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यूपी चुनाव प्रचार की 12 अहम बातें जो बड़ा इशारा हैं

    • राहुल कंवल
    • Updated: 21 फरवरी, 2017 12:42 PM
  • 21 फरवरी, 2017 12:42 PM
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यूपी चुनाव को लेकर पहले भी बहुत सी बातें हो चुकी हैं, लेकिन इस पक्ष में 12 अहम बातें हैं जिनपर ध्यान देता जरूरी है. ये 12 बातें ही यूपी का भविष्य तय करने में सक्षम हैं.

यूपी चुनाव प्रचार को लेकर ऐसा बहुत कम ही होगा जिसे लिखा ना जा चुका हो या कहा ना जा चुका हो. हाल में जहां तक यादाश्त जाती है ऐसा कोई विधानसभा चुनाव नहीं रहा होगा जिसमें इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों ने हर चुनावी उतार चढ़ाव को सियासी माइक्रोस्कोप से इस तरह आंखें गढ़ा कर देखा हो. पिछले 15 दिन मैंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और अवध के अलग-अलग हिस्सों की यात्राएं करते गुजारे. इन यात्राओं के दौरान मुझे अमित शाह, राजनाथ सिंह, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, प्रशांत किशोर और यूपी चुनाव के कुछ और अहम दिग्गजों के साथ वक्त बिताने का मौका मिला. मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भाषण भी सुने.

साथ ही जो भी व्यक्ति मेरे संपर्क में आए, मैंने उससे जानना चाहा कि वो चुनाव में अहम दावेदारों के बारे में क्या सोचते हैं और वो चुनाव में क्या करने का इरादा रखते हैं. मैंने जो अनुभव किया उसी के आधार पर मैं निष्कर्ष रख रहा हूं कि अभी तक क्या हो चुका है और आखिरी चार चरणों में क्या बदलाव हो सकता है. हमेशा कि तरह इस बार भी मेरा चॉपिंग ब्लॉक पर अपनी गर्दन रखने का इरादा नहीं है, इसलिए मैं ये अनुमान लगाने से बचूंगा कि मेरी राय में कौन जीत रहा है. नीचे दिए निचोड़ में मैं स्वयं को वहीं तक सीमित रखूंगा जहां तक किसी गैर-पक्षपाती पर्यवेक्षक की हद होती है.     

1. यूपी में बीजेपी का भविष्य हिंदू जमावड़े पर टिका

प्रधानमंत्री ने रविवार को फतेहपुर में दिए भाषण में 'कब्रिस्तान बनाम श्मशान घाट' की बहस को बेशक तूल दिया हो लेकिन बीजेपी के अन्य सभी नेताओं के भाषणों में शुरू से ही साम्प्रदायिक गूंज मुखरता से सुनाई देती रही है. बीजेपी का मुख्य जोर इसी बात पर रहा है कि समाजवादी पार्टी सरकार ने बीते 5 साल अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टिकरण में ही बिताए और अब चीजों को दुरूस्त करने का वक्त है.

यूपी चुनाव प्रचार को लेकर ऐसा बहुत कम ही होगा जिसे लिखा ना जा चुका हो या कहा ना जा चुका हो. हाल में जहां तक यादाश्त जाती है ऐसा कोई विधानसभा चुनाव नहीं रहा होगा जिसमें इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों ने हर चुनावी उतार चढ़ाव को सियासी माइक्रोस्कोप से इस तरह आंखें गढ़ा कर देखा हो. पिछले 15 दिन मैंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड और अवध के अलग-अलग हिस्सों की यात्राएं करते गुजारे. इन यात्राओं के दौरान मुझे अमित शाह, राजनाथ सिंह, अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, प्रशांत किशोर और यूपी चुनाव के कुछ और अहम दिग्गजों के साथ वक्त बिताने का मौका मिला. मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भाषण भी सुने.

साथ ही जो भी व्यक्ति मेरे संपर्क में आए, मैंने उससे जानना चाहा कि वो चुनाव में अहम दावेदारों के बारे में क्या सोचते हैं और वो चुनाव में क्या करने का इरादा रखते हैं. मैंने जो अनुभव किया उसी के आधार पर मैं निष्कर्ष रख रहा हूं कि अभी तक क्या हो चुका है और आखिरी चार चरणों में क्या बदलाव हो सकता है. हमेशा कि तरह इस बार भी मेरा चॉपिंग ब्लॉक पर अपनी गर्दन रखने का इरादा नहीं है, इसलिए मैं ये अनुमान लगाने से बचूंगा कि मेरी राय में कौन जीत रहा है. नीचे दिए निचोड़ में मैं स्वयं को वहीं तक सीमित रखूंगा जहां तक किसी गैर-पक्षपाती पर्यवेक्षक की हद होती है.     

1. यूपी में बीजेपी का भविष्य हिंदू जमावड़े पर टिका

प्रधानमंत्री ने रविवार को फतेहपुर में दिए भाषण में 'कब्रिस्तान बनाम श्मशान घाट' की बहस को बेशक तूल दिया हो लेकिन बीजेपी के अन्य सभी नेताओं के भाषणों में शुरू से ही साम्प्रदायिक गूंज मुखरता से सुनाई देती रही है. बीजेपी का मुख्य जोर इसी बात पर रहा है कि समाजवादी पार्टी सरकार ने बीते 5 साल अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टिकरण में ही बिताए और अब चीजों को दुरूस्त करने का वक्त है.

 

बिहार में करारी शिकस्त से बीजेपी ने जो अहम सबक सीखा है वो है कि पार्टी विकास को ही अहम मुद्दे के तौर पर पेश करती रही, वहीं लालू और नीतीश के मजबूत जातीय अंकगणित ने भगवा पार्टी की संभावनाओं को पूरी तरह डुबो दिया. अमित शाह ने 2014 जैसे गैर यादव अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अति पिछड़ा वर्ग (MBC) को एकजुट कर बिहार में जो बची-खुची उम्मीद लगा रखी थी उस पर मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान ने पानी फेर दिया था. 

बुंदेलखंड के विभिन्न हिस्सों में अमित शाह के साथ पूरा दिन बिताने के दौरान देखा कि शाह को प्रचार के दौरान सबसे ज्यादा तालियां और समर्थन तभी मिला जब उन्होंने राज्य में वधशालाओं पर प्रतिबंध लगाने की बात कही. शाह का आरोप है कि अखिलेश सरकार के दौरान वधशालाओं को बड़े पैमाने पर पनपने का मौका मिला. पहले ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित था लेकिन अब ये यूपी के अन्य हिस्सों में भी फैल गया है. शाह का आरोप है कि इन वधशालाओं में अन्य पशुओं के साथ चोरी-छुपे गायों का भी वध होता है.

वधशालाओं पर प्रतिबंध लगाने के वादे के साथ ही बीजेपी तीन तलाक के मुद्दे को भी जोर-शोर से उठा रही है. पार्टी साथ ही आरोप लगा रही है कि लैपटॉप वितरण में अखिलेश अपने समर्थकों को लेकर पक्षपाती रहे.

बीजेपी नेतृत्व पार्टी के प्रचार अभियान में साम्प्रदायिक पुट को लेकर जरा भी संकोच बरतते नहीं दिखा. हिंदुओं से अपनी धार्मिक पहचान को मस्तिष्क में सबसे ऊपर रख कर वोट कराया जा सके, यही बीजेपी के लिए यूपी जीतने की कुंजी है. पहले तीन चरणों के मतदान से बीजेपी को जो फीडबैक मिला है, उसके आधार पर पार्टी मानती है कि उसने हिंदू ताकतों को बड़े पैमाने पर एकजुट करने के लिए पर्याप्त काम किया है और यही अल्पसंख्यक समर्थित विपक्ष को मात देने में सक्षम रहेगा.  

 2. समर्थन को लेकर अल्पसंख्यकों के आक्रामक दिखावे पर प्रतिक्रिया होना तय   

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों से मिली रिपोर्ट्स के मुताबिक मुस्लिम युवाओं ने शहरों और कस्बों में एसपी-कांग्रेस गठबंधन के समर्थन में मोटरसाइकिलों पर रैलियां निकालीं. इस घटनाक्रम से गठबंधन के उन मैनेजरों को बेचैनी हुई जो चाहते थे कि अल्पसंख्यक समुदाय समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को समर्थन देने को लेकर बहुत ज्यादा मुखर नहीं दिखे. गठबंधन के रणनीतिकार चाहते हैं कि मुस्लिम शांत रहे और अपने समर्थन का खुला इजहार नहीं करे. इसकी जगह वो मतदान वाले दिन गठबंधन के लिए जाकर वोट दें.  

शुरुआत में कुछ संदेह थे कि अल्पसंख्यक किसके पक्ष में वोट करेंगे. लेकिन पहले तीन चरणों के मतदान के जो ट्रेंड सामने आए उनके मुताबिक अल्पसंख्यकों ने अधिकतर गठबंधन का ही समर्थन किया. इसके अपवाद के तौर पर उन सीटों के नाम लिए जा सकते हैं जहां बीएसपी ने मजबूत अल्पसंख्यक उम्मीदवार खड़े किए. गठबंधन के एक टॉप रणनीतिकार कहते हैं कि 'धर्मनिरपेक्ष गठबंधन' के लिए अल्पसंख्यक समर्थन वैसा मजबूत तो नहीं दिखा जैसा कि बिहार में दिखा था लेकिन मुस्लिमों का वोटिंग का रुझान अधिकतर गठबंधन के पक्ष में ही दिखा.  बीजेपी ने यह फैलाने में पूरी ताकत झोंकी कि अल्पसंख्यक बड़ी संख्या में गठबंधन के लिए वोट कर रहे हैं और हिंदुओं को गठबंधन को जीतने से रोकने के लिए एकजुट होना चाहिए. अल्पसंख्यकों की ओर से समर्थन का आक्रामक प्रदर्शन बहुसंख्यक समुदाय की मानसिकता पर असर डालता है और इससे कुछ वोटर प्रभावित हो सकते हैं.

ध्रुवीकरण का स्तर कहीं से भी वैसा नहीं है जैसा कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद दिखा था लेकिन हिंदू जमावड़ा निश्चित तौर पर इस विधानसभा चुनाव में बड़ा कारक है. अगर बीजेपी फिनिशिंग लाइन को पहले पार करने में कामयाब रहती है तो उसकी जीत के पीछे बहुसंख्यक एकजुटता का अहम हाथ रहेगा.  

 3. भैयामेनिया

एक ऐसा राज्य, जहां शासन टेढ़ी खीर माना जाता है, वहां किसी मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा होते होते तेज सत्ता विरोधी लहर चलना स्वाभाविक माना जाता है. ऐसा सभी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों के साथ अब दो दशक से होता आ रहा है. हकीकत तो ये है कि बहुत से राजनीतिक पंडित भी इस बार संशय में हैं कि आखिर यूपी में होगा क्या. ऐसी स्थिति के लिए मुख्य रूप से अखिलेश यादव की सकारात्मक छवि को वजह माना जा सकता है, जिन्हें उनके समर्थक भैया के नाम से बुलाते हैं. ऐसे मतदाता भी जो अखिलेश को वोट देने का इरादा नहीं करते वो भी अखिलेश के बारे में ज्यादा कुछ नकारात्मक कहने की स्थिति में नहीं हैं.

पूरे यूपी में अखिलेश की रैलियों में जोश से भरे उनके युवा समर्थकों का जमघट देखा जा सकता है. युवाओं, खास तौर पर यादवों और मुस्लिमों में भैयामेनिया अंदर तक पैठ कर गया है. समर्थकों के बीच अखिलेश की छवि पॉलिटिकल रॉकस्टार जैसी है. अखिलेश पहले यादव नेता हैं जिन्होंने अपनी पार्टी के पारंपरिक वोट बैंक से इतर लोगों में अपने लिए सकारात्मक छवि बनाई है. अखिलेश जीतें या हारें लेकिन इतना तय है कि वो उत्तर प्रदेश की सियासत में लंबे समय तक एक धुरी बने रहेंगे.

पीएम मोदी की तरह अखिलेश ने भी मार्केटिंग में मास्टर क्लास ली लगती है. पूरे प्रचार अभियान के दौरान अखिलेश ने अपना संदेश सकारात्मक बनाए रखा. उस नकारात्मकता से खुद को दूर रखा जिसका सहारा उनके विरोधी उन पर हमले करने के लिए लेते रहे हैं. अखिलेश लखनऊ का चेहरा बदल चुके हैं. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे के अतिरिक्त सड़कों की स्थिति पहले से बेहतर हुई है लेकिन अब भी यूपी की सड़कें देश में सबसे बदतर हैं. यूपी में रोजगार पैदा करना बड़ी समस्या है, वहीं तेजी से बढ़ती आबादी रोजगार की तलाश में हताश हो रही है.

4. मोदी के सितारे की सबसे तेज चमक

प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को करीब 3 साल पूरे होने जा रहे हैं लेकिन मोदी के आकर्षण में कोई कमी नहीं आई है. इस संवाददाता ने 2014 के प्रचार अभियान के दौरान भी मोदी की कई रैलियां सुनीं. 2014 अभियान के उन्मादी शिखर से तुलना की जाए तो जोश के स्तर में थोड़ी कमी आई है लेकिन अब भी मोदी के लिए उत्सुकता बरकरार है. एक प्रधानमंत्री के लिए जो अपने आधे कार्यकाल के बीच में है ये उपलब्धि उल्लेखनीय है. कार्यकाल का मध्य ही वो समय होता है जब अकसर सत्ता विरोधी रूझान बनना शुरू होता है लेकिन अभी तक इस वायरस ने मोदी को नहीं काटा है. अच्छे दिन बेशक ना आए हों लेकिन लोगों को अब भी प्रधानमंत्री पर बहुत भरोसा है. उनका मानना है कि भारत की समस्याओं का समाधान प्रधानमंत्री के पास है. यूपी की जंग आखिर कोई भी जीते लेकिन 2019 के आम चुनाव में मोदी को हराना विपक्ष के लिए असंभव से कम नहीं होगा.

5. बीजेपी नोटबंदी को ज्यादा तूल देने के पक्ष में नहीं

साक्षात्कारों में बीजेपी नेता बेशक कहते रहें कि अगर 2017 चुनाव को नोटबंदी पर जनादेश माना जाता है तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं. दूसरी ओर जमीनी हकीकत ये है कि बीजेपी नेतृत्व अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा है कि लोगों को नोटबंदी का दर्द दोबारा याद ना कराया जाए. मैंने अमित शाह के साथ जो पूरा दिन बिताया, उसमें उन्होंने चार रैलियों को संबोधित किया और एक बार भी कहीं नोटबंदी का जिक्र नहीं किया. गृह मंत्री राजनाथ सिंह नोटबंदी पर बोले लेकिन वो भी सभा के आखिर में, खानापूर्ति के अंदाज में. बीजेपी मतदाताओं को नोटबंदी के फायदों पर आश्वस्त करने की जगह उन्हें आगे बढ़ने का संदेश देना चाहती है. बीजेपी चाहती है कि मतदाता समझें कि उन्होंने जो पीड़ा झेली वो बड़े राष्ट्रीय हित में है और आने वाले समय में इससे अर्थव्यवस्था को लाभ होगा.    

 6. चुनाव पर नोटबंदी के मुद्दे का असर नहीं

मोदी के विरोधियों, खास तौर पर राहुल गांधी, ने बड़ा वक्त लोगों को नोटबंदी की पीड़ा याद कराने में लगाया. वे चाहते थे कि इस चुनाव में नोटबंदी मुख्य मुद्दा बने. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. व्यापारी समुदाय नोटबंदी को उन पर थोपने के लिए बेशक बीजेपी से नाखुश है लेकिन उनके मोदी के विरोधियों को वोट देने की संभावना नहीं के बराबर है. ऐसी रिपोर्ट आईं कि जोर-शोर से अपनी व्यथा बताने वाले बनिए चुनाव में अलग रह सकते हैं और बीजेपी से नाखुश होने की वजह से वोट नहीं देने का फैसला ले सकते हैं लेकिन मतदान वाले दिन ये समुदाय बीजेपी के लिए वोट देता नजर आया. बीजेपी की गणना के हिसाब से व्यापारी नोटबंदी से ज्यादा समाजवादियों के तहत कानून-व्यवस्था की हालत को नापसंद करते हैं. नोटबंदी की वजह से बीजेपी के खिलाफ वोट करने वालों की संख्या इतनी नहीं कि उससे चुनाव का नतीजा ही पलट जाए.

 7. राहुल ने रणनीति को सुधारा

मैंने पंजाब चुनाव प्रचार अभियान को कवर करते वक्त भी कहा था, अब फिर कह रहा हूं कि राहुल गांधी ने लोगों के बीच बोलने की कला को पहले से सुधारा है. अतीत की तुलना में उनके संदेश अब अधिक धारदार हैं. इस चुनाव में राहुल गांधी अपनी रैलियों में जो कहना चाह रहे हैं लोग उसे वास्तव में सुन रहे हैं. सुनने में ये अटपटा लगे लेकिन इस संवाददाता ने 2014 प्रचार अभियान के दौरान खुद देखा था कि राहुल गांधी जनसभाओं में जैसे ही बोलना शुरू करते थे लोग उठकर चलना शुरू कर देते थे. लेकिन अब वो स्थिति नहीं रही है.  

हालांकि मोदी को आप सुनें तो उनकी तुलना में राहुल फीके लगने लगते हैं. हमने यूपी के हरदोई जिले में दो घंटे के अंतर पर दोनों को सुना. सीधा कहें तो दोनों में कोई तुलना नहीं है. राहुल के पिता राजीव गांधी भी हिंदी के ओजस्वी वक्ता नहीं थे लेकिन उनके सामने विरोधी के तौर पर मोदी जैसी कोई छवि नहीं थी. प्रयत्न करने के बावजूद राहुल गांधी के पास मोदी की घोर वाकपटुता की काट नहीं है.

 8. राजनाथ ने कभी बीजेपी का सीएम चेहरा बनने से इनकार नहीं किया  

बीजेपी में अंदरखाने ऐसी बात उछल कर सामने आने की चर्चा थी कि राजनाथ सिंह को यूपी में सीएम के लिए पार्टी का चेहरा बन कर जाने के लिए कहा जा सकता है लेकिन गृह मंत्री ने दिल्ली छोड़ने के लिए मना कर दिया. लेकिन ये महज अटकल ही साबित हुई. इस संवाददाता के पास ऐसा मानने के कारण मौजूद हैं कि राजनाथ सिंह को ना तो मोदी और ना ही शाह ने यूपी में पार्टी का चेहरा बन कर जाने के लिए कहा. गृह मंत्री के करीबी सूत्रों के मुताबिक अगर उन्हें औपचारिक तौर पर ऐसा प्रस्ताव किया जाता तो वे सकारात्मक तौर पर इसे स्वीकार करते.

बीजेपी का तर्क ये नजर आता है कि ठाकुर जैसे सवर्ण, जिस समुदाय से राजनाथ आते हैं, किसी भी सूरत में पार्टी का ही समर्थन करेंगे. मोदी-शाह टीम की मुख्य कोशिशों में से एक ये है कि बीजेपी की अपील का दायरा गैर यादव ओबीसी और अति पिछड़ा वर्गों (एमबीसी) में बढ़ाया जाए. पार्टी का गणित ये है कि केशव प्रसाद मौर्य जैसे व्यक्ति को आगे कर कुशवाहा जैसे पिछड़े वर्गों में समर्थन बढ़ाया जा सकता है.

उपरोक्त तर्क का प्रतिवादद ये है कि कई मतदाता जो केंद्र में मोदी को समर्थन करते हैं वो पूछ रहे हैं कि यूपी में सीएम के लिए बीजेपी का चेहरा कौन है? राजनाथ जैसे कद्दावर नेता को इसके लिए आगे करने से इस सवाल का जवाब हासिल करने में मदद मिलती. अगर बीजेपी जीतती है तो रणनीतिकार दावा कर सकते हैं कि उनका गेम-प्लान कारगर रहा. यदि बीजेपी जीत से दूर रह जाती है तो सवाल उठेंगे कि क्या ये असुरक्षा का बोध था जिसने यूपी में सबसे ऊंचे कद वाले नेता को पार्टी का सीएम का चेहरा बनने से रोका.

9. जाटों का गुस्सा बीजेपी के लिए बड़ी समस्या

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की ओर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आखिरी मौके पर अपील किए जाने के बावजूद ये बहुत साफ है कि जाट बीजेपी के खिलाफ उबल रहे हैं. हरियाणा में जाट आंदोलन पर सख्ती बरते जाने के बाद जाट खुद को छला सा महसूस कर रहे हैं जबकि 2014 चुनाव में उन्होंने बीजेपी को भरपूर समर्थन दिया था. यूपी चुनाव के पहले अहम चरण में जाटों के वोट करने के ट्रेंड के पीछे एक कारण बीजेपी को सबक सिखाने की भावना भी रहा. बीजेपी के नेता तक स्वीकार करते हैं कि कई जाटों ने पार्टी के लिए वैसे वोट नहीं किया जैसे कि 2014 में किया था. जाटों का बड़ा गुस्सा हरियाणा से छनकर सटे हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में आया. बीजेपी को ये समझ में आया कि ऐसे राज्य में जाट हितों को बुझाना वास्तविक समस्या है जहां पार्टी की संभावनाओं के लिए जाट वोट बहुत मायने रखते हैं. अगर जाट समुदाय के उबाल को काबू में नहीं लाया गया तो हरियाणा में कार्यकाल  के बीच में ही नेतृत्व परिवर्तन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

10. मुलायम सिंह ने अब भी सब कुछ नहीं खोया

अगर बीते कुछ महीनों में मुलायम सिंह यादव के क्रियाकलापों पर टिप्पणी की जाए तो कई विश्लेषक हैरान हैं कि क्या उन पर उम्र हावी हो गई है और वो हाशिए पर चले गए हैं. इंडिया टुडे की एक टीम ने नेताजी के साथ दो घंटे बिताए, साथ ही उन्हें इंटरव्यू के लिए भी तैयार कर लिया. अतीत को लेकर कुछ मौकों पर वो उलझे लेकिन उनके अधिकतर जवाब धारदार थे. वे पूरी तरह अपने नियंत्रण में दिखे. वे कहीं से भी तीव्र मनोभ्रंश के शिकार दिखाई नहीं दिए जैसा कि उनके लिए नकारात्मक सोच रखने वाले मानते हैं. सबसे दिलचस्प बात ये है कि ऑन द रिकार्ड इंटरव्यू में उनके कुछ जवाब उन जवाबों से अलग थे जो उन्होंने ऑफ द रिकॉर्ड इंटरव्यू में दिए थे. उन्हें घेरने के लिए कई मुश्किल सवाल उनके सामने रखे गए जिन्हें मुलायम ने कुशलता से किनारे कर दिया. आज भी वे पुराने नेताजी की तरह कुशाग्र ही नजर आए.

11. मायावती की मुख्य चुनौती में आने के लिए जद्दोजहद

मायावती पहली नेता थीं जिन्होंने अपनी पार्टी का प्रचार सबसे पहले शुरू किया. बीएसपी ने उम्मीदवारों को टिकटें भी सबसे पहले बांटी. इस पार्टी को टिकट वितरण से उपजने वाला आक्रोश सबसे कम झेलना पड़ा. विचार की दृष्टि  से बीएसपी के पास मजबूत सोच थी कि दलितों और मुसलमानों को एक छाते के नीचे लाया जाए. अगर ये गठजोड़ चल निकलता तो मायावती को यूपी जीतने से कोई रोक नहीं सकता था. लेकिन 97 मुस्लिमों को टिकट देने के बावजूद मायावती मुस्लिमों के बड़े हिस्से को बीएसपी की तरफ मोड़ने में कामयाब नहीं रहीं. अधिकतर मुस्लिम एसपी-कांग्रेस गठबंधन का ही समर्थन कर रहे हैं. 2007 में बहनजी इसलिए जीतीं क्योंकि वो सवर्णों को अपने साथ लाने में सफल रही थीं. इस बार ऐसी बात नहीं है. जैसा कि कुछ ओपिनियन पोल में अनुमान लगाया गया है, मायावती उससे कहीं बेहतर प्रदर्शन दिखा सकती हैं लेकिन तस्वीर को वे पूरी तरह पलट दें तो इसकी संभावना कम ही है.

12. जात ही पूछो उम्मीदवार की

साक्षात्कारों के दौरान नेता ये कहते नहीं अघाते कि भारत जात-पांत से आगे बढ़ गया और उनके समर्थन का आधार उन जातियों से काफी बड़ा है जो पारंपरिक तौर पर उनके लिए वोट करती रही हैं. लेकिन कैमरा जैसे ही बंद होता है उनका फोकस जाति के अंकगणित पर ही आ टिकता है. बीजेपी के एक बड़े रणनीतिकार का मानना है कि 95 फीसदी वोटर अपना वोट उम्मीदवार की जाति को देखकर करते हैं. या ये देखते हैं कि विभिन्न पार्टियों को कौन से जाति समीकरण लाभ दे रहे हैं. जहां तक नई पीढ़ी का सवाल है तो वो ऐसी राजनीति की और बढ़ रही है जहां जाति उस तरह अहमियत नहीं रखती जैसे कि अतीत में रखती थी.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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