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मध्य प्रदेश चुनाव में कांग्रेस की किस्मत 2013 के मुकाबले कितनी मजबूत

    • अमित जैन
    • Updated: 02 अगस्त, 2018 05:47 PM
  • 02 अगस्त, 2018 05:46 PM
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मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए तैयार हैं. लेकिन 2013 के मुकाबले इस बार का सच दिलचस्प है.

मध्यप्रदेश में कांग्रेस पंद्रह साल से विपक्ष में है. 2013 के विधान सभा चुनाव के समय प्रदेश कांग्रेस के अध्क्षय अरुण यादव और चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया थे. कांग्रेस को ये भरोसा था कि बीजेपी लगातार 10 साल सत्ता में रहने के बाद एंटी इंकम्बेंसी का सामना करेगी और शायद कांग्रेस दस साल बाद सत्ता में वापसी कर लेगी. लेकिन उस समय प्रदेश कांग्रेस में गुटबाज़ी चरम पर थी. हालांकि कांग्रेस के दिग्गज नेता इसे मीडिया के सामने स्वीकारते नहीं थे. प्रदेश कांग्रेस में आधा दर्जन से अधिक क्षत्रप सक्रिय थे. जिनमें दिग्विजय, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अजय सिंह और अरुण यादव जैसे नेताओं के गुट थे.

मध्य प्रदेश कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी के कारण भी जनता ने उनसे दूरी बनायी

आपको चुनाव के पहले की एक प्रेस कांफ्रेंस का हाल बानगी के तौर पर बताता हूँ. 2013 के चुनाव से दो-तीन महीने पहले यानी लगभग इन्हीं दिनों की बात होगी, पार्टी दफ्तर में सभी क्षत्रप यानी दिग्गी, सिंधिया और कमलनाथ मीडिया से मुखातिब हो रहे थे. समर्थक अपने-अपने नेताओं के समर्थन में नारेबाजी कर रहे थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कार्यकर्ता तो उस हॉल तक पहुँच गए, जहाँ प्रेस कांफ्रेंस होनी थी. जब सिंधिया के समर्थक प्रेस कांफ्रेंस हाल में ही सिंधिया के समर्थन में नारेबाजी करने लगे तो प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को कड़े लहजे में कार्यकर्ताओं को हिदायत देनी पड़ी. मीडिया रूम का दरवाजा बंद करना पड़ा लेकिन कार्यकर्ता तब भी नहीं माने और दरवाजा पीटने लगे. कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस में कार्यकर्ता सिर्फ अपने नेता की ही सुनते हैं. उन्हें दूसरे किसी नेता का कोई डर नहीं होता. उस दौरान मैंने कई जिलों में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं और तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सभाएं कवर की थीं. मंच पर तो सभी नेता हाथ में हाथ डालकर गर्मजोशी दिखाते लेकिन मैदान में कार्यकर्ता अपने पसंदीदा नेताओं के लिए ही नारेबाजी करते.

मध्यप्रदेश में कांग्रेस पंद्रह साल से विपक्ष में है. 2013 के विधान सभा चुनाव के समय प्रदेश कांग्रेस के अध्क्षय अरुण यादव और चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया थे. कांग्रेस को ये भरोसा था कि बीजेपी लगातार 10 साल सत्ता में रहने के बाद एंटी इंकम्बेंसी का सामना करेगी और शायद कांग्रेस दस साल बाद सत्ता में वापसी कर लेगी. लेकिन उस समय प्रदेश कांग्रेस में गुटबाज़ी चरम पर थी. हालांकि कांग्रेस के दिग्गज नेता इसे मीडिया के सामने स्वीकारते नहीं थे. प्रदेश कांग्रेस में आधा दर्जन से अधिक क्षत्रप सक्रिय थे. जिनमें दिग्विजय, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अजय सिंह और अरुण यादव जैसे नेताओं के गुट थे.

मध्य प्रदेश कांग्रेस की आंतरिक गुटबाजी के कारण भी जनता ने उनसे दूरी बनायी

आपको चुनाव के पहले की एक प्रेस कांफ्रेंस का हाल बानगी के तौर पर बताता हूँ. 2013 के चुनाव से दो-तीन महीने पहले यानी लगभग इन्हीं दिनों की बात होगी, पार्टी दफ्तर में सभी क्षत्रप यानी दिग्गी, सिंधिया और कमलनाथ मीडिया से मुखातिब हो रहे थे. समर्थक अपने-अपने नेताओं के समर्थन में नारेबाजी कर रहे थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कार्यकर्ता तो उस हॉल तक पहुँच गए, जहाँ प्रेस कांफ्रेंस होनी थी. जब सिंधिया के समर्थक प्रेस कांफ्रेंस हाल में ही सिंधिया के समर्थन में नारेबाजी करने लगे तो प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को कड़े लहजे में कार्यकर्ताओं को हिदायत देनी पड़ी. मीडिया रूम का दरवाजा बंद करना पड़ा लेकिन कार्यकर्ता तब भी नहीं माने और दरवाजा पीटने लगे. कहने का तात्पर्य यह है कि कांग्रेस में कार्यकर्ता सिर्फ अपने नेता की ही सुनते हैं. उन्हें दूसरे किसी नेता का कोई डर नहीं होता. उस दौरान मैंने कई जिलों में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं और तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सभाएं कवर की थीं. मंच पर तो सभी नेता हाथ में हाथ डालकर गर्मजोशी दिखाते लेकिन मैदान में कार्यकर्ता अपने पसंदीदा नेताओं के लिए ही नारेबाजी करते.

चुनाव परिणाम के साथ गुटबाजी का नतीजा भी आ गया. मंच पर एकजुटता दिखाने के बावजूद दिग्गज नेता अपने इलाकों की सीटें बचाने में नाकामयाब रहे थे. कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गयी. पिछली बार के चुनाव में कांग्रेस ने गरीब, किसान, युवा सभी के लिए चुनावी सौगात देने की घोषणा की थी. सबसे ज्यादा निशाना प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर साधा था. उन्‍हें तो 'मिस्टर घोषणावीर' की उपाधि दी गई थी.

2013 से सबक लेकर कांग्रेस ने 2018 में अपनी रणनीति में कुछ बदलाव किए. पार्टी ने गुटबाज़ी से निपटने के लिए थोड़ा पहले से होमवर्क करना शुरू कर दिया. कहा गया कि इस बार प्रदेश कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए अपनी आपसी महत्वाकांक्षाओं से समझौता करने के लिए भी तैयार हैं. 15 साल से सत्ता में बैठी बीजेपी को हटाने के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मन से मन मिला लिया है. आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस की कमान सबसे वरिष्ठ नेता 71 साल के कमलनाथ को सौंप दी और साथ में चार अलग अलग अंचलों में कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया. जिससे पार्टी में सबको शामिल किया जा सके. पिछले बार की तरह चुनाव प्रचार समिति की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथों में ही है.

कांग्रेस के नेता एक ओर तो एकता की बात कर रहे हैं, वहीं रीवा से कांग्रेस प्रभारी किशोर बावरिया के साथ झूमाझटकी की खबर आई. बताया गया कि अजय सिंह को चुनाव में कोई भूमिका न दिए जाने से वहां के कांग्रेस नेता नाराज थे और उन्‍होंने अपना गुस्‍सा प्रदेश कांग्रेस प्रभारी पर निकाल दिया. एकता और गुटबाजी के बीच सच्‍चाई यही है कि यदि इस बार पार्टी हारी तो प्रदेश में कांग्रेस की एक पूरी पीढ़ी पार्टी को सत्ता में देखे बिना निकल जाएगी.

कांग्रेस की एक मुश्किल उस सवाल से जूझना भी है कि यदि कांग्रेस चुनाव जीत गई तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा? कभी कमलनाथ तो कभी सिंधिया के समर्थक पोस्टर के जरिये गुटबाज़ी बयान करने से नहीं चूक रहे है. हालांकि दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा के बहाने पार्टी के कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम किया है और लगातार इस कोशिश में जुटें हुए हैं कि पुराने नेता पार्टी के लिए एकजुट होकर काम करें. अब दिग्विजय सिंह अपनी अगली पीढ़ी यानी विधायक बेटे जयवर्धन के बारे में सोच रहे हैं इसीलिए सभी नेताओं को साथ लेकर चलने की कवायद में लगे हैं. जाहिर है इस चुनाव में सभी दिग्गजों की चुनौती सत्ता पाने के साथ-साथ अपनी पीढ़ी को बचाने की भी है.

कांग्रेस के पास इस बार व्यापम घोटाला, मंदसौर किसान गोलीकांड जैसे बड़े मुद्दे और पंद्रह साल की एंटी इंकम्बेंसी का फैक्टर है. यदि ऐसे में कांग्रेस मतदाताओं को रिझाने में कामयाब नहीं हो पाती है तो अगले बार की लड़ाई और मुश्किल होगी. क्योंकि उस समय तक जनता पुराने कांग्रेस के नेताओं को कई बार खारिज कर चुकी होगी. इस बार कांग्रेस को जिताऊ चेहरा चाहिए, जिसपर जनता भरोसा कर सके. बड़ा सवाल ये है कि क्या कांग्रेस ने 2013 में विधानसभा चुनाव की हार से कोई सबक लिया? टिकटों के निष्पक्ष चयन और जनता में विश्वास के लिए कांग्रेस को तीन महीने में काफी काम करना बाकी है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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