना चाहिए वो इस मामले में निकम्मेपन की सारी सीमाएं पार कर रही है और सरकार का मुखिया अपना काम ठीक से करने के बजाय देश के लोगों को कह रहा है कि वो अपना कामकाज छोड़कर पन्नी बीनें, क्योंकि उनके अधीन लगान वसूलो सिस्टम फेल हो चुका है. अरबों की तनख्वाह लेने वाले नौकरशाह इस मामले में निकम्मे हैं. नेता आवाज नहीं उठाते और सिस्टम लूट में लगा है.

इसे गांधी जी का नाम दिया जा रहा है. गांधी जी दलित बस्तियों में जाते थे और लोगों को सफाई से रहना सिखाते थे . उनके पखाने साफ रखना सिखाते थे, ताकि वो बीमार न हों . उनकी बस्तियां साफ रखना सिखाते थे. यहां साफ सुधरे रह रहे लोगों को कूड़ा बीनने भेजा जा रहा है. जो आपनी जान पर खेलकर कूड़ा बीन रहे हैं उनकी बेहतरी के लिए कुछ नहीं हो रहा. न तो उनके लिए अच्छे दस्ताने हैं न मास्क हैं . न सरकार की तरफ से कोई दिशा निर्देश हैं. देश में 5 लाख से ज्यादा लोग स्वच्छता में लगे हैं और जो फोटो खिंचाने के लिए कोई और है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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