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मजदूर को अनस्किल्ड लेबर कहना धोखा है

    • हिमांशु सिंह
    • Updated: 01 मई, 2019 06:22 PM
  • 01 मई, 2019 06:22 PM
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बिना मजदूरों के सहयोग के समाज की कल्पना व्यर्थ है. यदि हम मजदूरों को देखें और जिस तरह से वो काम करते हैं उसका अवलोकन करें तो मिलता है कि ये भी समाज के किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह अपने काम में पूरी तरह से स्किल्ड होते हैं.

आज पहली मई है. मजदूर दिवस है. दुनिया चाहे ईश्वर ने बनाई हो, पर इसको बदला और गढ़ा मजदूरों ने है. आज उनका दिन है. बचपन से पढ़ता आया हूं कि श्रम दो प्रकार का होता है-कुशल श्रम और अकुशल श्रम यानी स्किल्ड लेबर और अनस्किल्ड लेबर. बताया गया था कि कुशल श्रम वो है जिसे करने के लिए विशेष कौशल और ट्रेनिंग की जरूरत होती है जैसे किसी बैंक क्लर्क का काम. अकुशल श्रम करने के लिए किसी विशेष कौशल या ट्रेनिंग की जरूरत नहीं होती, जैसे फावड़े से मिट्टी खोदते मज़दूर का काम.

बैंक क्लर्क ने हिसाब-किताब करने की ट्रेनिंग ली है. मिनटों में हज़ारों-लाखों का हिसाब कर डालता है. सुबह से शाम तक एक्टिव मोड में काम करते रहना कुशल श्रम का अच्छा उदाहरण है. मिट्टी खोदने वाला मजदूर भी खाली पेट दिन-भर कड़ी धूप में काम जारी रखने की क्षमता विकसित कर लेता है. शारीरिक श्रम करने की ये क्षमता मजदूर का अपना कौशल है, लेकिन ये अकुशल श्रम का उदाहरण है. आखिर क्यों?

समाज के निर्माण में मजदूरों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता

समझने की बात है कि मजदूर के लिए बैंक क्लर्क का काम कर पाना जितना कठिन काम है, बैंक क्लर्क के लिए भी मजदूर की तरह भूखे पेट दिन भर धूप में मिट्टी खोदना उतना ही कठिन काम है. इसको यूं समझिये, कि देश में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तमाम डिग्रीधारी स्किल्ड लेबर में गिने जाते हैं, लेकिन 20 साल का अनुभव रखने वाला मैकेनिक अनस्किल्ड लेबर काउंट होता है, जबकि ये अनुभवी मैकेनिक अपने काम का मास्टर होता है. मैंने बहुत सारे इंजीनियरिंग किये लोगों को बैंकिंग और बीटीसी का फॉर्म भरते, प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाते देखा है.

कहना ये चाहता हूं कि श्रम का ये वर्गीकरण चाहे व्यवस्था की अस्थायी असफलता हो, लेकिन ये उन लोगों के खिलाफ एक षड्यंत्र भी जरूर है जो विशेष योग्यता होने...

आज पहली मई है. मजदूर दिवस है. दुनिया चाहे ईश्वर ने बनाई हो, पर इसको बदला और गढ़ा मजदूरों ने है. आज उनका दिन है. बचपन से पढ़ता आया हूं कि श्रम दो प्रकार का होता है-कुशल श्रम और अकुशल श्रम यानी स्किल्ड लेबर और अनस्किल्ड लेबर. बताया गया था कि कुशल श्रम वो है जिसे करने के लिए विशेष कौशल और ट्रेनिंग की जरूरत होती है जैसे किसी बैंक क्लर्क का काम. अकुशल श्रम करने के लिए किसी विशेष कौशल या ट्रेनिंग की जरूरत नहीं होती, जैसे फावड़े से मिट्टी खोदते मज़दूर का काम.

बैंक क्लर्क ने हिसाब-किताब करने की ट्रेनिंग ली है. मिनटों में हज़ारों-लाखों का हिसाब कर डालता है. सुबह से शाम तक एक्टिव मोड में काम करते रहना कुशल श्रम का अच्छा उदाहरण है. मिट्टी खोदने वाला मजदूर भी खाली पेट दिन-भर कड़ी धूप में काम जारी रखने की क्षमता विकसित कर लेता है. शारीरिक श्रम करने की ये क्षमता मजदूर का अपना कौशल है, लेकिन ये अकुशल श्रम का उदाहरण है. आखिर क्यों?

समाज के निर्माण में मजदूरों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता

समझने की बात है कि मजदूर के लिए बैंक क्लर्क का काम कर पाना जितना कठिन काम है, बैंक क्लर्क के लिए भी मजदूर की तरह भूखे पेट दिन भर धूप में मिट्टी खोदना उतना ही कठिन काम है. इसको यूं समझिये, कि देश में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तमाम डिग्रीधारी स्किल्ड लेबर में गिने जाते हैं, लेकिन 20 साल का अनुभव रखने वाला मैकेनिक अनस्किल्ड लेबर काउंट होता है, जबकि ये अनुभवी मैकेनिक अपने काम का मास्टर होता है. मैंने बहुत सारे इंजीनियरिंग किये लोगों को बैंकिंग और बीटीसी का फॉर्म भरते, प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाते देखा है.

कहना ये चाहता हूं कि श्रम का ये वर्गीकरण चाहे व्यवस्था की अस्थायी असफलता हो, लेकिन ये उन लोगों के खिलाफ एक षड्यंत्र भी जरूर है जो विशेष योग्यता होने के बावजूद अनस्किल्ड लेबर कहे और समझे जाते हैं. सच तो ये है कि देश भर में शिक्षा विभाग के भ्रष्टाचार और मजबूत शिक्षा माफ़िया के बदौलत अधिकांश डिग्रीधारियों की योग्यता सिर्फ कागज़ी है.

आप ही बताइए, स्कूली शिक्षा छूट जाने के बावजूद कामायनी जैसा महाकाव्य रचना क्या जयशंकर प्रसाद का अकुशल श्रम था? आज यही रचना आईएएस परीक्षा के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है.दरअसल ज्यादातर मामलों में कुशल और अकुशल श्रम का बंटवारा व्यवस्था का बुर्जुआ रवैया ज़ाहिर करता है. अगर ऐसा न होता तो सरकार द्वारा तय कुशल और अकुशल श्रम की न्यूनतम दरों का अंतर सुधार होने तक प्रतीकात्मक ही रहता.

समझने की बात है कि व्यवस्था में ऐसे तमाम तत्त्व हमेशा मौजूद रहते हैं जो हमेशा बुर्जुआ और सक्षम लोगों के हित में काम करते हैं. सोचिये, कक्षा 8 की किताब में मौजूद 'अगर किसी काम को करने में 3 पुरुष 8 घंटे लगाते हैं और 3 स्त्रियां 10 घंटे लगाती हैं, तो उस काम को 5 स्त्रियां कितनी देर में पूरा करेंगी?' जैसे सवाल बचपन से ही ये परसेप्शन बना देते हैं कि औरतें पुरुषों से कमजोर और कम काम करने वाली होती हैं.

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और ये सब कैसे रुकेगा? ऐसी तमाम बातें और सवाल आज के दिन पूछे जाने चाहिए. क्रांति करना मेरा उद्देश्य नहीं है. बस मन में बात आई तो आपसे साझा कर लिया.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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