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मनोज तिवारी हों या प्रवेश वर्मा- दिल्ली BJP का सिरदर्द टोपी बदलने से नहीं थमेगा!

    • आईचौक
    • Updated: 13 फरवरी, 2020 08:26 PM
  • 13 फरवरी, 2020 08:26 PM
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मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) ने दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष (Delhi BJP President) पद से इस्तीफे की पेशकश कर दी है - और उनकी जगह प्रवेश वर्मा (Parvesh Verma) को कमान थमाये जाने की खबर है. सवाल है कि व्यक्ति बदल देने से हालात कैसे बदल जाएंगे - प्रदर्शन के मामले में तो प्रवेश वर्मा पर मनोज तिवारी बेहतर ही हैं.

मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) की दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष (Delhi BJP President) पद से विदाई के संकेत मिलने लगे हैं. चुनाव रुझानों के दौरान ही मनोज तिवारी ने आगे बढ़ कर जिम्मेदारी ली और फिर इस्तीफे की पेशकश भी कर दी है - खबर है कि ये जिम्मेदारी अब बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा (Parvesh Verma) को दी जा सकती है.

चुनावों के दौरान ये संकेत तो मिल ही गये थे कि आलाकमान को प्रवेश वर्मा पसंद आने लगे हैं. अमित शाह ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवेश वर्मा से कहीं भी बहस कर लेने की चुनौती देकर सबूत भी दे दिया था. नेतृत्व की नजर में अपनी अहमियत समझ में आते ही प्रवेश वर्मा शुरू भी हो गये और ऐसे भड़काऊ बयान दिये कि चुनाव आयोग ने पहले तो स्टार प्रचारकों की सूची से हटवाया और बाद में चुनाव प्रचार पर भी कई घंटे तक पाबंदी लगाये रखा.

चुनाव आयोग के अपने कायदे कानून होते हैं और राजनीतिक दलों में नेताओं के आकलन के अपने अलग पैरामीटर. प्रवेश वर्मा के बयानों से आदर्श चुनाव आचार संहिता भले ही प्रभावित हुई हो, लेकिन बीजेपी की नेतृत्व की नजर में तो फायरब्रांड नेता के तौर पर हाजिरी दर्ज करा ही चुके हैं. वैसे भी बीजेपी में फायरब्रांड नेताओं की हमेशा ही पूछ रही है.

सवाल ये है कि आखिर प्रवेश वर्मा में वे कौन सी एक्स्ट्रा खासियतें हैं जिनकी बदौलत वो मनोज तिवारी की जगह लेने जा रहे हैं?

प्रवेश वर्मा से तो बेहतर रहा मनोज तिवारी का प्रदर्शन

दिल्ली में बीजेपी के 7 लोक सभा सांसद हैं और विधानसभा की 70 सीटें. मोटे तौर पर हर सांसद के खाते में 10 विधानसभा सीटें आती हैं - और अगर हर सांसद 5 सीटें भी जिता दे तो आधी दिल्ली बीजेपी की झोली में होती.

5 सीटें तो किसी के हिस्से में नहीं आयी, लेकिन मनोज तिवारी तीन सीटें जीतने में कामयाब जरूर रहे - घोंडा, करावल नगर और रोहतास नगर. उनके दिल्ली बीजेपी का अध्यक्ष होने और पूर्वांचली वोटर के बीच गहरी पैठ होने के हिसाब से तो ये घटिया प्रदर्शन रहा - लेकिन अगर प्रवेश वर्मा से तुलना की जाये तो वो भारी पड़ते...

मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) की दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष (Delhi BJP President) पद से विदाई के संकेत मिलने लगे हैं. चुनाव रुझानों के दौरान ही मनोज तिवारी ने आगे बढ़ कर जिम्मेदारी ली और फिर इस्तीफे की पेशकश भी कर दी है - खबर है कि ये जिम्मेदारी अब बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा (Parvesh Verma) को दी जा सकती है.

चुनावों के दौरान ये संकेत तो मिल ही गये थे कि आलाकमान को प्रवेश वर्मा पसंद आने लगे हैं. अमित शाह ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवेश वर्मा से कहीं भी बहस कर लेने की चुनौती देकर सबूत भी दे दिया था. नेतृत्व की नजर में अपनी अहमियत समझ में आते ही प्रवेश वर्मा शुरू भी हो गये और ऐसे भड़काऊ बयान दिये कि चुनाव आयोग ने पहले तो स्टार प्रचारकों की सूची से हटवाया और बाद में चुनाव प्रचार पर भी कई घंटे तक पाबंदी लगाये रखा.

चुनाव आयोग के अपने कायदे कानून होते हैं और राजनीतिक दलों में नेताओं के आकलन के अपने अलग पैरामीटर. प्रवेश वर्मा के बयानों से आदर्श चुनाव आचार संहिता भले ही प्रभावित हुई हो, लेकिन बीजेपी की नेतृत्व की नजर में तो फायरब्रांड नेता के तौर पर हाजिरी दर्ज करा ही चुके हैं. वैसे भी बीजेपी में फायरब्रांड नेताओं की हमेशा ही पूछ रही है.

सवाल ये है कि आखिर प्रवेश वर्मा में वे कौन सी एक्स्ट्रा खासियतें हैं जिनकी बदौलत वो मनोज तिवारी की जगह लेने जा रहे हैं?

प्रवेश वर्मा से तो बेहतर रहा मनोज तिवारी का प्रदर्शन

दिल्ली में बीजेपी के 7 लोक सभा सांसद हैं और विधानसभा की 70 सीटें. मोटे तौर पर हर सांसद के खाते में 10 विधानसभा सीटें आती हैं - और अगर हर सांसद 5 सीटें भी जिता दे तो आधी दिल्ली बीजेपी की झोली में होती.

5 सीटें तो किसी के हिस्से में नहीं आयी, लेकिन मनोज तिवारी तीन सीटें जीतने में कामयाब जरूर रहे - घोंडा, करावल नगर और रोहतास नगर. उनके दिल्ली बीजेपी का अध्यक्ष होने और पूर्वांचली वोटर के बीच गहरी पैठ होने के हिसाब से तो ये घटिया प्रदर्शन रहा - लेकिन अगर प्रवेश वर्मा से तुलना की जाये तो वो भारी पड़ते हैं.

मनोज तिवारी के अलावा गौतम गंभीर भी बीजेपी के ऐसे सांसद रहे जिनके इलाके से बीजेपी ने तीन सीटें जीत ली है. ये सीटें हैं - लक्ष्मी नगर, गांधी नगर और विश्वास नगर विधानसभा. रमेश बिधूड़ी और हंसराज हंस के क्षेत्रों में भी बीजेपी ने एक एक सीट जीती है - बदरपुर और रोहिणी विधानसभा सीट. विश्वास नगर और रोहिणी विधानसभा सीटें ही बीजेपी बचाने में सफल रही है.

मनोज तिवारी की जगह प्रवेश वर्मा भी आयें तो दिल्ली बीजेपी में क्या बदलेगा?

दिल्ली में प्रवेश वर्मा को जाटों के बीच जनाधार वाला नेता माना जाता है. वो दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे साहिब सिंह वर्मा के बेटे हैं - और वोटों की गिनती के दिन शुरुआती रुझानों में ऐसा लगा कि हरियाणा से सटे दिल्ली के सीमावर्ती इलाकों में बीजेपी बढ़त बना रही है, लेकिन वो हवाई किला ही साबित हुआ. प्रवेश वर्मा के पश्चिम दिल्ली इलाके से बीजेपी एक भी सीट हासिल नहीं कर पायी है.

प्रवेश वर्मा की तरह ही नई दिल्ली से सांसद मीनाक्षी लेखी और चांदनी चौक से बीजेपी सांसद और केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन भी कम से कम इस मामले में तो फिसड्डी ही साबित हुए हैं. तीनों सांसदों के इलाकों में बीजेपी का खाता भी नहीं खुल सका है.

हार के लिए मनोज तिवारी अकेले जिम्मेदार नहीं

दिल्ली में पूर्वांचल से आने वाले आठ उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे हैं और सभी आम आदमी पार्टी की तरफ से - बुराड़ी से संजीव झा, लक्ष्मी नगर से अभय वर्मा, किराड़ी से ऋतुराज द्वारका से विनय मिश्रा और शालीमार बाग से वंदना कुमारी. दोबारा चुनाव जीत कर आये गोपाल राय और सोमनाथ भारती भी पूर्वांचल की पृष्ठभूमि से ही आते हैं.

संजीव झा ने इस बार सबसे ज्यादा वोटों के अंतर से चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाया है - और दिलचस्प बात ये है कि यही वो सीट है जहां अमित शाह और नीतीश कुमार की साझा रैली हुई थी. मुकाबले में एक दिलचस्प पहलू ये भी रहा कि आप के अलावा जो उम्मीदवार मैदान में थे वे जेडीयू और आरजेडी के थे. दरअसल, बीजेपी और कांग्रेस ने ये सीट गठबंधन साथियों के हिस्से में दे रखा था.

मनोज तिवारी की कुल काबिलियत उनका भोजपुरी सिंगर और पूर्वांचल की पृष्ठभूमि ही रही है - और दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी मिलने में इसी की भूमिका रही है. वरना, दिल्ली में बीजेपी के भीतर ही अब तक उन्हें कभी भी स्वीकार नहीं किया गया. मनोज तिवारी हमेशा ही स्थानीय नेताओं के निशाने पर रहे जो बाहरी की तरह ट्रीट करते रहे. सबसे ज्यादा गुस्सा तो तब देखा गया जब मनोज तिवारी ने सपना चौधरी को बीजेपी ज्वाइन करायी. तब एक नेता की टिप्पणी रही, नाच-गाकर ऑर्केस्ट्रा चलाया जा सकता है, चुनाव नहीं जीते जा सकते. मनोज तिवारी अपने खिलाफ बनी ऐसी धारणाओं का जबाव देने में नाकाम जरूर रहे.

बीजेपी दिल्ली में चुनाव भले ही दोबारा हार गयी हो, लेकिन वोटों की हिस्सेदारी के मामले में इजाफा ही हुआ है. दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से महज 8 जीतने वाली बीजेपी का वोट शेयर 63 सीटों पर बढ़ा है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में बीजेपी को 38.52 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि 2015 में 32.8 फीसदी हिस्सेदारी ही मिली थी. बीजेपी की बढ़त से आप के 62 सीटें जीतने के बावजूद उसका वोट शेयर 2015 में 54.6 फीसदी से घट कर 53.61 फीसदी हो गया है. वोटों की हिस्सेदारी के हिसाब से सबसे ज्यादा घाटे में कांग्रेस रही है - 2015 9.7 फीसदी मिले थे और इस बार सिर्फ 4.25 फीसदी.

बीजेपी का वोट शेयर 2017 में हुए MCD चुनाव से भी करीब तीन फीसदी ज्यादा दर्ज किया गया है. MCD चुनाव में आप और कांग्रेस को पछाड़ते हुए जीत का परचम लहराने वाली बीजेपी को 36.1 फीसदी वोट ही मिले थे. हां, आम चुनाव में 56.9 फीसदी वोट लेकर बीजेपी ने कांग्रेस को दूसरे और आप को तीसरे स्थान पर जरूर छोड़ दिया था.

चुनावों में जिस तरीके नेतृत्व की तरफ से प्रवेश वर्मा की पीठ थपथपायी जा रही थी, लगता तो यही है कि टिकट बंटवारे में भी मनोज तिवारी की भूमिका रस्मअदायगी जितनी ही रही होगी. मनोज तिवारी पर एक आरोप लगता रहा कि कार्यकर्ताओं और दूसरे नेताओं से संपर्क में रहते ही नहीं और जनता से भी कटे रहते हैं. ऐसे आरोपों के काउंटर के लिए अगस्त, 2019 में दिल्ली बचाओ परिवर्तन यात्रा की और साथी नेताओं से भी संबंध सुधारने की पूरी कोशिश की.

दिल्ली चुनाव के नतीजों से ये तो साफ हो ही चुका है कि विकास के काम के आगे राष्ट्रवाद और शाहीन बाग का संयोग-प्रयोग फेल हो गया. ये ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अनुराग ठाकुर के सात प्रवेश वर्मा कदम से कदम मिलाते हुए बयानबाजी करते रहे, लेकिन मनोज तिवारी भी तो पीछे नहीं रहे. फील्ड में खड़े होकर और मीडिया से लेकर ट्विटर तक आखिर वो भी तो लोगों को यही समझाते रहे कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कैसे हनुमान जी का दर्शन करते करते मंदिर को अपवित्र कर दिया.

जब महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड की तरह दिल्ली में भी बीजेपी की कैंपेन लाइन ही फेल हो गयी तो मनोज तिवारी अकेले कैसे जिम्मेदार माने जा सकते हैं? दिल्ली अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने वाले का नाम बदलने से कुछ नहीं होने वाला - बीजेपी नेतृत्व को स्थानीय नेताओं की अहमियत और मुद्दों का महत्व समझना होगा, वरना - वनवास में हर बार पांच साल यूं ही जुड़ते रहेंगे.

इन्हें भी पढ़ें :

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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