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सियासत

दलित ध्रुवीकरण के जरिये मिलेगी सत्ता की चाबी ?

    • सुजीत कुमार झा
    • Updated: 13 अप्रिल, 2018 04:08 PM
  • 13 अप्रिल, 2018 04:08 PM
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दलितों की करीब सोलह फीसदी आबादी में से आधे पर कब्जे की तैयारी में लगे नीतीश कुमार एलजेपी सुप्रीमो रामविलास पासवान को सबसे मजबूत साथी मान रहे हैं क्योंकि उनको छोड़कर किसी के पास अपने वोट बैंक को टर्न कराने की क्षमता नहीं है.

बिहार में भले ही अभी विधानसभा चुनाव ना हों लेकिन 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को सामने देख तमाम राजनीतिक दलों की गोलबंदी और उनके बीच नफे नुकसान का आंकलन शुरू हो गया है. बिहार की राजनीतिक फिज़ां में आजकल नए बनते समीकरण और 2020 के विधानसभा चुनाव के हिसाब से नए दोस्त बनने और बनाने का सिलसिला भी जारी है.

राज्य की सियासत में सबसे बड़े चेहरे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद के बीच इस महाभारत की बुनियाद लिखी जा रही है. दोनों नेता अपने-अपने पाले में राजनीतिक दिग्गजों को करने में लगे हैं ताकि सियासत की असली अग्निपरीक्षा को पार कर सकें. पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा और यादवों के बीच ख़ासे लोकप्रिय और रॉबिनहुड की छवि वाले पप्पू यादव लालू और नीतीश से मिले उसने एक नए राजनीतिक ताने-बाने की चर्चाएं आम कर दीं.

राम विलास पासवान और नीतीश कुमार की नजदीकियां हारान कर रही हैं

इधर, पासवान यानी दुसाधों के सबसे बड़े नेता और लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो रामविलास पासवान से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नजदीकियां सियासी दिग्गजों को चौंका रही हैं. दरअसल, आने वाला लोकसभा चुनाव इस बार कई मायनों में बिल्कुल अलग रहने वाला है. जिस तरह से पिछले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर काम कर रहा था वो अब देखने को नहीं मिलेगा. देश में बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था को लेकर हमले और अच्छे दिन आने के वायदों का सहारा भी इस बार नहीं लिया जा सकता. इसके साथ ही रोज़गार, जीएसटी, नोटबंदी, तेल की बढ़ती कीमतें, आरक्षण, गंगा सफाई, मेक इन इंडिया, राम मंदिर और ट्रिपल तलाक जैसे अहम केंद्रीय मुद्दे बीजेपी के लिए परेशानियां खड़ी कर सकते हैं. विपक्ष लगातार इन मामलों को लेकर सरकार पर निशाना साधता रहा है. वहीं, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एससी व एसटी कानून में बदलाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है वो बीजेपी के लिए ऐसे गले की फांस बन गयी है, जिससे गठबंधन दलों को भी जवाब देते नहीं बन रहा.

बिहार में भले ही अभी विधानसभा चुनाव ना हों लेकिन 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को सामने देख तमाम राजनीतिक दलों की गोलबंदी और उनके बीच नफे नुकसान का आंकलन शुरू हो गया है. बिहार की राजनीतिक फिज़ां में आजकल नए बनते समीकरण और 2020 के विधानसभा चुनाव के हिसाब से नए दोस्त बनने और बनाने का सिलसिला भी जारी है.

राज्य की सियासत में सबसे बड़े चेहरे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद के बीच इस महाभारत की बुनियाद लिखी जा रही है. दोनों नेता अपने-अपने पाले में राजनीतिक दिग्गजों को करने में लगे हैं ताकि सियासत की असली अग्निपरीक्षा को पार कर सकें. पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के मुखिया उपेंद्र कुशवाहा और यादवों के बीच ख़ासे लोकप्रिय और रॉबिनहुड की छवि वाले पप्पू यादव लालू और नीतीश से मिले उसने एक नए राजनीतिक ताने-बाने की चर्चाएं आम कर दीं.

राम विलास पासवान और नीतीश कुमार की नजदीकियां हारान कर रही हैं

इधर, पासवान यानी दुसाधों के सबसे बड़े नेता और लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो रामविलास पासवान से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नजदीकियां सियासी दिग्गजों को चौंका रही हैं. दरअसल, आने वाला लोकसभा चुनाव इस बार कई मायनों में बिल्कुल अलग रहने वाला है. जिस तरह से पिछले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर काम कर रहा था वो अब देखने को नहीं मिलेगा. देश में बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था को लेकर हमले और अच्छे दिन आने के वायदों का सहारा भी इस बार नहीं लिया जा सकता. इसके साथ ही रोज़गार, जीएसटी, नोटबंदी, तेल की बढ़ती कीमतें, आरक्षण, गंगा सफाई, मेक इन इंडिया, राम मंदिर और ट्रिपल तलाक जैसे अहम केंद्रीय मुद्दे बीजेपी के लिए परेशानियां खड़ी कर सकते हैं. विपक्ष लगातार इन मामलों को लेकर सरकार पर निशाना साधता रहा है. वहीं, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एससी व एसटी कानून में बदलाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है वो बीजेपी के लिए ऐसे गले की फांस बन गयी है, जिससे गठबंधन दलों को भी जवाब देते नहीं बन रहा.

आने वाले कुछ वक्त में दलित धुव्रीकरण पर केंद्रित होती राजनीति का असर चुनावों पर साफ देखा जा सकता है. बताया जा रहा है कि बिहार की सरकार ने महादलितों की श्रेणी में पासवान को शामिल करने का निर्णय लिया है ताकि वंचितों तक सरकार की योजनाओं का सही लाभ पहुंचाया जा सके और उन्हें महादलितों के हिसाब से सुविधाएं दी जा सकें. लेकिन कुछ जानकार ये भी बता रहे हैं कि अब बिहार में महादलित की श्रेणी ही खत्म कर दी जाएगी. अगर ऐसा होता है तो दलितों के सबसे बड़े तबके को बिना किसी वर्गीकरण के एक साथ जोड़कर उनका सियासी फायदा लिया जा सकेगा.

दलित धुव्रीकरण पर केंद्रित होती राजनीति का असर चुनावों पर साफ देखा जा सकता है

एक दौर था जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महादलित आयोग का गठन कर अपने विरोधियों के बीच मास्टर स्ट्रोक खेला था और दलितों के बीच सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियों तक विकास की रोशनी पहुंचाने के प्रति अपने संकल्प को साबित किया था लेकिन एक बार फिर अगर महादलित जैसी श्रेणी खत्म कर दी जाती है तो फिर सबका साथ-सबका विकास जैसे नारे को बल मिलेगा. वैसे इस प्रयत्न में तमाम दलितों को साथ लेकर चलने का नया संकल्प भी शामिल होगा. इसके साथ ही मुस्लिम, ओबीसी और तमाम पिछड़ी जातियों को जोड़कर नए राजनीतिक ज़मीन की बुनियाद तैयार की जा सकेगी.

अगर हम पासवान जाति की बात करें तो बिहार में तकरीबन पांच फीसदी के करीब वोट बैंक वाली इस जाति के सर्वमान्य नेता रामविलास पासवान ही हैं और पिछले संपन्न चुनावों में तकरीबन सत्तर से पचहत्तर फीसदी से ज्यादा दुसाधों का वोट रामविलास के नेतृत्व वाली पार्टी एलजेपी को ही मिला है. इस तरह से जेडीयू सुप्रीमो और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इनके राजनीतिक रसूख को नज़रअंदाज नहीं कर सकते.

दूसरी ओर दलितों के अन्य नेता मसलन दलितों में सबसे पिछड़ी जाति मुसहरों के सर्वमान्य नेता जीतन राम मांझी, रजकों के बड़े चेहरे श्याम रजक, रविदास के रमई राम, पासियों के उदय नारायण चौधरी सरीखे नेताओं के भी अपने-अपने असर हैं लिहाजा इनकी जातियों के भीतर सेंधमारी या कब्जे की नई रणनीति पर काम शुरू हो चुका है.

सोशल इंजीनियरिंग के माहिर रहे नीतीश कुमार को पता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी भूमिका काफी अहम होने वाली है क्योंकि बीजेपी के पास पहले वाला कंन्फिडेंस नहीं है और हिंदुत्व के एजेंडे को छोड़कर फिलहाल उसके पास कोई तुरूप का पत्ता नहीं है. बिहार में काम के नाम पर वोट मांगने का दौर भी खत्म हो चुका है.

नीतीश कुमार को पता है कि 2019 के चुनावों में उनकी भूमिका काफी अहम होने वाली है

हालांकि बिहार विकास के मामले में नित नई उंचाईयों को हासिल भी कर रहा है और देश में सर्वाधिक विकास दर वाले राज्यों की श्रेणी में शामिल होकर बिहार ने अपने मजबूती का अहसास भी कराया है. जिस रफ्तार से सड़कों का विकास हुआ है, पुल-पुलियों का निर्माण हुआ है और महिला सशक्तिकरण के साथ ही युवा, लड़के-लड़कियों, पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों एवं अन्य सभी वर्गों के बीच योजनाओं का फायदा पहुंचाया गया है उसने बिहार के प्रति एक सकारात्मक माहौल बनाया है. शराबबंदी, दहेज एवं बाल विवाह उन्मूलन के प्रति सरकार की कोशिशों को बल मिला है और इसने बिहार को नई पहचान दी है लेकिन काम के बदले वोट मांगने का दौर अब खत्म होता जा रहा है, इसलिए चुनावों के नजदीक आने पर सोशल इंजीनियरिंग ही एकमात्र विकल्प शेष रह जाता है.

हालांकि रामविलास पासवान का जादू भी थोड़ा कम हुआ है लेकिन सबसे बुजुर्ग दलित नेता की उनकी छवि और पासवान वोट बैंक पर उनके पूर्ण कब्जे की ताकत से सभी परिचित हैं. इस लिहाज से आंकड़े भी उनकी गवाही देते रहे हैं. लालू प्रसाद के साथ उनका माई समीकरण तो है ही सवर्ण वोटों पर भी उनकी नज़र बनी हुई है और इस बार राज्यसभा में मनोज झा को भेजकर उन्होंने परिवारवाद की अपनी छवि को ध्वस्त करने का भी काम किया है लेकिन 14 फीसदी यादवों के वोट बैंक में नीतीश कुमार पप्पू यादव के सहारे सेंध लगाने की कोशिश कर सकते हैं और अगर ऐसा हो पाया तो फिर आगे बनने वाली सरकार में पप्पू यादव की भी बड़ी भूमिका होगी, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक पर लालू प्रसाद के भरोसे को तोड़ने में फिलहाल बड़ी परेशानी दिख रही है.

कुल मिलाकर कहा जाए तो दलितों की करीब सोलह फीसदी आबादी में से आधे पर कब्जे की तैयारी में लगे नीतीश कुमार एलजेपी सुप्रीमो रामविलास पासवान को सबसे मजबूत साथी मान रहे हैं क्योंकि उनको छोड़कर किसी के पास अपने वोट बैंक को टर्न कराने की क्षमता नहीं है. इसके साथ ही दलितों में सबसे ज्यादा आबादी वाली जाति रविदास, पासवान और मुसहर को साधने पर भी मंथन शुरु हो चुका है. अगर दलितों की तीन जातियों का मजबूत गठबंधन बनता है तो कुल दलित वोटरों में से करीब 75 फीसदी पर कब्जे की पटकथा लिखी जा सकेगी.

इधर, अन्य ओबीसी जातियों में से अगर आधे को भी कोई पार्टी अपने कब्जे में करने में कामयाब हो जाती है तो फिर उनकी जीत सुनिश्चित है. कुशवाहा-कुर्मी वोट बैंक पर कब्जा और यादव-मुस्लिम समीकरण में सेंध लगाने में अगर जदयू मुखिया नीतीश कुमार सफल होते हैं तो फिर सोशल इंजीनियरिंग के नए युग का सूत्रपात होगा. वैसे देश भर में एससी और एसटी कानून को लेकर मचे बवाल पर एनडीए के स्टैंड का भी बड़ा असर आने वाले चुनावों में देखने को मिलेगा. कहना गलत नहीं होगा कि दलितों के धुव्रीकरण पर तमाम राजनीतिक दलों की निगाह रहेगी और जो इसके मजबूत चक्रव्यूह का निर्माण करेगा असल में वही सियासी सिकंदर होगा.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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