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विपक्ष को जीतने का मौका तो खुद मोदी-शाह की जोड़ी दे रही है

    • आईचौक
    • Updated: 28 मार्च, 2018 05:54 PM
  • 28 मार्च, 2018 05:54 PM
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उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों में सपा-बसपा के गठबंधन ने सुर्खियां बटोरीं लेकिन ऐसे उदाहरण और भी कई हैं. आंध्र-तेलंगाना की पार्टियां आपस में दोस्त नहीं हैं, लेकिन अपने राज्य को विशेष दर्जा देने की मांग के मामले में दोनों साथ खड़े हैं.

हाल के घटनाक्रमों को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी अगले संसदीय चुनावों में अपनी जीत की संभावनाओं के बारे में आश्वस्त नहीं रह सकते. हां ये सही है कि कुछ दिन पहले ही त्रिपुरा में उन्होंने एक शानदार जीत दर्ज की थी, लेकिन वहां सिर्फ दो संसदीय निर्वाचन क्षेत्र हैं. इसलिए वहां की जीत से उन्हें कोई खास फायदा होगा इसके आसार कम हैं. और बाकी सारी जगहों से उनके लिए कोई उत्साहजनक खबर नहीं आ रही है.

दिसंबर 2017 में बीजेपी ने बड़ी मशक्कत के बाद अपने गुजरात के गढ़ को बचाया था और 2018 में हुए 13 संसदीय और विधानसभा चुनावों में से एक को छोड़कर बाकी सारे पर हार का सामना करना पड़ा. जहां जहां इन्होंने सोचा था कि विपक्ष पर भारी पढ़ेंगे वहां वहां उन्हें मात मिली. फिर चाहे बिहार हो, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश. साथ ही ओडिशा और पश्चिम बंगाल में इन्हें अपनी जड़े और मजबूत करने की उम्मीद थी वहां भी निराशा ही हाथ लगी.

क्षेत्रीय और छोटे दलों का अपना पाला बदलने राजनीतिक हवा का रुख बदल सकता है. कई राज्यों से भाजपा के सहयोगी दलों ने या तो उनका साथ छोड़ दिया है या फिर पार्टी के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया है. यूपी की दो क्षेत्रीय पार्टियां जो कुछ समय पहले तक एकदुसरे की धुर विरोधी थी, उन्होंने एक दुसरे से हाथ मिला लिया है. अब एक संघीय मोर्चा बनाने के बारे में बात की जा रही है. और शरद पवार ने बीजेपी के खिलाफ गुटबंदी शुरू भी कर दी है.

मोदी लहर ने क्षेत्रीय पार्टियों पर कहर बरपाया तो अब वो एकजुट हो गए

हालांकि बोलने वाले तो मोदी के खिलाफ बन रहे गठबंधन को विपक्ष की निराशा और अवसरवादिता का नाम देंगे लेकिन भाजपा इसे हल्के में लेकर अपनी बर्बादी की राह ही प्रशस्त करेगी. 2014 के चुनावों में मोदी के पक्ष में माहौल बनाने और...

हाल के घटनाक्रमों को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी अगले संसदीय चुनावों में अपनी जीत की संभावनाओं के बारे में आश्वस्त नहीं रह सकते. हां ये सही है कि कुछ दिन पहले ही त्रिपुरा में उन्होंने एक शानदार जीत दर्ज की थी, लेकिन वहां सिर्फ दो संसदीय निर्वाचन क्षेत्र हैं. इसलिए वहां की जीत से उन्हें कोई खास फायदा होगा इसके आसार कम हैं. और बाकी सारी जगहों से उनके लिए कोई उत्साहजनक खबर नहीं आ रही है.

दिसंबर 2017 में बीजेपी ने बड़ी मशक्कत के बाद अपने गुजरात के गढ़ को बचाया था और 2018 में हुए 13 संसदीय और विधानसभा चुनावों में से एक को छोड़कर बाकी सारे पर हार का सामना करना पड़ा. जहां जहां इन्होंने सोचा था कि विपक्ष पर भारी पढ़ेंगे वहां वहां उन्हें मात मिली. फिर चाहे बिहार हो, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश. साथ ही ओडिशा और पश्चिम बंगाल में इन्हें अपनी जड़े और मजबूत करने की उम्मीद थी वहां भी निराशा ही हाथ लगी.

क्षेत्रीय और छोटे दलों का अपना पाला बदलने राजनीतिक हवा का रुख बदल सकता है. कई राज्यों से भाजपा के सहयोगी दलों ने या तो उनका साथ छोड़ दिया है या फिर पार्टी के खिलाफ बोलना शुरु कर दिया है. यूपी की दो क्षेत्रीय पार्टियां जो कुछ समय पहले तक एकदुसरे की धुर विरोधी थी, उन्होंने एक दुसरे से हाथ मिला लिया है. अब एक संघीय मोर्चा बनाने के बारे में बात की जा रही है. और शरद पवार ने बीजेपी के खिलाफ गुटबंदी शुरू भी कर दी है.

मोदी लहर ने क्षेत्रीय पार्टियों पर कहर बरपाया तो अब वो एकजुट हो गए

हालांकि बोलने वाले तो मोदी के खिलाफ बन रहे गठबंधन को विपक्ष की निराशा और अवसरवादिता का नाम देंगे लेकिन भाजपा इसे हल्के में लेकर अपनी बर्बादी की राह ही प्रशस्त करेगी. 2014 के चुनावों में मोदी के पक्ष में माहौल बनाने और लोकसभा क्षेत्रों में मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में क्षेत्रीय दलों ने अहम भूमिका निभाई थी. इसलिए उनका गठबंधन से बाहर जाना भाजपा के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है.

इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि क्षेत्रीय दलों का अपने क्षेत्रों से जुड़ाव बहुत ज्यादा होता है, ऐसे में इन पार्टियों द्वारा गैर बीजेपी गठबंधन के लिए उपलब्ध होना वोटरों के मूड में बदलाव के संकेत दे रहा है. तीन मुद्दों पर बीजेपी को घेरने की तैयारी चल रही है.

पहला- मोदी सरकार द्वारा बढ़ाचढ़ा कर किए दावों की पोल खोलना और "अच्छे दिन" के वादों का जुमला साबित होना. मोदी सरकार द्वारा अच्छे दिन के इस नारे की विफलता को ही हथियार बनाकर कांग्रेस पार्टी ने गुजरात चुनावों में सफलता हासिल की थी.

दूसरा- दूसरा मोदी सरकार द्वारा क्षेत्रों की अवहेलना करना और विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों के साथ अनुचित व्यवहार के लिए मोदी सरकार के साथी उनका साथ छोड़ रहे हैं. बीजेपी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव द्वारा संघीय मोर्चा की पहल के पीछे ये बहुत बड़ा कारण है.

तीसरा सत्तारूढ़ दल और सरकार के कामकाज के तरीके ने विपक्ष को एकजुट होने पर मजबूर कर दिया है. जैसे कि गठबंधन की पार्टियों से बिना किसी परामर्श के नोटबंदी का फैसला ले लिया गया था, विपक्षी नेताओं को परेशान किया जाना और राज्यों के चुनावों में बहुमत नहीं मिलने के बाद भी भाजपा/एनडीए की सरकारें बनाना और संवैधानिक और अन्य अधिकारियों के कामकाज में दखल देना. इन सभी ने विपक्ष को गठबंधन बनाने और अपने धुर विरोधियों से भी हाथ मिलाने के लिए मजबूर कर दिया है.

उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने सुर्खियां बटोरीं लेकिन ऐसे और भी कई हैं. आंध्रप्रदेश-तेलंगाना पार्टियां, हालांकि ये एकदूसरे के दोस्त नहीं हैं, लेकिन जहां तक राज्य को विशेष दर्जा देने की मांग है, तो दोनों ने साथ खड़े होने का फैसला कर लिया. केसीआर, ममता बनर्जी के साथ सांठगांठ में लगा है, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कांग्रेस के साथ खड़े होने का फैसला कर लिया है, और वामपंथी पार्टियों के नेताओं ने मुंबई में शरद पवार के संविधान बचाओ मार्च में कदम से कदम मिलाया. हालांकि ऐसा नहीं है कि इनमें से सारी पार्टियों में एक मजबूत गठबंधन बनाने की क्षमता है लेकिन फिर भी ये भाजपा को इस बात के संकेत देने के लिए काफी है कि आगे की डगर उनकी कठिन होने वाली है.

मोदी शाह की जोड़ी ने विपक्ष की धार को कुंद कर दिया है

हालांकि भाजपा अपने खिलाफ लगे आरोपों के बचाव के लिए तैयार होगी लेकिन फिर भी सच्चाई ये है कि सरकार द्वारा अपने काम ठीक से न कर पाना, क्षेत्रीय पार्टियों और मुद्दों की उपेक्षा और लोकतांत्रिक विरोधी दृष्टिकोण के आधार पर विपक्षी पार्टियां एकजुट हो रही हैं. और ऐसा क्यों हो रहा है के लिए मोदी-अमित शाह की जोड़ी को दोष देना चाहिए.

भाजपा के इन दो शीर्ष नेताओं ने अपने कांग्रेस-मुक्त भारत एजेंडे या सरकार में लंबे समय तक रहने की इच्छा को खुलकर व्यक्त किया है साथ ही न्यू इंडिया के तौर पर इसे पेश किया है. हालांकि राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन मोदी-शाह जोड़ी की अप्रोच गलत है. सत्ता में बने रहने की उनका जोर प्रदर्शन पर नहीं होता बल्कि हेडलाइन मैनेजमेंट पर, सुनियोजित तौर पर विपक्ष के खात्मे और अपनी चुनावी जीत को जनता के समर्थन और अपनी प्रसिद्धि के तौर पर पेश करने में होता है.

(बीजेपी ने अपने प्रचार में कांग्रेस को कभी नहीं बख्शा. आलम ये है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अब खत्म होने के कगार पर आ गई है. और चुनावी रिकॉर्ड में इनकी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. अगर भाजपा के चुनाव में जीतने से लोगों की सहमति जाहिर होती है, तो फिर निश्चित रूप से कांग्रेस ने बहुत ही अच्छा काम किया होगा तभी उन्होंने कई दशकों तक देश में शासन किया है.)

मोदी-शाह के द्वारा पार्टी को प्रशासन के साधन के बजाय चुनावी मशीन के रूप में देखना ही उनके लिए घातक सिद्ध होगा. और उपरोक्त तीनों मुद्दों पर विपक्ष द्वारा भाजपा पर वार अब पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी करेगी. मोदी ने अपनी जो अजेय छवि लोगों के सामने बनाई है वो भी विपक्ष के एकजुट होने का बड़ा कारण है. विपक्ष के एकजुट होने और मोदी विरोधी गुट बनाने के लिए अपने स्वार्थ को परे रखने के पीछ खुद मोदी का बहुत बड़ा हाथ है. बड़ी ही सावधानी से लोगों के सामने मोदी की अवतार स्वरुप और अकाट्य राजनीति समझ वाले व्यक्ति की छवि पेश की गई, खुद मोदी ने भी अपने इस इमेज को बनाने में मेहनत की जिसके वजह से विपक्षी पार्टियों के सामने मोदी एक तानाशाह नेता के तौर पर नजर आने लगे.

बहुत मुमकिन है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष इतना आतुर न होता अगर मोदी के जीत की बात को इतने मजबूत तरीके से न रखा जाता. हैरानी की बात तो ये है कि जिन लोगों ने भाजपा को लोकसभा और कई राज्यसभा चुनावों में जीत दिलाई वही लोग अब उनके लिए कमजोर कड़ी साबित हो सकते हैं. लेकिन फिर भी जैसा कि खुद अमित शाह कहते हैं कि हर चुनाव अलग होता है और पीछे क्या हुआ ये मायने नहीं रखता.

(यह लेख DailyO के लिए मनीष दुबे ने लिखा था)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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