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क्यों बिहार में बहार की तरह है नीतीश का शराबबंदी कानून

    • आनंद कुमार
    • Updated: 13 मार्च, 2018 01:41 PM
  • 13 मार्च, 2018 01:40 PM
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बिहार में शराब प्रतिबंधित है ऐसे में आए दिन छापे के दौरान भारी मात्रा में शराब का पकड़ा जाना इस बात की तरफ इशारा करता है कि अभी भी कहीं न कहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की योजना में भारी चूक है जिसका उन्हें अवलोकन करना चाहिए.

कोई भी काम हो. वो सौ फीसदी अच्छा ही हो, या सौ फीसदी बुरा, ऐसा नहीं हो सकता. हर काम में लाभ है, तो हानि भी है. ऐसा गीता में भी कहा गया है. वहां जो उदाहरण लिया गया है वो आग के साथ धुंए के होने का है. बिहार के लिए अभी समस्या अलग है. उसके राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा हाल तक शराब की बिक्री के कारण आता था. अप्रैल 2016 से ये अचानक बंद हो गया. चाहे कोई माने या ना माने, अपने सामाजिक सरोकारों कि वजह से ही नहीं, अपने आर्थिक प्रभाव कि वजह से भी बिहार में हर दूसरे-चौथे दिन शराबबंदी और उसके असर पर चर्चा हो जाती है.

कुछ ही दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रिय मुद्दे यानी बिहार में 23 महीने से जारी शराबबंदी पर फिर से बात छिड़ी. इस बार वजह थी वो सांख्यकी जो सरकार ने सदन के पटल पर बृहस्पतिवार (8 मार्च) को रखी. ये दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी था और शराबबंदी का एक मुख्य कारण पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान महिला संगठनो से मुख्यमंत्री का किया शराबबंदी का वादा भी था. इस वादे का अच्छा फायदा चुनावों में जद(यू) और राजद के गठजोड़ को मिला था. माना जाता है कि महिलाओं के मतों का इस गठजोड़ के जीतने में अच्छा ख़ासा योगदान था. लिहाजा आते ही नीतीश बाबू ने वादा निभाया भी.

बिहार में हुई शराबबंदी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रामबाण माना गया और इसकी लोगों ने सराहना की

अब ये मुद्दा सिर्फ मुख्यमंत्री महोदय के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा, आबकारी और पुलिस महकमे भी इस बंदी का असर दबी जबान में ही सही, स्वीकारते हैं. जो आंकड़े पेश हुए हैं उनके मुताबिक 1 अप्रैल 2016 से 6 मार्च 2018 के बीच करीब साढ़े छह लाख छापे सिर्फ शराब पकड़ने के लिए डाले गए हैं. इनमें 2 मिलियन लीटर से ऊपर शराब जब्त की गई है और 1.21 लाख लोग गिरफ्तार किये जा चुके हैं. अगर औसत निकालें तो इन आंकड़ों का मतलब...

कोई भी काम हो. वो सौ फीसदी अच्छा ही हो, या सौ फीसदी बुरा, ऐसा नहीं हो सकता. हर काम में लाभ है, तो हानि भी है. ऐसा गीता में भी कहा गया है. वहां जो उदाहरण लिया गया है वो आग के साथ धुंए के होने का है. बिहार के लिए अभी समस्या अलग है. उसके राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा हाल तक शराब की बिक्री के कारण आता था. अप्रैल 2016 से ये अचानक बंद हो गया. चाहे कोई माने या ना माने, अपने सामाजिक सरोकारों कि वजह से ही नहीं, अपने आर्थिक प्रभाव कि वजह से भी बिहार में हर दूसरे-चौथे दिन शराबबंदी और उसके असर पर चर्चा हो जाती है.

कुछ ही दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रिय मुद्दे यानी बिहार में 23 महीने से जारी शराबबंदी पर फिर से बात छिड़ी. इस बार वजह थी वो सांख्यकी जो सरकार ने सदन के पटल पर बृहस्पतिवार (8 मार्च) को रखी. ये दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी था और शराबबंदी का एक मुख्य कारण पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान महिला संगठनो से मुख्यमंत्री का किया शराबबंदी का वादा भी था. इस वादे का अच्छा फायदा चुनावों में जद(यू) और राजद के गठजोड़ को मिला था. माना जाता है कि महिलाओं के मतों का इस गठजोड़ के जीतने में अच्छा ख़ासा योगदान था. लिहाजा आते ही नीतीश बाबू ने वादा निभाया भी.

बिहार में हुई शराबबंदी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रामबाण माना गया और इसकी लोगों ने सराहना की

अब ये मुद्दा सिर्फ मुख्यमंत्री महोदय के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा, आबकारी और पुलिस महकमे भी इस बंदी का असर दबी जबान में ही सही, स्वीकारते हैं. जो आंकड़े पेश हुए हैं उनके मुताबिक 1 अप्रैल 2016 से 6 मार्च 2018 के बीच करीब साढ़े छह लाख छापे सिर्फ शराब पकड़ने के लिए डाले गए हैं. इनमें 2 मिलियन लीटर से ऊपर शराब जब्त की गई है और 1.21 लाख लोग गिरफ्तार किये जा चुके हैं. अगर औसत निकालें तो इन आंकड़ों का मतलब है कि एक दिन में 172 लोग शराबबंदी के लिए गिरफ्तार होते हैं. बिहार में हर दस मिनट में एक व्यक्ति शराब पीने-रखने के लिए जेल भेजा जा रहा है.

इसकी शुरुआत देशी शराब पर छह महीने की पाबन्दी से हुई थी और 1 अप्रैल 2016 को कोई नहीं समझ पा रहा था कि बिहार में शराबबंदी कैसी होगी. पाबन्दी के फैसले पर जनता की प्रतिक्रिया से उत्साहित सरकार ने सभी किस्म की शराब को राज्य में बंद कर दिया. उस दौर में जद(यू) की सरकार में भागिदार रहे राजद के नेता जहां इस काम का श्रेय खुद भी ले रहे थे, बाद में सरकार से अलग होने पर इसके दुष्प्रभावों को उन्होंने ही नीतीश कुमार के सर मढना भी शुरू कर दिया है.

भूतपूर्व मुख्यमंत्री दम्पति, और चारा घोटाले में सजा काट रहे लालू यादव के सुपुत्र ने हाल में ही, मुजफ्फरपुर में हुए हादसे का ठीकरा  भी मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार के सिर फोड़ा. ध्यान रहे इस हादसे में 9 बच्चों की मौत हुई थी.  इससे पहले वो कथित तौर पर जहरीली शराब से हुई मौतों का जिम्मेदार शराबबंदी को मान रहे थे. कई छोटे नेता तो बिहार में उनकी सरकार आने पर शराबबंदी कानून पूरी तरह हटाने और सभी गिरफ्तार लोगों को रिहा करने जैसी बातें भी कर चुके हैं. आखिर एक लाख बीस हजार गिरफ्तार लोगों की गिनती कोई कम नहीं होती.

बिहार में रोज छापेमारी हो रही है और शराब जब्त की जा रही है

शराबबंदी के करीब एक लाख मुक़दमे हैं, जिनमें आने वाला खर्च पूरे परिवार को झेलना पड़ता होगा, इसलिए मुकदमो को हटाना भी एक बड़ा प्रलोभन है. नवम्बर 2016 में ही नीतीश कुमार  सरकार ने एक ईमेल आई.डी. (feedbackprohibitionbihar@gmail.com) जारी कर के लोगों से शराबबंदी के क़ानून और उसमें सुधारों पर राय मांगी थी. प्रमुखतः जो सुधार सोचे-सुझाए गए थे उनमें से तीन प्रमुख थे. पहला तो ये नियम था कि जिस जगह से शराब पकड़ी जायेगी उस संपत्ति को जब्त करने का नियम था. परिवार के बच्चों और अन्य सदस्यों की क्या गलती जो उन्हें बेघर किया जाए ये सवाल जनता ने पूछा था. शुरू में ये कानून जिस घर में शराब पायी गई, या जो शराब पीता-रखता पकड़ा गया, उसके घर के सभी वयस्क सदस्यों को दोषी मान लेता था.

लोगों का मानना था कि किसी का पति, भाई या पिता कहीं शराब पी रहा है या शराब खरीद कर लाया है, ये घर के सभी सदस्यों को पता हो, ऐसा जरूरी नहीं. घर के सभी व्यस्क सदस्यों को गिरफ्तार कर लेना तो अति है. इसके अलावा सामुदायिक जुर्माने की व्यवस्था पर भी ऐतराज उठे थे. शुरू में इलाके का डीएम ये तय कर सकता था. समुदाय या मोहल्ला कहते किसे हैं और जुर्माने की रकम इस अनुपात में हो कि समुदाय उसे भरने की सोच भी पाए इसपर भी बहस रही.

ऐसे भी मौके आए जब शराबबंदी की वजह से नीतीश को आलोचना का सामना करना पड़ा

जितनी सजा इस मामले में है, उसके लिहाज से ये कानून शराब रखने या पीने को बिलकुल हत्या जैसे जघन्य अपराधों की बराबरी में ला खड़ा करता है. क्या इतनी लम्बी सजा इस अपराध के लिए माकूल है? ये भी सवाल उठता रहा है. बहरहाल अभी जब ये लिखा जा रहा है तो बिहार के सबसे बड़े शराब माफियाओं में से एक अरुण सिंह को छपरा में गिरफ्तार कर लिया गया है. उसकी निशानदेही पर छपरा, पटना और हाजीपुर में कई जगहों पर छापे मारे जा रहे हैं. जिस हिसाब से इस अपराध में हर दस मिनट में एक गिरफ़्तारी हो रही है, उस से इतना तो तय हो ही जाता है कि शराबबंदी ने बिहार में एक नए किस्म के अपराध को जन्म दे दिया है.

हाल के दौर में जब फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने शराबबंदी कानून के मामलों की सुनवाई शुरू की तो बांका और मुंगेर के इलाकों के कुछ आदिवासियों को कुल 21 दिन में ही पांच साल की सजा सुना दी गई. ये मानना मुश्किल है कि वो 8 आदिवासी ऐसी आर्थिक स्थिति में होंगे कि हाई कोर्ट तक मुकदमा लड़ें. परिवार के सभी कमाने वाले सदस्य अगर जेल में हों तो उस घर के बच्चे शिक्षा-सुरक्षा जैसी जरूरतों से महरूम भी होंगे. वो भविष्य में अपराध का रास्ता नहीं चुनेंगे ये दावा करना भी नामुमकिन है.

जैसा कि शुरू में कहा था, कोई भी चीज़ सिर्फ बुरी नहीं होती, उसमें थोड़ी सी ही सही, अच्छाई भी होगी. हर अच्छी चीज़ की भी अपनी कमियां, अपनी बुराइयां होती हैं. सामाजिक बुराइयों को कानूनी तरीकों से रोकने के कैसे नतीजे होते हैं, उन्हें समझने के लिए भी ये अच्छा है. शराबबंदी का कानून, मंशा के लिहाज से बहुत अच्छा कहा जा सकता है, पर उसके जमीनी असर से क्या हुआ वो भी समाजशास्त्रियों के शोध का विषय होना चाहिए.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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