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मैनपुरी में डिंपल ने इतिहास रचा तो है लेकिन अखिलेश को इस जीत से सबक जरूर लेना चाहिए!

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 09 दिसम्बर, 2022 01:38 PM
  • 09 दिसम्बर, 2022 01:38 PM
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मैनपुरी उपचुनाव में ससुर की सीट पर बहू पर दांव लगाने का समाजवादी पार्टी का टोटका कामयाब हुआ है. डिंपल ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है. लेकिन इस जीत पर सपा को खुश होने की कोई बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है विषय सीधा है. मैनपुरी सपा का गढ़ था. यदि समाजवादी पार्टी यहां भी कमाल नहीं कर पाती तो उसे राजनीति करने का कोई हक़ नहीं था.

समाजवादी खेमा उसमें भी अखिलेश यादव खुश और संतुष्ट हैं. पार्टी द्वारा जो दांव मैनपुरी उपचुनावों के मद्देनजर डिंपल यादव पर खेला गया वो कारगर साबित हुआ. मैनपुरी उपचुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) की उम्मीदवार डिंपल यादव ने 64.08 प्रतिशत वोट शेयर के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज की है. उपचुनाव में डिम्पल को कुल 618120 वोट मिले हैं. जबकि इस जीत पर भाजपा के उम्मीदवार रघुराज सिंह शाक्य को कुल 329659 वोट हासिल हुए हैं. बताया जा रहा है कि जैसे ही वोटों की गिनती हुई और कुछ घंटे बीते वोटों के लिहाज से भाजपा के रघुराज सिंह शाक्य काफी पीछे हो गए थे और तब ही ये मान लिया गया था कि भाजपा के लिए इस सीट को निकालना एक टेढ़ी खीर होगा. सीट पर दिलचस्प ये रहा कि मुकाबला समाजवादी पार्टी बनाम भारतीय जनता पसारती रहे इसलिए चाहे वो कांग्रेस रही हो या फिर बहुजन समाज पार्टी, दोनों ही दलों में से किसी ने भी मैनपुरी उपचुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा.

मुलायम की मौत के बाद मैनपुरी उपचुनावों में डिंपल यादव इतिहास लिखने से बस कुछ ही दूरी पर हैं

मैनपुरी सीट को जीतना सपा खेमे के लिए क्यों जरूरी था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मैनपुरी सीट को तमाम पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स समाजवादी पार्टी की आन बान और शान से जोड़कर देखते हैं. समाजवादी पार्टी मैनपुरी के प्रति किस हद तक गंभीर थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने स्वयं इस सीट पर पत्नी डिंपल यादव के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी और उग्र प्रचार किया था.

ध्यान रहे कि लंबी बीमारी के बाद सपा संरक्षक मुलायम सिंह की मौत हुई थी और उपचुनाव के लिए 5 दिसंबर को मतदान हुआ था. भले ही आज डिंपल इस सीट पर इतिहास लिखने और अपनी विरासत को आगे ले जाने में कामयाब हो गयी हों मगर...

समाजवादी खेमा उसमें भी अखिलेश यादव खुश और संतुष्ट हैं. पार्टी द्वारा जो दांव मैनपुरी उपचुनावों के मद्देनजर डिंपल यादव पर खेला गया वो कारगर साबित हुआ. मैनपुरी उपचुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) की उम्मीदवार डिंपल यादव ने 64.08 प्रतिशत वोट शेयर के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज की है. उपचुनाव में डिम्पल को कुल 618120 वोट मिले हैं. जबकि इस जीत पर भाजपा के उम्मीदवार रघुराज सिंह शाक्य को कुल 329659 वोट हासिल हुए हैं. बताया जा रहा है कि जैसे ही वोटों की गिनती हुई और कुछ घंटे बीते वोटों के लिहाज से भाजपा के रघुराज सिंह शाक्य काफी पीछे हो गए थे और तब ही ये मान लिया गया था कि भाजपा के लिए इस सीट को निकालना एक टेढ़ी खीर होगा. सीट पर दिलचस्प ये रहा कि मुकाबला समाजवादी पार्टी बनाम भारतीय जनता पसारती रहे इसलिए चाहे वो कांग्रेस रही हो या फिर बहुजन समाज पार्टी, दोनों ही दलों में से किसी ने भी मैनपुरी उपचुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा.

मुलायम की मौत के बाद मैनपुरी उपचुनावों में डिंपल यादव इतिहास लिखने से बस कुछ ही दूरी पर हैं

मैनपुरी सीट को जीतना सपा खेमे के लिए क्यों जरूरी था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मैनपुरी सीट को तमाम पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स समाजवादी पार्टी की आन बान और शान से जोड़कर देखते हैं. समाजवादी पार्टी मैनपुरी के प्रति किस हद तक गंभीर थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने स्वयं इस सीट पर पत्नी डिंपल यादव के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी और उग्र प्रचार किया था.

ध्यान रहे कि लंबी बीमारी के बाद सपा संरक्षक मुलायम सिंह की मौत हुई थी और उपचुनाव के लिए 5 दिसंबर को मतदान हुआ था. भले ही आज डिंपल इस सीट पर इतिहास लिखने और अपनी विरासत को आगे ले जाने में कामयाब हो गयी हों मगर समाजवादी पार्टी इस सीट पर डिंपल को उतारेगी अखिलेश यादव के इस फैसले ने सपा के खेमे में बैठे तमाम मठाधीशों के बीच बेचैनी बढ़ाई थी.

इस सीट को लेकर गफलत इसलिए भी थी क्योंकि मुलायम की मौत के बाद अखिलेश के चचेरे भाई और मैनपुरी के ही पूर्व लोकसभा सांसद तेज प्रताप यादव को इस सीट पर समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार माना जा रहा था. बाद में अखिलेश ने अपने निर्णय को बदला और ससुर की सीट पर बहू को मौका दिया.

उपचुनाव में डिंपल की इस एकतरफा बढ़त से भले ही सपा को जश्न मनाने का मौका मिला हो. लेकिन एक बड़ा सवाल जो हमारे सामने आता है वो ये कि क्या मुलायम के परलोक सिधारने के बाद वाक़ई मैनपुरी सीट को लेकर इतनी मेहनत इतने उग्र प्रचार की जरूरत थी? सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस सीट पर जैसा रुख, प्रचार के दौरान पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव का रहा उसने तमाम राजनीतिक पंडितों को हैरत में डाल दिया था.

सीट फ़तेह करने के लिए जैसी रणनीति अखिलेश ने बनाई थी पार्टी के अंदर भी जबरदस्त घमसान देखने को मिला था. कहा तो यहां तक गया कि यदि अखिलेश ने इसकी आधी मेहनत यूपी विधानसभा चुनावों में की होती तो पार्टी की दशा और दिशा दोनों ही अलग होती.

जिक्र मैनपुरी में डिंपल द्वारा भाजपा के उम्मीदवार को बुरी तरह पिछाड़ने और इतिहास रचने का हुआ है तो हम इतना जरूर कहेंगे कि बतौर जनता हमें डिंपल की इस जीत पर इसलिए भी बहुत ज्यादा हैरत नहीं करनी चाहिए क्योंकि शुरू से ही ये सीट समाजवादी पार्टी के लिए किसी अभेद किले की तरह रही है.

चूंकि मैनपुरी को लेकर जनता ने अपना मैंडेट सुना ही दिया है तो हम बस ये कहकर अपनी बातों को विराम देंगे कि अगर इस सीट पर डिंपल की हार होती तो चाहे वो समाजवादी पार्टी हो या फिर पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव. उन्हें राजनीति करने का कोई हक़ नहीं था और उन्हें अपना बोरिया बिस्तर बांध लेना था.

भले ही मैनपुरी में सपा को जीत का मजा मिला हो. मगर बतौर पार्टी प्रमुख अखिलेश को समझना होगा कि कुछ सीटें ऐसी हैं जिनपर उनका (समाजवादी पार्टी का ) एकाधिकार है और मैनपुरी ऐसी ही सीट थी इसलिए यदि डिंपल की जीत के लिए अखिलेश को इस सीट पर भी जी जान एक करनी पड़ी है तो वो समझ लें कि अब वो वक़्त आ गया है जब उन्हें अपनी नीतियां बदल लेनी चाहिए वरना पब्लिक राजा से रंक बनाने में वक़्त नहीं लगाएगी. 

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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