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गांधी भले राजनीति के शिकार बनें, लेकिन जनांदोलनों में उनके प्रयोग आज भी असरदार हैं

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 31 जनवरी, 2021 10:36 PM
  • 31 जनवरी, 2021 10:36 PM
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जनांदोलनों की कमजोरी हिंसा ही रही है, अन्ना हजारे (Anna Hazare) को मनाने के लिए दिल्ली से केंद्रीय मंत्री का रालेगण सिद्धि पहुंचना सबूत है. महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की तरह अहिंसा (Non Violence) पर जोर ने ही किसान आंदोलन की वापसी करायी है.

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) और राहुल गांधी में तुलना का कोई मतलब नहीं है, लेकिन महात्मा गांधी को भी नये राजनीतिक मिजाज में राहुल गांधी जैसा ट्रीटमेंट देने की कोशिशें देखने को मिली हैं - वरना, कोई कभी कोई 'चतुर बनिया' कहने से पहले भी चार बार सोचता जरूर - और अपने बयान पर माफी न मांगने की जिद भी नहीं करता.

राहुल गांधी को टारगेट करने के लिए उनके राजनीतिक विरोधी ये तो कहते हैं कि गांधी टाइटल होने से कुछ नहीं होता, लेकिन वे ही फिर ये भी बोलते हैं कि राहुल के नाम में गांधी होना ही उनको इतना महत्वपूर्ण बनाये हुए है. गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं कि ऐसे विमर्श में भी गांधी का नाम और गांधी परिवार की राजनीतिक अहमियत बिलकुल अलग है, फिर भी अलग अलग तरीकों से अक्सर एक जैसा ही व्यवहार महसूस होता है. अलग अलग मकसद से शब्दों और भावनाओं को समझने और समझाने का जो राजनीतिक मकसद समझ आता है उसमें फर्क करने के लिए फासला सिर्फ पतला सा परदा ही नजर आता है.

एक सच ये भी है कि महात्मा गांधी के मुकाबले उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताकर चुनाव तो जीता जा सकता है, लेकिन ये भी सच है कि चुनाव जीत कर संसद में दाखिल होने के बाद अगर वही व्यक्ति वही बात दोहराने का दुस्साहस करता है तो दिन भर में ही दो दो बार माफी भी मांगनी पड़ती है - और देश की सबसे शक्तिशाली सत्ताधारी पार्टी को भी अपने ही नेता से दूरी बनाने को मजबूर होना पड़ता है - नेतृत्व के लिए भी दिल से माफ करना भारी पड़ता है.

ये महात्मा गांधी होने की ही अहमियत है जो सियासी मकसद से हिंदुत्व का महत्व समझाने के भी काम आता है - और देशभक्ति को नये सिरे से परिभाषित करने में भी मददगार साबित होता है.

ये नये मिजाज की राजनीति ही है जिसने महात्मा गांधी को रस्मो-रिवाज तक समेट दिया है - और भले ही उनके 'सत्य के प्रयोग' को तरफ कभी किसी का ध्यान न जाता हो, लेकिन अहिंसा (Non Violence) को लेकर गांधी के एक्सपेरिमेंट आज भी उतने ही ताकतवर नजर आते हैं - गणतंत्र दिवस के मौके पर ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई...

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) और राहुल गांधी में तुलना का कोई मतलब नहीं है, लेकिन महात्मा गांधी को भी नये राजनीतिक मिजाज में राहुल गांधी जैसा ट्रीटमेंट देने की कोशिशें देखने को मिली हैं - वरना, कोई कभी कोई 'चतुर बनिया' कहने से पहले भी चार बार सोचता जरूर - और अपने बयान पर माफी न मांगने की जिद भी नहीं करता.

राहुल गांधी को टारगेट करने के लिए उनके राजनीतिक विरोधी ये तो कहते हैं कि गांधी टाइटल होने से कुछ नहीं होता, लेकिन वे ही फिर ये भी बोलते हैं कि राहुल के नाम में गांधी होना ही उनको इतना महत्वपूर्ण बनाये हुए है. गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं कि ऐसे विमर्श में भी गांधी का नाम और गांधी परिवार की राजनीतिक अहमियत बिलकुल अलग है, फिर भी अलग अलग तरीकों से अक्सर एक जैसा ही व्यवहार महसूस होता है. अलग अलग मकसद से शब्दों और भावनाओं को समझने और समझाने का जो राजनीतिक मकसद समझ आता है उसमें फर्क करने के लिए फासला सिर्फ पतला सा परदा ही नजर आता है.

एक सच ये भी है कि महात्मा गांधी के मुकाबले उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताकर चुनाव तो जीता जा सकता है, लेकिन ये भी सच है कि चुनाव जीत कर संसद में दाखिल होने के बाद अगर वही व्यक्ति वही बात दोहराने का दुस्साहस करता है तो दिन भर में ही दो दो बार माफी भी मांगनी पड़ती है - और देश की सबसे शक्तिशाली सत्ताधारी पार्टी को भी अपने ही नेता से दूरी बनाने को मजबूर होना पड़ता है - नेतृत्व के लिए भी दिल से माफ करना भारी पड़ता है.

ये महात्मा गांधी होने की ही अहमियत है जो सियासी मकसद से हिंदुत्व का महत्व समझाने के भी काम आता है - और देशभक्ति को नये सिरे से परिभाषित करने में भी मददगार साबित होता है.

ये नये मिजाज की राजनीति ही है जिसने महात्मा गांधी को रस्मो-रिवाज तक समेट दिया है - और भले ही उनके 'सत्य के प्रयोग' को तरफ कभी किसी का ध्यान न जाता हो, लेकिन अहिंसा (Non Violence) को लेकर गांधी के एक्सपेरिमेंट आज भी उतने ही ताकतवर नजर आते हैं - गणतंत्र दिवस के मौके पर ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा सबसे बड़ी मिसाल है और अन्ना हजारे (Anna Hazare) का अनशन रोकने के लिए दिल्ली-मुंबई-रालेगण एक कर देना सबसे बड़ा नमूना.

अन्ना की गांधीवादी ताकत से मोदी सरकार भी परेशान

हिंसा का दाग लग जाने के बाद दिल्ली में दो महीने पुराना किसान आंदोलन कुछ देर के लिए लड़खड़ा जरूर गया था, लेकिन दिल्ली के ही रामलीला मैदान में सफल बड़ा आंदोलन खड़ा करने वाले अन्ना हजारे के नये सिरे से आंदोलन की पहल पर कोई फर्क नहीं पड़ा था.

गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे ने दिल्ली में किसानों के सपोर्ट में अपना आखिरी अनशन करने की घोषणा की थी. अन्ना हजारे ने हाल ही में कहा था कि पूरे जीवन उनको कभी झूठ बोलने की जरूरत नहीं पड़ी - और हमेशा ही जनता के लिए लड़ते रहे, लेकिन एक बार वो किसानों के लिए भी अनशन करना चाहते हैं. आखिरी बार.

अन्ना हजारे का कहना था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई पत्र लिखने के बावजूद उनको किसी भी पत्र का जवाब नहीं मिला - और न ही किसानों के प्रति सरकार का कोई सकारात्मक रुख ही देखने को मिला है, इसलिए दिल्ली में उनके अनशन करने का कार्यक्रम पक्का है. अव्वल तो अन्ना हजारे रामलीला मैदान में ही अनशन करना चाहते थे, लेकिन संभव न होने पर दिल्ली में कहीं भी बैठ कर अनशन करने को तैयार थे. यहां तक कि दिल्ली में अनुमति न मिलने पर अपने गांव रालेगण सिद्धि में ही.

गणतंत्र दिवस के मौके पर दिल्ली में हुई हिंसा को अन्ना हजारे ने गलत तो बताया, लेकिन किसानों के खातिर अपने अनशन को लेकर अडिग रहे - और उसी बीच बीजेपी नेताओं की तरफ से उनको मनाने की कोशिशें भी जारी रहीं. पहले तो अन्ना हजारे से पूर्व मंत्री गिरीश महाजन ने संपर्क कर समझाने की कोशिश की, जैसा कि पहले वो करते आ रहे थे और अक्सर समझाने में सफल भी रहे, लेकिन अन्ना हजारे इस बार मानने को तैयार ही नहीं हो रहे थे. फिर नेतृत्व का इशारा समझ कर बीजेपी सांसद सुजय विखे पाटिल, राधाकृष्ण विखे पाटिल और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हरीभाऊ बागडे रालेगण सिद्धि पहुंच कर मुलाकात किये, साथ ही साथ महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी लगातार संपर्क में बने रहे, लेकिन न तो अन्ना हजारे समझने को तैयार हुए और न ही समझाने वालों के पास कोई ठोस आश्वासन ही रहा.

अन्ना हजारे के अनशन रद्द होने में दो महत्वपूर्ण बातें हैं - एक, मोदी सरकार ने अन्ना हजारे को मना भी लिया - और दो, अन्ना हजारे मान भी गये!

अन्ना हजारे ने पहले कोई तारीख भी नहीं तय की थी, बस इतना ही कहा था कि जनवरी के आखिर में वो अपना आखिरी अनशन शुरू करेंगे. कुछ शर्तें भी लागू थीं. मसलन, केंद्र सरकार ने किसानों के मसले में कोई सर्वमान्य फैसला नहीं लिया तो निश्चित तौर पर वो अनशन करेंगे. बाद में अन्ना हजारे ने जब तारीख बतायी तो मालूम हुआ - 30 जनवरी यानी महात्मा गांधी की पुण्यतिथि.

मोदी सरकार बहुमत की ताकत के चलते किसी बात की परवाह नहीं करती, लेकिन अन्ना को मनाने के लिए दिल्ली के कृषि मंत्री को जाना पड़ा. ये अन्ना हजारे के अहिंसक आंदोलन चलाते रहने की ही ताकत है जो उनको मनाने के लिए दिल्ली से कृषि राज्य मंत्री कैलाश चौधरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संदेश लेकर, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ पहुंचे - और ये कोशिश रंग भी लायी. अन्ना हजारे मान गये और अनशन रोक दिया.

अन्ना हजारे ने देवेंद्र फडणवीस की मौजूदगी में मीडिया के सामने आकर अनशन को लेकर अपने फैसले से अवगत कराया, 'चूंकि सरकार ने इन 15 बिंदुओं पर काम करने का आश्वासन दिया है - मैंने अनशन रद्द कर दिया है.' ताजा किसान आंदोलन तो तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर चलाया जा रहा है, लेकिन अन्ना हजारे की मांगें अलग रहीं - अन्ना हजारे ने कृषि मूल्य आयोग को स्वायत्तता दिये जाने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर उनके अनुसार कृषि उपज की कीमतें तय किये जाने की मांग कर रहे थे.

बताया गया है कि अन्ना हजारे की मांगों को लेकर एक्सपर्ट की कमेटी गठित की गई है और उस सूची में अन्ना हजारे का नाम भी शामिल है. कमेटी को छह महीने का समय दिया गया है. महात्मा गांधी की पुण्य तिथि पर अन्ना हजारे के अनशन की घोषणा ने केंद्र की मोदी सरकार की नींद हराम कर रखी थी, लेकिन अब सरकार राहत महसूस कर रही होगी.

हिंसा से ही किसान आंदोलन लड़खड़ाया

26 जनवरी को अगर दिल्ली में ट्रैक्टर परेड का तांडव नहीं दिखा होता तो किसान नेता महात्मागांधी की पुण्यतिथि 30 जनवरी को संसद मार्च कर रहे होते. अगर किसान आंदोलन के बीच हिंसा नहीं हुई होती तो संसद मार्च के लिए भी संभव था दिल्ली पुलिस वैसी ही दरियादिली दिखायी होती, जैसी किसानों की ट्रैक्टर रैली को लेकर देखने को मिली.

किसानों को प्रस्तावित संसद मार्च का कार्यक्रम दिल्ली हिंसा की भेंट चढ़ गया और खुद ही रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी. पल पल बदलते घटनाक्रम के बीच किसान आंदोलन राकेश टिकैत के आंसुओं की बदौलत दम तोड़ते तोड़ते बच तो गया है, लेकिन अब किसानों को अपनी शांतिप्रियता का सबूत पेश करने के लिए दिन भर का सद्भावना फास्ट रखना पड़ा है.

दिल्ली में किसान नेताओं को लेकर भी अन्ना हजारे ने अपनी राय जाहिर की है. अन्ना हजारे का कहना है कि दिल्ली में कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के आंदोलन में लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव है. हालांकि, अन्ना हजारे मानते हैं कि दोनों का मकसद एक ही है.

दिल्ली के किसान आंदोलन और उनके अनशन को लेकर मीडिया के सवालों के जवाब में अन्ना हजारे बोले, '...किसानों की भलाई और इसीलिए मैंने शुरू शुरू में दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को सपोर्ट किया था - और कहा था कि उनके आंदोलन में जो मुझे अच्छा ही दिखाई दे रही है वो है अहिंसा.'

अन्ना हजारे ने अहिंसा की अहमियत समझाते हुए कहा, 'आंदोलनकारी जितना भी अहिंसा के मार्ग से आंदोलन करेंगे, सामने वाला कुछ नहीं कर सकता... लाल किले पर जो तोड़फोड़ देखने को मिली और वहां पर किसी ने झंडा फहराया वो देख कर बहुत दुख हुआ. ये बहुत गलत हुआ... जो सपोर्ट मैंने इन्हें किया था अब मैं उन्हें समर्थन नहीं करता.'

आपको याद होगा, रामलीला मैदान में आंदोलन के दौरान जब भी अन्ना हजारे लोगों से मुखातिब होते, शांति बनाये रखने की अपील करते और लगे हाथ आगाह भी करते कि अगर लोगों से छोटी सी चूक भी हुई तो सरकार और पुलिस को एक्शन लेने का मौका मिल जाएगा, नतीजा ये होगा कि आंदोलन टूट जाएगा. अन्ना आंदोलन में शामिल रहे योगेंद्र यादव की तरफ से ट्रैक्टर रैली को लेकर भी शांतिपूर्ण होने के ही दावे और शांति की अपील भी की गयी थी, लेकिन आंदोलन आखिरकार हिंसा की आग में झुलस ही गया.

ये सही है कि हिंसा के चलते किसान आंदोलन पूरी तरह लड़खड़ा गया था, लेकिन धीरे धीरे संभलने लगा है. ऐसा इसलिए हो पा रहा है कि राकेश टिकैत के आंसुओं के असर के साथ साथ, दबाव में ही सही, केंद्र सरकार भी किसान नेताओं से बातचीत के स्टैंड से पीछे नहीं हटी है.

सबसे बड़ी बात ये है कि सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इस बात का भरोसा दिलाया है. बैठक को लेकर केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने बताया बताया कि 22-23 जनवरी को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जो कहा था, सरकार का वो स्टैंड बरकरार है. प्रह्लाद जोशी ने नरेंद्र सिंह तोमर की लाइन को भी दोहराया, '...अगर आप डिस्‍कशन को तैयार हैं तो मैं एक फोन कॉल पर उपलब्‍ध हूं.'

पश्चिम बंगाल चुनाव के चलते महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता बुलाने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस राजनीति के केंद्र बने हुए हैं, लेकिन गांधी की अहिंसा की नीति आज भी सबसे सटीक, मजबूत और कारगर हथियार है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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