• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सियासत

मैनपुरी की खुशी के आगे अखिलेश यादव को रामपुर का गम कितना कम होगा?

    • आईचौक
    • Updated: 11 दिसम्बर, 2022 03:09 PM
  • 11 दिसम्बर, 2022 03:09 PM
offline
अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को सबसे ज्यादा खुशी तो मैनपुरी उपचुनाव (Mainpuri Bypoll) के नतीजे से ही मिली होगी. खतौली में गठबंधन की जीत ने भी काफी राहत दी होगी, लेकिन रामपुर की हार का भी दुख है क्या? क्योंकि वहां तो आजम खान (Azam Khan) की हार हुई है!

मैनपुरी की जीत अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लिए खुशियों के खजाने जैसी ही है. ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि डिंपल यादव ने एक बेहद मुश्किल चुनाव जीत लिया है. ऐसा इसलिए भी नहीं कि अखिलेश यादव ने पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत बरकरार रखने में सफलता हासिल की है या फिर बीजेपी का कब्जा नहीं होने दिया है, बल्कि खतौली सीट तो समाजवादी गठबंधन ने बीजेपी से छीन ही ली है.

असल बात तो ये है कि ये खुशी बड़े दिनों बाद आयी है. ये खुशी बड़ी मेहनत के बाद मिली है. ये खुशी अपने साथ बहुत कुछ लेकर आयी है - और इस खुशी ने रामपुर के हार की तकलीफ भी कम कर दी है.

देखा जाये तो मैनपुरी उपचुनाव (Mainpuri Bypoll) में डिंपल यादव की जीत से दो पुराने जख्मों में बड़ी राहत मिली है. एक ही जीत से 2022 के विधानसभा चुनाव का जख्म जहां काफी हद तक भर गया होगा, 2019 में कन्नौज सीट पर डिंपल यादव की हार का जख्म तो पूरी तरह भर ही गया होगा.

चुनाव नतीजे आने के पहले ही अखिलेश यादव कन्नौज से अगली बार चुनाव लड़ने की भी घोषणा कर चुके हैं - और उसकी तो अलग ही राजनीति लगती है. ऐसा लगता है जैसे अखिलेश यादव के निशाने पर बीएसपी नेता मायावती आ चुकी हैं.

अखिलेश यादव के लिए मैनपुरी चुनाव भी करीब करीब वैसा ही समझा जाएगा, जैसा राहुल गांधी के लिए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे.

मैनपुरी और खतौली उपचुनाव के नतीजों ने आजमगढ़ में धर्मेंद्र यादव की हार की भरपाई भी कर ही दी होगी. लेकिन रामपुर में तो हार की मात्रा डबल हो गयी है. पहले संसदीय सीट गयी, अब विधानसभा सीट भी हाथ से जा चुकी है.

लेकिन क्या अखिलेश यादव के लिए रामपुर में बीजेपी के ही हाथों मिली लगातार दूसरी हार ज्यादा तकलीफदेह रही होगी? या फिर मामला आजम खान (Azam...

मैनपुरी की जीत अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लिए खुशियों के खजाने जैसी ही है. ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि डिंपल यादव ने एक बेहद मुश्किल चुनाव जीत लिया है. ऐसा इसलिए भी नहीं कि अखिलेश यादव ने पिता मुलायम सिंह यादव की विरासत बरकरार रखने में सफलता हासिल की है या फिर बीजेपी का कब्जा नहीं होने दिया है, बल्कि खतौली सीट तो समाजवादी गठबंधन ने बीजेपी से छीन ही ली है.

असल बात तो ये है कि ये खुशी बड़े दिनों बाद आयी है. ये खुशी बड़ी मेहनत के बाद मिली है. ये खुशी अपने साथ बहुत कुछ लेकर आयी है - और इस खुशी ने रामपुर के हार की तकलीफ भी कम कर दी है.

देखा जाये तो मैनपुरी उपचुनाव (Mainpuri Bypoll) में डिंपल यादव की जीत से दो पुराने जख्मों में बड़ी राहत मिली है. एक ही जीत से 2022 के विधानसभा चुनाव का जख्म जहां काफी हद तक भर गया होगा, 2019 में कन्नौज सीट पर डिंपल यादव की हार का जख्म तो पूरी तरह भर ही गया होगा.

चुनाव नतीजे आने के पहले ही अखिलेश यादव कन्नौज से अगली बार चुनाव लड़ने की भी घोषणा कर चुके हैं - और उसकी तो अलग ही राजनीति लगती है. ऐसा लगता है जैसे अखिलेश यादव के निशाने पर बीएसपी नेता मायावती आ चुकी हैं.

अखिलेश यादव के लिए मैनपुरी चुनाव भी करीब करीब वैसा ही समझा जाएगा, जैसा राहुल गांधी के लिए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे.

मैनपुरी और खतौली उपचुनाव के नतीजों ने आजमगढ़ में धर्मेंद्र यादव की हार की भरपाई भी कर ही दी होगी. लेकिन रामपुर में तो हार की मात्रा डबल हो गयी है. पहले संसदीय सीट गयी, अब विधानसभा सीट भी हाथ से जा चुकी है.

लेकिन क्या अखिलेश यादव के लिए रामपुर में बीजेपी के ही हाथों मिली लगातार दूसरी हार ज्यादा तकलीफदेह रही होगी? या फिर मामला आजम खान (Azam Khan) से ज्यादा जुड़े होने के कारण कुछ कम तकलीफ हो रही होगी - या फिर बेहद कम तकलीफ हुई होगी?

ऐसे तमाम सवाल हैं जो कहीं न कहीं अखिलेश यादव की राजनीति के इर्द गिर्द घूमते दिखाई पड़ते हैं. हो सकता है कुछ और भी ऐसे सवाल हों जिनसे अखिलेश यादव खुद भी जूझ रहे हों, लेकिन एक बात पक्की है उपचुनावों के नतीजे आने के बाद अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी के आगे की राह काफी सुकून भरी नजर आ रही होगी.

अव्वल तो अखिलेश यादव ज्यादातर मैनपुरी के आस पास ही फोकस रहे, लेकिन ऐन उसी वक्त उनके कुछ एक्सपेरिमेंट भी रंग दिखाने लगे थे. चाचा शिवपाल यादव को साथ लाने से लेकर कई चुनावों में गठबंधन साथी रहे आरएलडी नेता जयंत चौधरी ने भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद को साथ लाकर जो कमाल किया है, निश्चित तौर वो उनके ताउम्र कायल रहेंगे - शिवपाल यादव और चंद्रशेखर आजाद ने अखिलेश यादव की जो हौसलाअफजाई की है वो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.

अखिलेश को गठबंधन बहुत पसंद है

बिहार में लालू यादव की तरफ यूपी में मुलायम सिंह यादव के मुस्लिम-यादव की राजनीति का अखिलेश यादव को विरासत में मिलना पहले से ही निश्चित था, लेकिन एक सच्चाई उनको हमेशा ही परेशान करती रही - लंबे समय तक M-Y फैक्टर से काम नहीं चलने वाला.

और वो यादव और मुस्लिम के साथ दलित वोटर को जोड़ने कि जुगत में लगे रहे. आखिरकार 2019 के आम चुनाव में उनका सपना सपा-बसपा गठबंधन के रूप में साकार भी हो गया, लेकिन लंबा नहीं चला. चुनाव नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही मायावती ने गठबंधन तोड़ दिया था.

अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनावों की काफी गलतियां सुधार ली है, आगे देखना है.

जैसे तत्कालीन मुख्यमंत्री होते हुए भी अखिलेश यादव 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन को आतुर थे, 2022 के चुनाव में भी वो बार बार कहते रहे, समाजवादियों के साथ अंबेडरकरवादी भी आ जायें तो बात बन जाये. लेकिन मायावती इसे अनसुना करती रहीं. बल्कि, करहल विधानसभा सीट को छोड़ कर हर सीट पर ऐसे ही उम्मीदवारों को बीएसपी का टिकट दिया जिससे समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी हार जाये.

2022 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी से लेकर ओमप्रकाश राजभर तक के साथ गठबंधन किया, लेकिन नतीजे आने के बाद लगा जैसे भगदड़ मच गयी हो. देखते ही देखते शिवपाल यादव और ओम प्रकाश राजभर की गतिविधियां बीजेपी के करीब महसूस की जाने लगीं. बीजेपी ने दोनों में से किसी को भी ज्यादा भाव नहीं दिया. असल में वो गठबंधन ही सत्ता के लिए था, सत्ता नहीं मिली तो साथी दूर भागने लगे. सत्ता नहीं तो गठबंधन नहीं.

मैनपुरी उपचुनाव तो जैसे अखिलेश यादव के लिए आन, बान और शान की लड़ाई बन कर ही आया था. लिहाजा अखिलेश यादव ने पहले से ही सारे इंतजाम कर डाले थे. ऐसा लगा जैसे तीन उपचुनावों की जिम्मेदारी अलग अलग बांट दी गयी थी.

मैनपुरी लोक सभा सीट की जिम्मा अपने हाथ में लेने के बाद अखिलेश यादव ने खतौली का जिम्मा जयंत चौधरी को दे दिया और रामपुर तो पहले से ही आजम खान के हवाले था - लिहाजा बहुत परेशान होने की जरूरत भी नहीं थी. वैसे भी आजम खान को लेकर समाजवादी पार्टी के मुस्लिम विधायकों की नाराजगी के चलते अखिलेश यादव काफी परेशान रह रहे थे.

खतौली की लड़ाई में जयंत चौधरी खुद तो पूरी ताकत से कूदे ही, अपना पक्ष मजबूत करने के लिए भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद को भी साथ लाने में सफल रहे. चंद्रशेखर आजाद ने विधानसभा चुनावों में भी समाजवादी गठबंधन में शामिल होने की कोशिश की थी, लेकिन 'जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' की शर्त अखिलेश यादव ने नामंजूर कर दी थी.

चुनाव नतीजे आये तब जाकर गलती का अहसास हुआ लेकिन भूल सुधार के लिए सही वक्त का इंतजार रहा. उपचुनावों की घोषणा हुई तो अखिलेश यादव को अच्छा मौका दिखा. फिर क्या था, डिंपल यादव को लेकर अखिलेश यादव चाचा शिवपाल को मनाने पहुंच गये - और जयंत चौधरी के जरिये चंद्रशेखर आजाद को साध लिया. अब शिवपाल यादव की जहां समाजवादी पार्टी में वापसी हो चुकी है, जयंत चौधरी ने सार्वजनिक तौर पर बोल दिया है कि चंद्रशेखर आजाद भी समाजवादी गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं.

चुनाव जीतने के बाद आरएलजी उम्मीदवार मदन भैया चंद्रशेखर आजाद से मिलने पहुंचे तो बोले, 'खतौली की जनता का धन्यवाद है और ये गठबंधन की जीत है... विशेष रूप से भाई चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है - और 2024 के लिए एक नींव पड़ चुकी है.'

जीत के बाद चंद्रशेखर आजाद ने भी पूरी भड़ास निकाल कर रख दी, 'जनता ने साबित किया कि जो बीजेपी कहती थी कोई हरा नहीं सकता... मुख्यमंत्री खुद इस चुनाव में आये और जनता ने वोट से इनको सबक सिखाने का काम किया... गठबंधन की जीत पर सबसे पहले खतौली वासियों को बधाई.'

मायावती के लिए भी कोई मैसेज है क्या: अखिलेश यादव के एक बयान के बाद छिटपुट एक चर्चा ये भी चल रही है कि क्या वो खुद को प्रधानमंत्री पद का भी दावेदार मानने लगे हैं? ऐसी चर्चा के पीछे अखिलेश यादव का ही एक बयान है. कन्नौज में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद अखिलेश यादव का कहना था कि 2024 का चुनाव वो लड़ सकते हैं.

अखिलेश यादव से मीडिया का सवाल था - आप लोकसभा चुनाव 2024 में उम्मीदवार होंगे? कन्नौज से उम्मीदवारी पेश करेंगे? ये ऐसा सवाल था जिसका जवाब अखिलेश यादव सीधे सीधे भी दे सकते थे. खासकर आजमगढ़ लोक सभा के सदस्य के रूप में इस्तीफा देकर विधायक बन कर लखनऊ में रह की राजनीति करने का संदेश देने के बाद, लेकिन अखिलेश यादव ने ऐसा नहीं किया.

अखिलेश यादव ने सवाल का गोलमोल जवाब दे दिया. जवाब का अंदाज भी कुछ हद तक सवालिया ही था, 'हम नेता हैं... चुनाव नहीं लड़ेंगे तो क्या करेंगे? लड़ेंगे.'

अखिलेश यादव ने एक राजनीतिक बयान देकर कई और भी सवाल खड़े कर दिये हैं? क्या वास्तव में वो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे हैं? या फिर चंद्रशेखर आजाद के साथ आ जाने के बाद मायावती को कोई संदेश देना चाहते हैं?

रामपुर की हार का भी कोई अफसोस है क्या?

यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त आजम खान जेल में थे. रामपुर लोक सभा से सांसद होने के बावजूद जेल से ही वो समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े जीते भी. समाजवादी गठबंधन से आजम खान सहित 61 मुस्लिम नेताओं को टिकट मिला था - और उनमें 34 जीते भी. 34 में से 31 समाजवादी पार्टी से विधायक बने थे. दो जयंत चौधरी और माफिया डॉन मुख्तार अंसारी का बेटा अब्बास अंसारी, ओम प्रकाश राजभर की पार्टी के टिकट पर - खास बात ये रही कि 21 मुस्लिम विधायक पश्चिम यूपी से चुने गये हैं.

लेकिन फिर आजम खान को एक केस में सजा हो गयी, और वो सदस्यता गवां बैठे. आजम खां रामपुर लोक सभा उपचुनाव के पहले ही जेल से छूटे थे और वहां से टिकट की जिम्मेदारी अखिलेश यादव ने उनको ही दे दी थी. ऐसा करने की वजह ये लगी क्योंकि आजम खान के जेल में रहते ज्यादातर मुस्लिम विधायकों ने अखिलेश यादव के खिलाफ मुहिम सी चला रखी थी. एक बार तो ऐसा लगा जैसे पार्टी ही तोड़ देंगे.

बहरहाल, अखिलेश यादव ने जैसे तैसे आजम खान से मिल कर और अलग अलग तरीके से संदेश देकर विधायकों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की. और काफी हद तक सफल भी रहे, लेकिन अंदर ही अंदर ऐसा लग रहा था जैसे आजम खान को अखिलेश यादव धीरे धीरे बोझ जैसा महसूस करने लगे हैं. मगर, कहें तो कैसे कहें?

AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी अब अखिलेश यादव से ऐसे ही सवाल पूछने लगे हैं - आजम खान क्यों हारे? अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव क्यों जीत गईं? आरएलडी का कैंडिडेट क्यों जीत गया? हम तो नहीं लड़े न?

ओवैसी उस तरफ इशारे कर रहे थे जिसमें उन पर इल्जाम लगाया जाता है कि मुस्लिम बहुल सीटों पर उम्मीदवार उतार कर वोटों का बंटवारा कर देते हैं और बीजेपी की जीत पक्की हो जाती है. बिहार की गोपालगंज सीट और अभी अभी कुढ़नी को लेकर भी ऐसी ही बातें की जा रही हैं.

AIMIM के एक प्रवक्ता का तो यहां तक कहना रहा, "पत्नी डिंपल यादव को जिताने के लिए रामपुर की सीट जानबूझकर हारी है. अखिलेश यादव ने मैनपुरी और रामपुर के नतीजों को लेकर बीजेपी से सांठगांठ कर ली थी... पत्नी की जीत के लिए अखिलेश यादव ने आजम खान को रामपुर में बलि का बकरा बना दिया.'

ओवैसी की पार्टी के प्रवक्ता का इल्जाम है कि आजम खान मोहरे की तरह इस्तेमाल किये गये, 'आजम खान को अब ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि अखिलेश यादव उनका सिर्फ इस्तेमाल करते हैं.'

इन्हें भी पढ़ें :

कुढ़नी का रिजल्ट बता रहा है कि बीजेपी के खिलाफ नीतीश का बंदोबस्त कमजोर है

अमित शाह, नाम ही काफी है - कहानी एलिसब्रिज सीट पर बीजेपी को मिली प्रचंड जीत पर!

कांग्रेस और केजरीवाल का चुनावी प्रदर्शन विपक्ष के लिए उम्मीदों की किरण है


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    अब चीन से मिलने वाली मदद से भी महरूम न हो जाए पाकिस्तान?
  • offline
    भारत की आर्थिक छलांग के लिए उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण क्यों है?
  • offline
    अखिलेश यादव के PDA में क्षत्रियों का क्या काम है?
  • offline
    मिशन 2023 में भाजपा का गढ़ ग्वालियर - चम्बल ही भाजपा के लिए बना मुसीबत!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲