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माया-अखिलेश के गैर-बीजेपी मोर्चे में कांग्रेस की भी कोई जगह है या नहीं

    • आईचौक
    • Updated: 25 मार्च, 2018 07:21 PM
  • 25 मार्च, 2018 07:21 PM
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2019 से पहले मायावती के पास सिर्फ एक मौका है. कैराना उपचुनाव में वो मायावती आजमा सकती हैं कि समाजवादी पार्टी का वोट बीएसपी को भी ट्रांसफर हो रहा है या नहीं? फिर चाहें तो गठबंधन को रिव्यू कर सकती हैं.

मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से हटाने का अखिलेश यादव को एक बड़ा फायदा और हुआ - मायावती का सपोर्ट. मुलायम सिंह के साथ तोमायावती गठबंधन के लिए शायद ही कभी तैयार हो पातीं. वैसे इसका कतई मतलब नहीं कि वो लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड भूल चुकी हैं. मायावती को वो घटना याद तो है, लेकिन दुश्मन नंबर वन अब समाजवादी पार्टी नहीं बल्कि बीजेपी हो चुकी है.

राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार की हार के बाद प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा कि बीजेपी ने 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड की याद दिला दी है. मायावती बोलीं, 'हत्या की साजिश वाली उस घटना में शामिल पुलिसकर्मियों को आज बड़ा ओहदा देकर बीजेपी क्या साबित करना चाहती है? क्या वह मेरी हत्या चाहती है?'

अब गठबंधन 2019 तक!

अभी 2019 से आगे का नहीं मालूम. मायावती ने सिर्फ इतना ही बताया है. पहले तो वो 2019 तक के लिए भी तैयार न थीं. बल्कि मायावती को तो गुस्सा भी आ रहा था क्योंकि फूलपुर और गोरखपुर में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के समझौते को दो दशक बाद के मेल के तौर पर बताया जा रहा था. राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार के हार जाने के बावजूद अखिलेश यादव को लेकर मायावती बिलकुल भी नाराज नहीं हैं. जो थोड़ी बहुत शिकायत है उसे भी वो अखिलेश यादव के कम राजनीतिक अनुभव के चलते मान कर माफ कर चुकी हैं.

क्या मायावती को वाकई लगता है कि अखिलेश में अनुभव की कमी है?

मायावती कहती हैं - 'अखिलेश यादव कुंडा के गुंडे के जाल में फंस गये, अगर ऐसा न होता तो शायद हम यह सीट बचा लेते. मैं उनकी जगह होती तो भले ही मेरा उम्मीदवार हार जाता, मगर उनके उम्मीदवार को हारने नहीं देती. ये उनके अनुभव की कमी है, मगर मैं उनसे अनुभवी हूं इसलिए इस गठबंधन को टूटने नहीं दूंगी. मायावती ने उम्मीद जताई कि अखिलेश...

मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से हटाने का अखिलेश यादव को एक बड़ा फायदा और हुआ - मायावती का सपोर्ट. मुलायम सिंह के साथ तोमायावती गठबंधन के लिए शायद ही कभी तैयार हो पातीं. वैसे इसका कतई मतलब नहीं कि वो लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड भूल चुकी हैं. मायावती को वो घटना याद तो है, लेकिन दुश्मन नंबर वन अब समाजवादी पार्टी नहीं बल्कि बीजेपी हो चुकी है.

राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार की हार के बाद प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा कि बीजेपी ने 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड की याद दिला दी है. मायावती बोलीं, 'हत्या की साजिश वाली उस घटना में शामिल पुलिसकर्मियों को आज बड़ा ओहदा देकर बीजेपी क्या साबित करना चाहती है? क्या वह मेरी हत्या चाहती है?'

अब गठबंधन 2019 तक!

अभी 2019 से आगे का नहीं मालूम. मायावती ने सिर्फ इतना ही बताया है. पहले तो वो 2019 तक के लिए भी तैयार न थीं. बल्कि मायावती को तो गुस्सा भी आ रहा था क्योंकि फूलपुर और गोरखपुर में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के समझौते को दो दशक बाद के मेल के तौर पर बताया जा रहा था. राज्य सभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार के हार जाने के बावजूद अखिलेश यादव को लेकर मायावती बिलकुल भी नाराज नहीं हैं. जो थोड़ी बहुत शिकायत है उसे भी वो अखिलेश यादव के कम राजनीतिक अनुभव के चलते मान कर माफ कर चुकी हैं.

क्या मायावती को वाकई लगता है कि अखिलेश में अनुभव की कमी है?

मायावती कहती हैं - 'अखिलेश यादव कुंडा के गुंडे के जाल में फंस गये, अगर ऐसा न होता तो शायद हम यह सीट बचा लेते. मैं उनकी जगह होती तो भले ही मेरा उम्मीदवार हार जाता, मगर उनके उम्मीदवार को हारने नहीं देती. ये उनके अनुभव की कमी है, मगर मैं उनसे अनुभवी हूं इसलिए इस गठबंधन को टूटने नहीं दूंगी. मायावती ने उम्मीद जताई कि अखिलेश यादव धीरे-धीरे सियासत का तजुर्बा सीख जाएंगे.' वैसे मायावती को नहीं भूलना चाहिये कि अखिलेश यादव भी मुलायम सिंह के ही बेटे हैं. वही मुलायम सिंह जो मौका देखकर पलटी मार जाने के लिए जाने जाते हैं. एक बार ममता बनर्जी से ही जिक्र करके तो देख लें. वैसे ममता बनर्जी ने चंद्रबाबू नायडू के साथ साथ मायावती को भी बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए तारीफ की है.

ये तो साफ है कि मायावती और अखिलेश 2019 में बीजेपी के खिलाफ मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं. उससे पहले कैराना में जोर आजमाइश एक बार और होनी है.

बड़ा सवाल ये है कि मायवती और अखिलेश के इस गठबंधन में कांग्रेस के लिए कोई स्कोप है भी या बिलकुल नहीं?

कांग्रेस को लेकर क्या?

हाल फिलहाल देश में एक नहीं बल्कि दो-दो मोर्चे की तैयारियां चल रही हैं. खास बात ये भी है कि ममता बनर्जी दोनों ही कुनबों में अपनी जगह मजबूत बनाये हुए हैं. इनमें एक मोर्चा तो बीजेपी से बैर रखने वाले दलों का है - और दूसरा उन दलों का जो बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस से भी दूरी बनाकर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

मायावती और अखिलेश ने बीजेपी के खिलाफ अपने इरादे तो जाहिर कर दिये हैं, सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस के लिए भी वहां कोई स्कोप है क्या? ये जानने के लिए मायावती के बयान को भी समझने की कोशिश करनी होगी. समाजवादी पार्टी के साथ नये रिश्ते की चर्चा में कांग्रेस का भी थोड़ा जिक्र जरूर आया है.

वोट ट्रांसफर की चुनौती!

मायावती ने कहा, 'मैं साफ कर देना चाहती हूं कि सपा-बसपा का मेल अटूट है. भाजपा का मकसद सिर्फ सपा-बसपा की दोस्ती को तोड़ना है... कांग्रेस पार्टी के साथ हमारे पुराने संबंध हैं जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी.'

अखिलेश यादव तो पहले ही कह चुके थे कि अब उन्हें कांग्रेस का साथ नहीं पसंद है - और 2019 में वो अकेले मैदान में उतरेंगे. फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में भी कांग्रेस द्वारा अपना उम्मीदवार वापस न लिया जाना अखिलेश यादव को काफी नागवार गुजरा. हालांकि, बाद में यूपी कांग्रेस के नेताओं के सफाई भरे बयान के बाद समाजवादी पार्टी के नेता कुछ नरम जरूर दिखे.

मायावती की बातों को समझें तो ये संकेत जरूर मिलता है कि संभावित गठबंधन में कांग्रेस के लिए भी कुछ गुंजाइश रखी गयी है. हालांकि, ये गुंजाइश उससे ज्यादा नहीं लगती जितनी यूपी विधानसभा या बिहार चुनाव में कांग्रेस के हिस्से में आयी थी.

बाकी सब तो ठीक है, लेकिन मायावती की मुश्किल ये नहीं बल्कि इन सबसे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है - क्या बीएसपी को दूसरों के वोट ट्रांसफर होंगे?

वोट ट्रांसफर की कितनी संभावना?

मायावती के साथ आने के बाद देखा जाये तो अब तक फायदे में अखिलेश यादव ही रहे हैं. आगे क्या होगा आखिर किसे पता? फूलपुर और गोरखपुर की लोक सभा सीटें तो समाजवादी पार्टी को मिलीं ही, राज्य सभा चुनाव में भी अखिलेश यादव की पसंद जया बच्चन को जीत हासिल हुई.

मायावती के सामने बड़ा सवाल यही है कि क्या समाजवादी पार्टी का वोट बीएसपी को भी ट्रांसफर हो पाएगा. फूलपुर और गोरखपुर में तो बीएसपी के मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दे दिये, क्या इसका उलटा भी मुमकिन हो पाएगा?

कभी खुद बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने ही कहा था कि बीएसपी के वोट दूसरों को तो ट्रांसफर हो जाते हैं, लेकिन दूसरों के वोट बीएसपी को नहीं मिलते.

जब कांशीराम ने ये बात कही थी तब से वक्त काफी आगे गुजर चुका है. बीच में मायावती ब्राह्मणों को जोड़ कर सोशल इंजीनियरिंग का कामयाब नुस्खा भी आजमा चुकी हैं. हालांकि, पिछले चुनाव में मायावती का दलित-मुस्लिम गठजोड़ फेल हो गया. वैसे बीजेपी भी तो मान ही रही है कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी के गठबंधन से ही उसे फूलपुर और गोरखपुर में शिकस्त मिली.

2019 से पहले मायावती कैराना में इसे टेस्ट कर सकती हैं - और फिर चाहें तो 2019 को लेकर रिव्यू का भी मौका रहेगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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