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ममता बनर्जी को अभी वोटर का समर्थन चाहिये - शरद पवार जैसा मोरल सपोर्ट नहीं

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 23 दिसम्बर, 2020 09:30 PM
  • 23 दिसम्बर, 2020 09:30 PM
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के समर्थन में शरद पवार (Sharad Pawar) आगे आ रहे हैं, लेकिन ममता बनर्जी जब बंगाल में बाहरियों के विरोध में आवाज उठा रही हों - बाहर के विपक्षी नेता (Opposition Unity) पहुंच कर कौन सा चमत्कार करेंगे?

पश्चिम बंगाल की सियासी लड़ाई का हिंसात्मक स्वरूप थमने वाला तो नहीं लगता. हां, मोर्चेबंदी जरूर बदल रही है. जो टीएमसी कार्यकर्ता पहले बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट दलों के साथ झगड़ते रहते थे, अब अपने ही पुराने साथियों से दो-दो हाथ कर रहे हैं - और ये शुभेंदु अधिकारी के पाला बदल लेने का नतीजा है. पूर्वी मिदनापुर से शुभेंदु अधिकारी और तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प की खबरें आ रही हैं. समझने वाली बात ये है कि पूर्वी मिदनापुर शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है जहां अधिकारी परिवार का खासा दबदबा है.

2019 के आम चुनाव से लेकर प्रस्तावित पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के बीच राजनीतिक समीकरण काफी हद तक बदल चुके हैं - और चुनाव की तारीख आते आते और भी बदलाव होंगे ही, तय मान कर चलना चाहिये.

आम चुनाव की ही तरह एक बार फिर पश्चिम बंगाल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ विपक्ष की लामबंदी (Opposition nity) शुरू हो रही है. तब की कवायद का का क्या हाल हुआ, नतीजे आये भी साल भर से ऊपर हो चुके हैं. जरूरी नहीं कि दोबारा भी वैसा ही हाल हो - क्योंकि वो आम चुनाव रहा और मोदी लहर का असर भी था, ताजा कोशिशें विधानसभा चुनाव के लिए हो रही हैं.

नयी कोशिश में नतीजों की कितनी उम्मीद की जा सकती है ये भी समझना होगा. ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और शरद पवार (Sharad Pawar) के बीच हुई बातचीत नये सिरे से विपक्षी खेमे को एकजुट करने की कोशिश लगती है - और एनसीपी की तरफ से बताया गया है कि शरद पवार की तरफ से पहल और प्रयास दोनों होने वाले हैं. सवाल ये है कि विपक्षी दल का कितना भी कद्दावर नेता महाराष्ट्र से पश्चिम बंगाल जाकर आखिर कितना असरदार साबित हो सकता है - ये भी ध्यान रहे कि 2019 और 2021 के बीच वक्त नहीं राजनीतिक समीकरणों में भी फर्क देखना जरूरी होगा.

ममता और पवार की बात

ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी से विपक्ष के साथ मिल कर लड़ने का इरादा किया है. 2016 के विधानसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी विपक्षी...

पश्चिम बंगाल की सियासी लड़ाई का हिंसात्मक स्वरूप थमने वाला तो नहीं लगता. हां, मोर्चेबंदी जरूर बदल रही है. जो टीएमसी कार्यकर्ता पहले बीजेपी, कांग्रेस और लेफ्ट दलों के साथ झगड़ते रहते थे, अब अपने ही पुराने साथियों से दो-दो हाथ कर रहे हैं - और ये शुभेंदु अधिकारी के पाला बदल लेने का नतीजा है. पूर्वी मिदनापुर से शुभेंदु अधिकारी और तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प की खबरें आ रही हैं. समझने वाली बात ये है कि पूर्वी मिदनापुर शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है जहां अधिकारी परिवार का खासा दबदबा है.

2019 के आम चुनाव से लेकर प्रस्तावित पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के बीच राजनीतिक समीकरण काफी हद तक बदल चुके हैं - और चुनाव की तारीख आते आते और भी बदलाव होंगे ही, तय मान कर चलना चाहिये.

आम चुनाव की ही तरह एक बार फिर पश्चिम बंगाल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ विपक्ष की लामबंदी (Opposition nity) शुरू हो रही है. तब की कवायद का का क्या हाल हुआ, नतीजे आये भी साल भर से ऊपर हो चुके हैं. जरूरी नहीं कि दोबारा भी वैसा ही हाल हो - क्योंकि वो आम चुनाव रहा और मोदी लहर का असर भी था, ताजा कोशिशें विधानसभा चुनाव के लिए हो रही हैं.

नयी कोशिश में नतीजों की कितनी उम्मीद की जा सकती है ये भी समझना होगा. ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) और शरद पवार (Sharad Pawar) के बीच हुई बातचीत नये सिरे से विपक्षी खेमे को एकजुट करने की कोशिश लगती है - और एनसीपी की तरफ से बताया गया है कि शरद पवार की तरफ से पहल और प्रयास दोनों होने वाले हैं. सवाल ये है कि विपक्षी दल का कितना भी कद्दावर नेता महाराष्ट्र से पश्चिम बंगाल जाकर आखिर कितना असरदार साबित हो सकता है - ये भी ध्यान रहे कि 2019 और 2021 के बीच वक्त नहीं राजनीतिक समीकरणों में भी फर्क देखना जरूरी होगा.

ममता और पवार की बात

ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी से विपक्ष के साथ मिल कर लड़ने का इरादा किया है. 2016 के विधानसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी विपक्षी नेताओं के संपर्क में रहीं, हालांकि, ज्यादा मेल मुलाकात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक ही सीमित दिखी थी. आम चुनाव से पहले भी यही सब देखने को मिला था. सोनिया गांधी से भेंट मुलाकात कर ममता बनर्जी यही चाहती हैं कि कांग्रेस उनके साथ भले न खड़ी हो, लेकिन कम से कम लेफ्ट के साथ तो न जाये.

अफसोस की बात ये है कि कांग्रेस ने इस बार भी अधीर रंजन चौधरी को पश्चिम बंगाल कांग्रेस की कमान सौंप दी है - और वो काम वही करते हैं जो ममता बनर्जी के खिलाफ जाता हो.

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान तूृणमूल कांग्रेस की प्रस्तावित विपक्षी नेताओं की महारैली बेवक्त की शहनाई बजाने जैसा ही लगता है!

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद केंद्र सरकार ने राज्य के डीजीपी और मुख्य सचिव को तलब करने के साथ ही, सुरक्षा में लगे तीन आईपीएस अधिकारियों को दिल्ली पहुंच कर रिपोर्ट करने का फरमान जारी कर दिया है. ममता बनर्जी ने ऐसा न होने देने का ऐलान तो कर दिया है, लेकिन मसला ऐसा है कि तृणमूल कांग्रेस नेता इस राजनीतिक लड़ाई में अकेले पड़ रही हैं. लिहाजा विपक्षी दलों के कई नेताओं से व्यक्तिगत तौर पर फोन पर संपर्क किया है - और केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों की राज्य सरकारों और नेताओं के एकजुट होने की गुजारिश की है.

ममता बनर्जी ने खुद ही ट्विटर पर उन नेताओं के प्रति आभार जताया है जिनसे उनकी बात हुई है - और बीजेपी के खिलाफ आगे की लड़ाई की रणनीति पर चर्चा हुई है.

एनसीपी नेता और महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री नवाब मलिक के मुताबिक, 'शरद पवार और ममता बनर्जी ने चर्चा की कि कैसे BJP बंगाल को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है... केंद्र सरकार सरकारी अधिकारियों को अपनी मर्जी से वापस ले रही है और राज्य के अधिकारों का उल्लंघन कर रही है.'

आगे की रणनीति को लेकर भी नवाब मलिक ने संकेत दे दिया है, 'ममता बनर्जी और शरद पवार अन्य राष्ट्रीय नेताओं के साथ भी मीटिंग करेंगे - अगर जरूरत पड़ी तो पवार साहब बंगाल जाएंगे.' नवाब मलिक के अनुसार ये मीटिंग कोलकाता जाने पहले दिल्ली में भी हो सकती है - और शरद पवार इसके लिए मुंबई से दिल्ली भी जा सकते हैं.

तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी गैर-बीजेपी राजनीतिक दलों पर फोकस कर रही हैं - अगले महीने कोलकाता में एक रैली की भी संभावना जतायी जा रही है. आम चुनाव से पहले जनवरी, 2019 में भी कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड पर ममता बनर्जी ने विपक्षी नेताओं की महारैली करायी थी. मंच पर खड़े होकर ममता बनर्जी ने खुद रैली का संचालन किया था. तब भी विपक्षी एकता का हाल ये रहा कि जम्मू-कश्मीर से फारूक अब्दुल्ला से लेकर तमिलनाडु से डीएमके नेता एमके स्टालिन तक तो पहुंचे, लेकिन कांग्रेस ने न तो सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा पहुंचीं और न ही यूपी से बीएसपी नेता मायावती. तब यूपी में सपा-बसपा गठबंधन बना था - और ऐसे मौकों पर गठबंधन की तरफ से अखिलेश यादव को ही दोनों दलों का प्रतिनिधि मान लिया जाता रहा.

तृणमूल कांग्रेस की प्रस्तावित रैली में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, एमके स्टालिन जैसे विपक्षी खेमे के कई नेताओं के शामिल होने की संभावना जतायी गयी है. 2019 की रैली को देखते हुए मान कर चलना चाहिये, इस बार कांग्रेस को भी न्योता वैसे ही नहीं भेजा जा सकता है जैसे पिछली बार वाम दलों को दूर रखा गया था. विधानसभा चुनाव में तो वाम दलों की तरह ही कांग्रेस भी लड़ाई में हिस्सेदार है. विपक्षी खेमे के होने के बावजूद असदुद्दीन ओवैसी के साथ भी ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा है - हालांकि, विपक्षी खेमे में होने के बावजूद ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के तो हिस्सा लेने की संभावना तो न के बराबर ही होगी.

शरद पवार कितने असरदार

शरद पवार ने महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी की सरकार बनने के बाद भी संकेत दिये थे कि वो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करने की पहल कर सकते हैं. फिर सोनिया गांधी की तरफ से बुलायी गयी गैर बीजेपी दलों के मुख्यमंत्रियों की मीटिंग में उद्धव ठाकरे की पहल पर सोनिया गांधी और ममता बनर्जी ने सहमति जतायी थी कि मोदी सरकार के सबसे ताकतवर मंत्री अमित शाह खिलाफ मिल कर लड़ने की जरूरत है.

केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की लड़ाई एक अलग चीज है, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान ऐसी पहल बहुत तार्किक नहीं लगती. ऐसी पहल आम चुनाव के दौरान तो कारगर हो सकती है, लेकिन विधानसभा चुनाव के वक्त अचानक से एक रैली करने भर से भी कुछ ठोस नतीजे हासिल किये जा सकते हैं, ऐसा लगता नहीं कि बहुत व्यावहारिक है.

हो सकता है कि पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले हो रही ऐसी पहल अगर लगातार चलती रहे और बीजेपी के खिलाफ अलग अलग राज्यों में विरोध की आवाज बनी रहे तो आगे के किसी विधानसभा चुनाव में फायदेमंद भी हो सकती है, लेकिन जनवरी में कोई रैली हो और उसका कितना भी प्रचार-प्रसार और शोर न हो, लेकिन अप्रैल-मई के चुनाव में लगता नहीं कि कोई असर हो पाएगा.

हो सकता है रैली का फायदा शरद पवार को भी मिले और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों की धुरी बनने में वो कामयाब रहें, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में तो वो न तो ममता बनर्जी को वोट दिला सकते हैं - और न ही ममता बनर्जी से छिटक कर बीजेपी की तरफ जा सकने वाले वोटों को रोक ही सकते हैं. शरद पवार देश के सीनियर मोस्ट नेताओं में शुमार हैं और सभी दलों में नेताओं से उनके व्यक्तिगत संबंध भी हैं - लेकिन महाराष्ट्र के कद्दावर किसान नेता से पश्चिम बंगाल में कोई चमत्कार दिखा पाने की उम्मीद करना तो बेमानी ही होगा.

ऊपर से ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में बाहरी नेताओं और लोगों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं, शरद पवार और ऐसे दूसरे नेताओं को लेकर लोग सवाल पूछेंगे तो उनका क्या जवाब होगा भला? अगर विपक्षी नेताओं के एकजुट होने से चुनावी फायदा न हो तो आखिर ऐसी कवायद का क्या मतलब है. सवाल ये भी है कि जब आम चुनाव से पहले विपक्षी दलों के एकजुट होकर मैसेज देने के बाद भी ममता बनर्जी ने बीजेपी को 18 संसदीय सीटें जीतने से नहीं रोक पायीं तो विधानसभा चुनाव में ऐसा कोई भ्रम क्यों पाले हुए हैं.

ऐसा भी नहीं कि ममता बनर्जी के नये प्रयास पूरी तरह बेकार ही हैं, लेकिन अगर वो कोई ऐसा नेता लायें जो बीजेपी के योगी आदित्यनाथ को काउंटर कर सके तो बात भी समझ में आये.

ममता बनर्जी को मालूम होना चाहिये कि योगी आदित्यनाथ पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रचार के दौरान घुसपैठियों को निकाल बाहर फेंकने की बात कहेंगे ही. राम मंदिर निर्माण के जिक्र के साथ ही लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की वापसी में अपनी तारीफ झोंकेंगे ही. ये भी हो सकता है कि रेल मंत्री पीयूष गोयल भी पहुंचें और बतायें कि कैसे ममता बनर्जी ने प्रवासी मजदूरों के घर लौटने के लिए स्पेशल ट्रेनों को परमिशन देने में रोड़ा अटकाये रखा - असल बात तो ये है कि ममता बनर्जी को ऐसे नेताओं के भाषण को काउंटर करने का कोई उपाय खोजना चाहिये.

ममता बनर्जी मान कर चलें कि जिस तरह बीजेपी तुष्टिकरण के आरोप लगा रही है, निश्चित रूप से यूपी के मुख्यमंत्री वहां पहुंचेंगे और लव-जिहाद कानून को लेकर गर्मजोशी के साथ भाषण देंगे - ममता बनर्जी की तरफ से योगी आदित्यनाथ के भाषण का सार्वजनिक मंच से काउंटर तो असल मायने में AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी ही कर सकते थे, लेकिन ममता बनर्जी ने पहले ही उनके साथ चुनावी गठबंधन का प्रस्ताव ठुकरा दिया है.

बेशक शरद पवार खुद मौजूद रह कर और विपक्षी दलों के नेताओं को जोड़ कर ममता बनर्जी को नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं - लेकिन जरूरत तो फिलहाल ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल के भीतर ही नेताओं और वोटर के सपोर्ट की है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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