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चुनावी उत्सव में कब्रिस्तान-श्मशान कहां से ले आए मोदी जी?

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 20 फरवरी, 2017 02:01 PM
  • 20 फरवरी, 2017 02:01 PM
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क्या मोदी सांप्रदायिक कार्ड खेल रहे हैं? क्या मतलब था प्रधानमंत्री के श्मशान और कब्रिस्तान वाले भाषण का? क्या उनका ये भाषण सही था?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव मायावती के खुले सांप्रदायिक कार्ड और सपा-कांग्रेस के सांप्रदायिक गठबंधन से कम कलंकित नहीं हुआ था, कि अब स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक कार्ड खेल दिया. फतेहपुर में दिया गया उनका यह बयान कि अगर गांव में कब्रिस्तान बनता है, तो श्मशान भी बनना चाहिए, एक निहायत ही ग़ैरज़रूरी बयान है.

वे लोगों को बता रहे थे कि उज्ज्वला योजना से लेकर केंद्र सरकार की तमाम योजनाएं हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव किए बिना प्रभावी तरीके से लागू की जा रही हैं. लगे हाथ उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार पर उन्होंने यह आरोप भी लगा डाला कि वह किस तरह से लोगों के साथ सांप्रदायिक आधार पर भेदभाव कर रही है. यहां तक तो सब ठीक था और अपनी बात वे कह चुके थे. लोगों को भी यह समझ में आ गया था कि किसी भी सरकार को जाति या संप्रदाय के आधार पर अपनी जनता से भेदभाव नहीं करना चाहिए. अगर वे यहीं तक बोलकर रुक जाते, तो निशाना अखिलेश यादव की सरकार पर होता, लेकिन बोलते-बोलते वह कब्रिस्तान और श्मशान पर आ गए, जिससे आलोचनाओं की धार उनकी तरफ़ आ गई.

मुझे नहीं मालूम कि उनके इस बयान से बीजेपी को फ़ायदा होगा या नुकसान, लेकिन देश के प्रधानमंत्री को बोलते हुए अधिक संयम बरतना चाहिए. बड़े नेताओं के मुंह से निकला हर शब्द अमिट इतिहास बन जाता है. इसलिए अगर आप कुछ अटपटा बोल देंगे, तो विरोधी इसे मुद्दा बनाएंगे ही. अगर अखिलेश की सरकार राज्य में धर्म के आधार पर भेदभाव कर रही है, तो इसे कहने का तरीका ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप ख़ुद सवालों के घेरे में आ जाएं.

दूसरी बात, हमारे मुस्लिम भाई-बहन गाँव में कब्रिस्तान बनाते हैं, क्योंकि उनके रीति-रिवाज़ अलग हैं. उनकी देखा-देखी हिन्दू गांव में श्मशान बना ही नहीं सकते, क्योंकि उनकी संस्कृति अलग है. हिंदुओं में गांव बसने की जगह है, वहां श्मशान नहीं बनाया...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव मायावती के खुले सांप्रदायिक कार्ड और सपा-कांग्रेस के सांप्रदायिक गठबंधन से कम कलंकित नहीं हुआ था, कि अब स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक कार्ड खेल दिया. फतेहपुर में दिया गया उनका यह बयान कि अगर गांव में कब्रिस्तान बनता है, तो श्मशान भी बनना चाहिए, एक निहायत ही ग़ैरज़रूरी बयान है.

वे लोगों को बता रहे थे कि उज्ज्वला योजना से लेकर केंद्र सरकार की तमाम योजनाएं हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव किए बिना प्रभावी तरीके से लागू की जा रही हैं. लगे हाथ उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार पर उन्होंने यह आरोप भी लगा डाला कि वह किस तरह से लोगों के साथ सांप्रदायिक आधार पर भेदभाव कर रही है. यहां तक तो सब ठीक था और अपनी बात वे कह चुके थे. लोगों को भी यह समझ में आ गया था कि किसी भी सरकार को जाति या संप्रदाय के आधार पर अपनी जनता से भेदभाव नहीं करना चाहिए. अगर वे यहीं तक बोलकर रुक जाते, तो निशाना अखिलेश यादव की सरकार पर होता, लेकिन बोलते-बोलते वह कब्रिस्तान और श्मशान पर आ गए, जिससे आलोचनाओं की धार उनकी तरफ़ आ गई.

मुझे नहीं मालूम कि उनके इस बयान से बीजेपी को फ़ायदा होगा या नुकसान, लेकिन देश के प्रधानमंत्री को बोलते हुए अधिक संयम बरतना चाहिए. बड़े नेताओं के मुंह से निकला हर शब्द अमिट इतिहास बन जाता है. इसलिए अगर आप कुछ अटपटा बोल देंगे, तो विरोधी इसे मुद्दा बनाएंगे ही. अगर अखिलेश की सरकार राज्य में धर्म के आधार पर भेदभाव कर रही है, तो इसे कहने का तरीका ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप ख़ुद सवालों के घेरे में आ जाएं.

दूसरी बात, हमारे मुस्लिम भाई-बहन गाँव में कब्रिस्तान बनाते हैं, क्योंकि उनके रीति-रिवाज़ अलग हैं. उनकी देखा-देखी हिन्दू गांव में श्मशान बना ही नहीं सकते, क्योंकि उनकी संस्कृति अलग है. हिंदुओं में गांव बसने की जगह है, वहां श्मशान नहीं बनाया जा सकता. हां, जहां श्मशान बने हैं, वहां अधिक सुविधाएं ज़रूर दी जानी चाहिए, लेकिन यह बात करने के लिए भी मेरे ख्याल से चुनाव सही वक़्त नहीं हो सकता.

चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है और इसमें लोगों के सपनों और अरमानों की बातें की जानी चाहिए, न कि श्मशान और कब्रिस्तान जैसी मनहूस बातें करके उनका जायका बिगाड़ा जाना चाहिए. मुझे लगता है कि कब्रिस्तान को कुछ लोग इसलिए मुद्दा बनाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कब्रिस्तान बना-बनाकर हमारे मुसलमान भाई-बहन एक दिन सारी ज़मीनें हथिया लेंगे, जबकि इससे अधिक वाहियात कोई बात नहीं हो सकती.

प्रधानमंत्री ने बिहार चुनाव के बीच में भी विरोधी दलों पर आरोप लगाया था कि वह पिछड़ों का आरक्षण "दूसरे समुदाय" को देने की साज़िश रच रहे हैं, लेकिन वे जान लगा देंगे, पर इस साज़िश को सफल नहीं होने देंगे. तब भी हमने कहा था कि यह सही है कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का इंतज़ाम नहीं है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री के लिए "दूसरा संप्रदाय" कौन है?

कई बार मेरे मुस्लिम भाई-बहन भी मुझ पर "भक्त" होने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि मैं बाबा कबीर दास के रास्ते पर चलते हुए निरपेक्ष भाव से उनके बीच व्याप्त अंध-परम्पराओं, कट्टरता और आतंकवाद पर प्रहार करता चलता हूँ. लेकिन हमारा स्टैंड स्पष्ट है कि हम उनकी भी गलत बातों का विरोध करेंगे और इनकी भी गलत बातों का विरोध करेंगे.

इसलिए, मैं प्रधानमंत्री मोदी के "कब्रिस्तान V/S श्मशान" वाले बयान को गैरज़रूरी मानता हूँ. चुनाव जीतने की राजनीति में सभी पक्षों के लिए मर्यादा का पालन अनिवार्य होना चाहिए. लगे हाथ, मैं बहुजन समाज पार्टी की मान्यता रद्द किये जाने की भी वकालत करता हूँ, क्योंकि उनकी सुप्रीम नेता मायावती लगातार धर्म के नाम पर वोट मांगकर चुनाव आचार संहिता और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन कर रही हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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