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गांधी परिवार को मिल गए खड़गे, जो बनेंगे ढाल!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 30 सितम्बर, 2022 09:57 PM
  • 30 सितम्बर, 2022 09:54 PM
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कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जब हम मल्लिकार्जुन खड़गे को देखते हैं, तो मिलता यही है कि यदि खड़गे चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गए. तो भी उनका रिमोट सोनिया - राहुल गांधी के हाथ में ही रहने वाला है. तमाम चीजें हैं जो बता रही हैं कि अध्यक्ष के लिए खड़गे कांग्रेस की तरफ से एक कमजोर चॉइस हैं.

भले ही कांग्रेस को मजबूत करने के उद्देश्य से 'भारत जोड़ो यात्रा' का झंडा थामे राहुल गांधी और उनका काफिला कर्नाटक की तरफ कूच कर गया हो.मगर क्या वाक़ई आने वाले वक़्त में कांग्रेस मजबूत होगी? संशय तब और भी गहरा हो जाता है जब हम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे की वाइल्ड कार्ड एंट्री देखते हैं. सोनिया गांधी के करीबी होने के कारण माना यही जा रहा है कि चुनाव भले कोई भी लड़ ले. लेकिन क्योंकि अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह समेत पार्टी के तमाम छोटे बड़े नेताओं का समर्थन खड़गे को हासिल है इसलिए माना यही जा रहा है कि चाहे वो शशि थरूर हों या फिर केएन त्रिपाठी कोई एड़ी से लेकर चोटी का कितना भी जोर क्यों न लगा ले लाभ मल्लिकार्जुन खड़गे को मिलेगा उन्हीं की होगी. यदि ऐसा होता है और फैसला मल्लिकार्जुन खड़गे के पक्ष में आता है तो ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि कांग्रेस की स्थिति जस की तस रहेगी और आने वाले वक़्त में उसे उन्हीं चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा जिनसे आज वो दो चार हो रही है.

यदि खड़गे अध्यक्ष बन गए तो कांग्रेस को इससे फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा

उपरोक्त बातें सिर्फ बातें नहीं हैं. न ही इनमें किसी तरह की कोई लफ्फाजी है. कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जब हम मल्लिकार्जुन खड़गे को देखते हैं तो मिलता यही है कि यदि खड़गे चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गए तो भी उनका रिमोट सोनिया - राहुल गांधी के हाथ में ही रहने वाला है. आइये कुछ बिंदुओं के जरिये समझें कि अगर खड़गे ही अंतिम उम्मीद हैं, तो हमें इस बात को नकारना नहीं चाहिए कि कांग्रेस की नाउम्मीदी यूं ही बरक़रार रहेगी.

जनाधार नहीं

भले ही दलितों को ध्यान में रखकर अध्यक्ष के लिए कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आगे करके एक बड़ा सियासी गेम खेला हो. लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि खड़गे...

भले ही कांग्रेस को मजबूत करने के उद्देश्य से 'भारत जोड़ो यात्रा' का झंडा थामे राहुल गांधी और उनका काफिला कर्नाटक की तरफ कूच कर गया हो.मगर क्या वाक़ई आने वाले वक़्त में कांग्रेस मजबूत होगी? संशय तब और भी गहरा हो जाता है जब हम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे की वाइल्ड कार्ड एंट्री देखते हैं. सोनिया गांधी के करीबी होने के कारण माना यही जा रहा है कि चुनाव भले कोई भी लड़ ले. लेकिन क्योंकि अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह समेत पार्टी के तमाम छोटे बड़े नेताओं का समर्थन खड़गे को हासिल है इसलिए माना यही जा रहा है कि चाहे वो शशि थरूर हों या फिर केएन त्रिपाठी कोई एड़ी से लेकर चोटी का कितना भी जोर क्यों न लगा ले लाभ मल्लिकार्जुन खड़गे को मिलेगा उन्हीं की होगी. यदि ऐसा होता है और फैसला मल्लिकार्जुन खड़गे के पक्ष में आता है तो ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि कांग्रेस की स्थिति जस की तस रहेगी और आने वाले वक़्त में उसे उन्हीं चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा जिनसे आज वो दो चार हो रही है.

यदि खड़गे अध्यक्ष बन गए तो कांग्रेस को इससे फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा

उपरोक्त बातें सिर्फ बातें नहीं हैं. न ही इनमें किसी तरह की कोई लफ्फाजी है. कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए जब हम मल्लिकार्जुन खड़गे को देखते हैं तो मिलता यही है कि यदि खड़गे चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन गए तो भी उनका रिमोट सोनिया - राहुल गांधी के हाथ में ही रहने वाला है. आइये कुछ बिंदुओं के जरिये समझें कि अगर खड़गे ही अंतिम उम्मीद हैं, तो हमें इस बात को नकारना नहीं चाहिए कि कांग्रेस की नाउम्मीदी यूं ही बरक़रार रहेगी.

जनाधार नहीं

भले ही दलितों को ध्यान में रखकर अध्यक्ष के लिए कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आगे करके एक बड़ा सियासी गेम खेला हो. लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं है कि खड़गे पार्टी के उन गिने चुने नेताओं में हैं जिन्होंने चुनाव तो जीते हैं लेकिन उस जीत में उनकी अपनी कोई मेहनत नहीं थी. जीत भी इसलिए मिली क्योंकि कांग्रेस पार्टी का नाम और सिम्बल उनके साथ था. सवाल ये है कि जिस आदमी को कांग्रेस में ही कई लोग नहीं पहचानते यदि वो अध्यक्ष बन भी गया तो पार्टी का क्या ही फायदा करेगा.

कर्नाटक के बाहर पकड़ नहीं

जैसा कि हम ऊपर ही बता ही चुके हैं, खड़गे की सीवी का सबसे मजबूत पक्ष उनका दलित होना है. अब इस बात को हम यदि कर्नाटक के परिदृश्य में देखें, तो हो सकता है कि आने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में ये चीज खड़गे और कांग्रेस पार्टी को फायदा पहुंचा दे. मगर जब हम एक अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे को कर्नाटक के बाहर देखते हैं तो उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ नहीं है जिसके दम पर वो किसी बाहरी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर ले जाएं. सवाल ये है कि जिस आदमी की कर्नाटक के बाहर कोई पोलिटिकल माइलेज ही नहीं है वो पार्टी को कितना मजबूत और एकजुट रखेगा? सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी ही दे तो बेहतर है.

गांधी परिवार के भरोसेमंद के अलावा कोई पहचान नहीं

चाहे हाल फ़िलहाल के ट्वीट्स हों या विपक्ष के आरोप मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर उनके विरोधियों ने सदैव ही इस बात को बल दिया है कि एक नेता के रूप में उनकी पहचान इतनी ही है कि वो सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पिछलग्गू हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे के विषय में अगर बिलकुल स्पष्ट लहजे में कोई बात कही जाए तो ये कहने में गुरेज न होगा कि गांधी परिवार के भरोसेमंद के अलावा उनकी कोई विशेष पहचान नहीं है. माना जाता है कि अगर पॉलिटिकल करियर में थरूर को सफलता मिली तो उसकी भी वजह यही है.

कांग्रेस के देशव्यापी संगठन पर असर नहीं

हो सकता है मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस पार्टी दक्षिण के राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु के कांग्रेसियों को रिझा ले मगर जब हम दक्षिण से उत्तर में या फिर वहां से पूर्वोत्तर में जाते हैं तो साफ़ पता चलता है कि कांग्रेस की तरफ से अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गेएक कमजोर चॉइस हैं और बड़ा मुश्किल है कि देशव्यापी संगठन पर उनका कोई विशेष असर हो.

मोदी को टक्कर देने वाला करिश्माई तेज नहीं

सबसे अंत में हम इस मुद्दे को उठाना चाहेंगे कि मल्लिकार्जुन खड़गे लाख अच्छे हों, वरिष्ठ नेता हों लेकिन उनके अंदर मोदी को टक्कर देने वाला करिश्माई तेज गैर हाजिर है. विषय बहुत सीधा है. जैसे हालात हैं हर बीतते दिन के साथ देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस गर्त के अंधेरों में जा रही है.ऐसे में जो भी अध्यक्ष रखेगा उसकी ये जिम्मेदारी रहेगी कि वो भाजपा और पीएम मोदी को उन्हीं की शौली में जवाब दे. इन बातों के बाद जब हम मल्लिकार्जुन खड़गे को देखते हैं तो उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसको देखकर ये कह दिया जाए कि वो पीएम मोदी को चुनौती दे पाएंगे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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