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लगता नहीं कि लोकसभा चुनाव के लिए 2019 तक इंतजार करना होगा

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 13 अप्रिल, 2018 08:27 PM
  • 13 अप्रिल, 2018 08:12 PM
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देश में हंगामा यूं ही नहीं बरपा है. बीजेपी लाख समझाना चाह रही है कि रेप के मामले पुराने हैं, लेकिन कांग्रेस ने उसकी नाम में दम कर रखा है - चुनाव जो सिर पर मंडरा रहा है, विधानसभाओं के नहीं बल्कि आम चुनाव!

क्या देश में फिलहाल जो कुछ भी हो रहा है, सिर्फ आम चुनाव के चलते हो रहा है? क्या राहुल गांधी के इंडिया गेट पर कैंडल मार्च के पीछे सिर्फ चुनावी आहट है? क्या यूपी में दलित नेताओं की बगावत के पीछे आम चुनाव का नजदीक होना है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित बीजेपी के देशव्यापी उपवास पार्टी की चुनावी तैयारियों का हिस्सा है? इनमें से ज्यादातर सवालों के जवाब 'ना' में नहीं मिल रहे हैं. फिर तो मान कर चलना चाहिये कि आम चुनाव 2019 की जगह 2018 में भी हो सकते हैं.

जल्द चुनाव के लिए राष्ट्रपति शासन

वक्त से पहले चुनाव होने के जो संकेत मिलते रहे हैं वे धीरे धीरे चुनावी आहट में तब्दील होते जा रहे हैं. अब ये तो मान कर चलना चाहिये कि अगर कोई बड़ी तकनीकी दिक्कत नहीं आयी तो चुनाव निश्चित तौर पर जल्द होंगे.

चुनाव जल्द होने वाले हैं!

सवाल ये है कि जल्द चुनाव होने का मतलब कितना जल्द? खबरों के हिसाब से तो ऐसा लगता है कि नियत वक्त से छह महीने पहले चुनाव कराये जा सकते हैं. वैसे तो आम चुनाव 2019 के अप्रैल या मई में होने चाहिये, लेकिन अब ये दिसंबर, 2018 तक भी हो सकते हैं.

सूत्रों के हवाले से इकनॉमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट आई है जिसमें अनुमान लगाया गया है कि नवंबर-दिसंबर में लोकसभा चुनाव कराये जा सकते हैं. रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर नीति आयोग और सरकार के विभिन्न मंत्रालय विस्तार से चर्चा कर चुके हैं.

फिलहाल सरकार वे रास्ते तलाश रही है जिसमें एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत न पड़े. ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब सभी राजनीतिक दल राजी हों. चुनावी तैयारियों में भले ही सारे दल अपने अपने हिसाब से जुट गये हों, लेकिन जब तक सबके स्वार्थ की पूर्ति न हो...

क्या देश में फिलहाल जो कुछ भी हो रहा है, सिर्फ आम चुनाव के चलते हो रहा है? क्या राहुल गांधी के इंडिया गेट पर कैंडल मार्च के पीछे सिर्फ चुनावी आहट है? क्या यूपी में दलित नेताओं की बगावत के पीछे आम चुनाव का नजदीक होना है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित बीजेपी के देशव्यापी उपवास पार्टी की चुनावी तैयारियों का हिस्सा है? इनमें से ज्यादातर सवालों के जवाब 'ना' में नहीं मिल रहे हैं. फिर तो मान कर चलना चाहिये कि आम चुनाव 2019 की जगह 2018 में भी हो सकते हैं.

जल्द चुनाव के लिए राष्ट्रपति शासन

वक्त से पहले चुनाव होने के जो संकेत मिलते रहे हैं वे धीरे धीरे चुनावी आहट में तब्दील होते जा रहे हैं. अब ये तो मान कर चलना चाहिये कि अगर कोई बड़ी तकनीकी दिक्कत नहीं आयी तो चुनाव निश्चित तौर पर जल्द होंगे.

चुनाव जल्द होने वाले हैं!

सवाल ये है कि जल्द चुनाव होने का मतलब कितना जल्द? खबरों के हिसाब से तो ऐसा लगता है कि नियत वक्त से छह महीने पहले चुनाव कराये जा सकते हैं. वैसे तो आम चुनाव 2019 के अप्रैल या मई में होने चाहिये, लेकिन अब ये दिसंबर, 2018 तक भी हो सकते हैं.

सूत्रों के हवाले से इकनॉमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट आई है जिसमें अनुमान लगाया गया है कि नवंबर-दिसंबर में लोकसभा चुनाव कराये जा सकते हैं. रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर नीति आयोग और सरकार के विभिन्न मंत्रालय विस्तार से चर्चा कर चुके हैं.

फिलहाल सरकार वे रास्ते तलाश रही है जिसमें एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत न पड़े. ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब सभी राजनीतिक दल राजी हों. चुनावी तैयारियों में भले ही सारे दल अपने अपने हिसाब से जुट गये हों, लेकिन जब तक सबके स्वार्थ की पूर्ति न हो आम राय का सवाल ही कहां पैदा होता है.

सरकार जिन उपायों, रिपोर्ट बताती है, पर विचार कर रही है उनमें से एक है कुछ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना. राष्ट्रपति शासन उन राज्यों में लगाया जा सकता है जहां लोक सभा के ठीक बाद चुनाव होने वाले हैं. हालांकि, ये काम उन्हीं राज्यों में मुमकिन हो सकता है जहां बीजेपी या उसके सहयोगी दलों की सरकार है.

तो सारी उठापटक चुनावी है!

मई में कर्नाटक के बाद इस साल दिसंबर तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी की सरकारें हैं और उन्हें विधानसभा का कार्यकाल छह महीने पहले करने में कोई मुश्किल नहीं आएगी. ऐसे में कम से कम 11 राज्यों में लोक सभा के साथ विधानसभा चुनाव कराये जा सकते हैं.

तो क्या ये सब सिर्फ चुनावी आहट के चलते है

राहुल गांधी ने इंडिया गेट पर कैंडल मार्च कर मोदी-शाह सहित बीजेपी के रणनीतिकारों को चौंका दिया है. इसमें तो कोई शक नहीं, लेकिन क्या वाकई ये सब अचानक हुआ?

क्या 12 अप्रैल को रात 9 बज कर 39 मिनट से पहले ऐसी कोई तैयारी नहीं थी?

'नहीं तो!' इस सवाल के जवाब में ऐसा बिलकुल नहीं कहा जा सकता है - और इसकी खास वजह है. सवाल तो इस बात को लेकर भी उठाये जा रहे हैं कि इतने कम अंतराल में इतनी बड़ी संख्या में लोग पहुंचे कैसे?

सोशल मीडिया के इस दौर में लोगों का कहीं भी इतना जल्दी पहुंचना नामुमकिन जैसा तो कतई नहीं है. वो भी राहुल गांधी के ट्वीट पर, लोग न पहुंचे सवाल ही नहीं पैदा होता. हो सकता है इंडिया गेट पहुंचने वालों में आम लोग कम हों, लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता तो दौड़ ही पड़ेंगे.

एक सवाल और उठ रहा है - क्या उतने कम समय में प्ले-कार्ड, पोस्टर और कैंडल के इंतजाम हो सकते हैं?

कैंडल और जेनेरिक पोस्टर तो जुटाये जा सकते हैं - लेकिन वे प्ले-कार्ड जिन पर खासतौर तौर पर 'कठुआ' और 'उन्नाव' का जिक्र है, मुश्किल लगता है.

बीजेपी का तो सीधा सीधा ही आरोप है कि विपक्षी दल, बल्कि साफ तौर पर कहें तो कांग्रेस, एक खास रणनीति के तहत केंद्र सरकार को बदनाम करने के लिए ये खेल खेल रही है.

कठुआ और उन्नाव गैंग रेप की घटनाओं पर बीजेपी की बचाव में उतरीं मीनाक्षी लेखी कहती हैं, "आप इनकी रणनीति देख सकते हैं. पहले ये अल्पसंख्यक-अल्पसंख्यक चिल्ला रहे थे. फिर दलित-दलित चिल्लाने लगे. अब महिला-महिला चिल्ला कर राज्य सरकार के मुद्दों पर केंद्र को घेर रहे हैं." बीजेपी को सारे बवाल के पीछे कांग्रेस का हाथ लगता है. मीनाक्षी लेखी ने कांग्रेस के साथ साथ हंगामे के लिए मीडिया पर भी ठीकरा फोड़ने की कोशिश की है.

अगर मीनाक्षी लेखी ये कहना चाहती हैं कि कांग्रेस इंडिया गेट पर कैंडल मार्च कर राजनीति कर रही है, तो बताना तो ये भी पड़ेगा कि संसद सत्र खत्म हो जाने के हफ्ते भर बाद और अंबेडकर जयंती के ठीक पहले बीजेपी नेताओं का उपवास क्या योग और अध्याम के उद्देश्य से आयोजित किया गया.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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