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हिजाब पर ईरान में खामनेई की अपील, आंध्र में अशराफों का पाखंड और शरद पवार की चिंता!

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 27 अक्टूबर, 2022 12:23 PM
  • 19 अक्टूबर, 2022 02:17 PM
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शरद पवार कह रहे हैं कि बॉलीवुड में अल्पसंख्यकों का योगदान सबसे ज्यादा है. और, ईरान के अली खामेनेई भी हिजाब को लेकर मुस्लिम स्कॉलर और बुद्धिजीवी से अपील करते दिखते हैं. इस बीच गुंटूर में अशराफ मुसलमानों की तरफ से एक दरगाह तोड़ने की कोशिश होती है. तीनों घटनाएं अलग भले हों, पर एक चीज है इनमें जो तीनों को जोड़ देता है. साहिर लुधियानवी के बहाने आइए समझते हैं वह क्या है?

मेरी एक दोस्त ने सोशल मीडिया पर बताया कि उसकी बेटी 'बाकी जो बचा था काले चोर ले गए' सुन रही है. हालांकि उसने यह भी लिखा- गीत के बोल नस्लवादी हैं बावजूद संगीत बढ़िया है. यह 1960 में आई हिंदी फिल्म 'मासूम' का गाना है. साहिर लुधियानवी (अब्दुल हई) ने लिखा था. संगीत हेमंत कुमार का और गाया था रानू मुखर्जी ने. धुन, गायकी की वजह से यह बॉलीवुड के सदाबहार गानों में शुमार है और आज भी सुना जाता है. लोकप्रियता का अंदाजा ऐसे भी लगाए कि ना जाने कितने कार्टून्स में इसका इस्तेमाल हुआ है. बच्चे सुनते भी खूब हैं.

बावजूद लोगों ने कभी इस पर ठहरकर ध्यान दिया होगा, मैं कह नहीं सकता. यह भी हो सकता है कि साहिर का किरदार हमारे आसपास इतना विशाल और व्यापक तरीके से प्रस्तुत किया गया कि शायद उसके दबाव में ध्यान नहीं गया हो लोगों का. चोर काला ही क्यों होता है? जैसा कि मेरी दोस्त ने सवाल उठाया. पिछले छह दशक से तमाम काले-गोरे-सांवले-गेहुआं रंग के बच्चे इसे सुनकर बड़े हुए हैं. अभी भी हो रहे हैं. जो रंग से साफ़ हैं- उन्हें घुट्टी में उनकी अहमियत पता चल गई. वे ईमानदारों के वारिस ठहरे. और जो सांवले और काले हैं- सीधे ऐतिहासिक अवसाद का हिस्सा बन गए और एक कुंठा के साथ बड़े हुए. और गोरों के साथ उनका सामंजस्य तभी बना रहेगा जब तक कि वे इसपर चुप रहते हैं. मेरी दोस्त ने जो लिखा- असल में उसी से जुड़ी कुछ रहस्यमयी चीजों को लेकर इधर मैं भी उधेड़बुन में हूं. साहिर का लिखा यह गीत इकलौता नहीं है. कई मिलेंगे. और भी गीतकारों-लेखकों के गीत, कहानियां संवाद. नाना प्रकार के दृश्य साहित्य-सिनेमा में ध्यान खींचते हैं.

अभी हाल ही में शरद पवार ने बॉलीवुड में सबसे ज्यादा योगदान किसका रहा, यह पूछते हुए कहा कि कला, कविता और लेखन में अल्पसंख्यकों के योगदान की अपार क्षमता है. यहां अल्पसंख्यकों का मतलब सीधे-सीधे मुसलमानों से था. बिना देर किए तुरंत उन्होंने साफ़ भी किया- "मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने सबसे अधिक योगदान किया (सिनेमा और कला के तमाम क्षेत्रों में) हम अनदेखी नहीं कर सकते." पवार साब पहले भी...

मेरी एक दोस्त ने सोशल मीडिया पर बताया कि उसकी बेटी 'बाकी जो बचा था काले चोर ले गए' सुन रही है. हालांकि उसने यह भी लिखा- गीत के बोल नस्लवादी हैं बावजूद संगीत बढ़िया है. यह 1960 में आई हिंदी फिल्म 'मासूम' का गाना है. साहिर लुधियानवी (अब्दुल हई) ने लिखा था. संगीत हेमंत कुमार का और गाया था रानू मुखर्जी ने. धुन, गायकी की वजह से यह बॉलीवुड के सदाबहार गानों में शुमार है और आज भी सुना जाता है. लोकप्रियता का अंदाजा ऐसे भी लगाए कि ना जाने कितने कार्टून्स में इसका इस्तेमाल हुआ है. बच्चे सुनते भी खूब हैं.

बावजूद लोगों ने कभी इस पर ठहरकर ध्यान दिया होगा, मैं कह नहीं सकता. यह भी हो सकता है कि साहिर का किरदार हमारे आसपास इतना विशाल और व्यापक तरीके से प्रस्तुत किया गया कि शायद उसके दबाव में ध्यान नहीं गया हो लोगों का. चोर काला ही क्यों होता है? जैसा कि मेरी दोस्त ने सवाल उठाया. पिछले छह दशक से तमाम काले-गोरे-सांवले-गेहुआं रंग के बच्चे इसे सुनकर बड़े हुए हैं. अभी भी हो रहे हैं. जो रंग से साफ़ हैं- उन्हें घुट्टी में उनकी अहमियत पता चल गई. वे ईमानदारों के वारिस ठहरे. और जो सांवले और काले हैं- सीधे ऐतिहासिक अवसाद का हिस्सा बन गए और एक कुंठा के साथ बड़े हुए. और गोरों के साथ उनका सामंजस्य तभी बना रहेगा जब तक कि वे इसपर चुप रहते हैं. मेरी दोस्त ने जो लिखा- असल में उसी से जुड़ी कुछ रहस्यमयी चीजों को लेकर इधर मैं भी उधेड़बुन में हूं. साहिर का लिखा यह गीत इकलौता नहीं है. कई मिलेंगे. और भी गीतकारों-लेखकों के गीत, कहानियां संवाद. नाना प्रकार के दृश्य साहित्य-सिनेमा में ध्यान खींचते हैं.

अभी हाल ही में शरद पवार ने बॉलीवुड में सबसे ज्यादा योगदान किसका रहा, यह पूछते हुए कहा कि कला, कविता और लेखन में अल्पसंख्यकों के योगदान की अपार क्षमता है. यहां अल्पसंख्यकों का मतलब सीधे-सीधे मुसलमानों से था. बिना देर किए तुरंत उन्होंने साफ़ भी किया- "मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने सबसे अधिक योगदान किया (सिनेमा और कला के तमाम क्षेत्रों में) हम अनदेखी नहीं कर सकते." पवार साब पहले भी ऐसा कह चुके हैं. क्या वे गलत कह रहे है? भारतीय सिनेमा का तो नहीं पता, लेकिन मौजूद हिंदी सिनेमा में एक बहुत बड़ा योगदान मुसलमान कलाकारों का रहा. इसे खारिज नहीं किया जा सकता. बस दिक्कत यह है कि आखिर उनका मूल्यांकन किस जमीन और किस भूगोल की जरूरत के हिसाब से किया जाए? विचारधारा नहीं.

विचारधारा जैसी चीजें बुद्धिजीवियों का खिलवाड़ हैं. गढ़ी गई छवियों को बचाने के लिए इसकी आड़ ली जाती है बस.

खामनेई  और गुंटूर घटना का वीडियो.

साहित्य हो या सिनेमा, मुसलमानों का योगदान कभी कम नहीं रहा (दुर्भाग्य से सभी बुद्धिजीवी मुसलमान अशराफ थे). जब तय हो गया कि भारत का विभाजन होकर रहेगा. और हो गया- बावजूद उनका बौद्धिक कलात्मक योगदान दिखता है भारत में. अभी भी. दक्षिण के इलाकों में विभाजन की विभिषिका नहीं थी. लेकिन तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों से भी आम मुसलमान जो उर्दू का "क ख ग" भी नहीं जानते थे, पाकिस्तान गए. गरीब भी और रईस भी. आज वे तमिल, मलयाली और कन्नड़ पहचान के बगैर वहां ठगा महसूस कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश, अवध, बंगाल, मालवा, भोपाल, हैदराबाद यहां तक कि कर्नाटक के कुलबर्गा के लेखक, कवि, शायर, कहानीकार, गायक, संगीतकार, अभिनेता मुसलमानों का (मूल रूप से इनके पूर्वज टर्की, ईरान, अफगानिस्तान से थे) बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान की बजाए मुंबई का रुख करते दिखता है.

मुसलमान नहीं शरद साब सिर्फ अशराफ, जो लेखक बने या फिल्म मेकर

यह सिलसिला 1940 से 1960  तक खूब नजर आया. लोकतांत्रिक भारतवंशी अशराफ जो मुंबई और दूसरी जगहों अपने काम में जम चुके थे, बंटवारे में पाकिस्तान को चुना. साहिर लुधियानवी भी एक थे. हालांकि वह लाहौर से कुछ महीनों में उकताकर वापस भारत आए. और भी कई लोग वापस आए हैं. बाकी दिलीप कुमार जैसे लोग तो बंटवारे और पाकिस्तान के भूगोल से जुड़ा होने के बावजूद वहां जाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. हमीद अख्तर ने विभाजन और साहिर के साथ लाहौर में बिताए आख़िरी हफ़्तों को लेकर अपनी किताब में बताया कि वह (साहिर) पाकिस्तान में असुरक्षित महसूस करने लगे थे. बावजूद कि उन्होंने लाहौर में एक मकान अलॉट करवा लिया था, उस जमाने में उन्हें एक पत्रिका के संपादन के बदले 50 रुपये मिल जाते थे. लेकिन आमदनी बढ़ाने का और कोई जरिया नहीं था. बाद में पाकिस्तान छोड़कर भाग गए. क्या एक क्रांतिकारी लेखक के लिए 50 रुपये उस जमाने में कुछ कम थे?

हमीद अख्तर बताते हैं कि दोस्तों के जरिए मिली आशंकाओं की वजह से साहिर को भारत भागना पड़ा. उनके एक दोस्त ने पुलिस और सीआईडी का ऐसा डर बनाया कि पाकिस्तान को लेकर साहिर नाउम्मीद से हो गए. चूंकि शरद पवार ने मुसलमान (अशराफ) लेखकों के योगदान का जिक्र किया है तो दो बड़े सवाल बनते हैं. दर्जनों नामों के सहारे पूछा जा सकता है, मैं साहिर के हवाले से पूछता हूं. पहला- साहिर की पाकिस्तान और उससे भी ज्यादा इस्लाम में आस्था नहीं थी क्या? आस्था नहीं होती तो क्या वह लुधियाना की बजाए पाकिस्तान को चुनते?  उस्ताद विस्मिल्ला खां तो नहीं गए थे. जब विभाजन का नारा ही था- 'पाकिस्तान का मतलब क्या ला इलाहा इल्ललाहा." साहिर का वहां जाना उनकी निजी रजामंदी थी. फिर उनके वापस आने को संदेह से क्यों ना देखा जाए? क्या मजहब के आधार पर बने देश को लेकर उनका चिंतन, आर्थिक तंगी की वजह से भारत लौटने भर से बदल सकता था?

दूसरा- सिर्फ लग्जरी की तलाश में वापस भारत आए साहिर और उनका लेखन भारत, भारतीयता और देश के पुनर्निर्माण को लेकर निरपेक्ष था, क्या यह माना जा सकता है? साहिर, अल्लामा इकबाल से निश्चित ही प्रभावित रहे होंगे. अल्लामा ने उन मुस्लिम-लेखकों-विचारकों-नेताओं का बौद्धिक प्रतिनिधित्व किया जिन्होंने पाकिस्तान की कल्पना को हकीकत के अंजाम तक पहुंचाया. कहते हैं कि अगर अल्लामा नहीं होता, तो पाकिस्तान नहीं बनता. अल्लामा तीसरी पीढ़ी का धर्मांतरित ब्राह्मण मुसलमान था. बावजूद कि मुसलमान होने के नाते वह पाकिस्तान चाहता था, मगर उसे अपनी ब्राह्मण वंशावली पर भी कम गर्व नहीं था. उसने सैयदों से खुद की श्रेष्ठता साबित करने के लिए लिखा भी था-

"मैं असल का ख़ास सोमनाती,आबा मेरे लाती व मानाती.तू सैयद-ए-हाशिमी की औलाद,मेरे कफ-ए-खाक ब्राह्मनज़ाद."

एक और शेर में उसने अपनी जाति पर गर्व करते हुए लिखा-

"मेरा बीनी कि दर हिन्दोस्तां दीगर नमी बीनी, बरहमन ज़ादये रम्ज़ आशना-ए-रूम व तबरेज़ अस्त.

यानी कि मुझे देखिए, भारत में मुझ जैसा कोई दूसरा नहं दिखेगा. मैं ब्राह्मणपुत्र मौलाना 'रूमी' और 'शम्स तब्रेज़' के रहस्य से परिचित हूं.

अल्लामा के दर्जनों शेर हैं. साहिर निश्चित ही प्रभावित रहे होंगे. असल में साहिर के पूर्वज लुधियाना के हिंदू गुज्जर थे और वे बड़े जमींदार भी थे. वो चाहे अल्लामा हों, साहिर हों या जिन्ना हों- पाकिस्तान बनने के पीछे मुसलमान उच्च जातियों की गोलबंदी दिखती है. इसमें अशराफ मुसलमान (भारतवंशी और विदेशी मूल दोनों) थे. और यह भी कि अल्लामा ने क्या भारत का यशगान किसी से कम किया है. यशगान के दबाव में उसका मूल्यांकन तो नहीं होगा. आज के पाकिस्तान में संसाधनों में भागीदारी देखें तो यह निष्कर्ष स्वाभाविक रूप से निकलकर आता है कि धार्मिक आधार पर पाकिस्तान का निर्माण सिर्फ उच्च जाति के मुसलमानों की सत्ता पर काबिज होने की एक मनमानीपूर्ण योजना भर थी. इस्लाम के नाम पर उसे मुकम्मल किया गया. आप पाकिस्तान की राजनीति, कारोबार, सेना, अदालतों, यूनिवर्सिटीज आदि को देखें तो समझ में आ जाता है. बंगाल से बलूचिस्तान तक भारत की तरह की जो सांस्कृतिक विविधता थी उसे इस्लाम के नाम पर कुछ वर्गों और जातियों के संपूर्ण नियंत्रण पुख्ता करने के लिए बदल दिया गया. उसके दुष्परिणाम एक अलग बहस का विषय है.

साहिर या अमरोहा से अवध तक जमींदारों नवाबों और सामंतों के एक भाई पाकिस्तान गए और दूसरा भाई मुंबई पहुंचा. उन लोगों ने क्या बनाया और जिंदगी भर किस चीज को डिफेंड करते नजर आते हैं-  खुली आंखों देखा जा सकता है. कोई अकबर पर फिल्म बना रहा है. कोई बैरम खां पर. कोई रजिया सुल्तान पर फिल्म लिखकर आयरन लेडी साबित कर रहा. हिंदुओं के धार्मिक पाखंड को उजागर किया जा रहा. दूसरी तरफ इस्लामिक रुढ़िवाद पर निकाह के अलावा कोई फिल्म मिलती है क्या? और निकाह पर भी कुछ कम बवाल काटा गया. गदर, बॉर्डर जैसी फिल्मों के खिलाफ सिनेमाघरों के बाहर कैम्पेन हुए हैं. इसी देश में और यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है. गदर में क्या था- या दूसरी फिल्मों में क्या था, सिनेमा उठाकर देख लीजिए. चूंकि शरद पवार ने सवाल उठाया है तो साहित्य और सिनेमा के आलोचकों को चाहिए कि उसका पुनर्मूल्यांकन करें. आप कहेंगे कि यह क्यों जरूरी है? दो ताजा और घटनाओं की तरफ ध्यान दीजिए.

गुंटूर में दरगाह तोड़कर मस्जिद क्यों बन रही?

आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले के हिंदू बहुल इलाके में स्थित एक दरगाह को तोड़ने की कोशिश हुई है. मजेदार यह कि दरगाह को हिंदू नहीं बल्कि मुस्लिमों का अशराफ तबका तोड़ना चाहता है. भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और आंध्र प्रदेश इकाई के सहप्रभारी सुनील देवधर ने घटना का वीडियो साझा करते हुए आरोप लगाया कि स्थानीय मुस्लिम विधायक और सरकार के संरक्षण में पसमांदा मुसलामानों की आस्था का केंद्र एक छोटे दरगाह को तोड़कर उसकी जगह विशाल मस्जिद बनाने की कोशिशें हो रही हैं. वे ऐसा नहीं होने देंगे. दावा यह भी कि पसमांदा तबका इसका विरोध कर रहा है. दरगाह में हिंदुओं की भी श्रद्धा है. दरगाह का जो गेट तोड़ा जा रहा है उस पर शेषनाग के साथ मुस्लिमों के धार्मिक चिन्ह, गंगा-जमुनी तहजीब की गवाही देते साफ़ दिखते हैं.

सुनील देवधर का वीडियो नीचे देख सकते हैं:-

चूंकि वीडियो पर जुबैर भाई ने फैक्ट चेक नहीं किया है तो मैं भाजपा नेता के आरोपों को पुष्ट नहीं मानता. और आप से भी गुजारिश करता हूं कि जबतक न्यूयॉर्क टाइम्स से सर्टीफाइड ईमानदार लोकतांत्रिक और अंतरराष्ट्रीय फैक्टचेकर की जांच ना हो जाए- आप भी यकीन ना करें. वीडियो कितना सही है यह मैं नहीं जानता, लेकिन इसे देखकर जो पहला सवाल मन में आता है कि भला एक दरगाह को तोड़कर उसी जगह मस्जिद बनाने की जरूरत क्या है? अगर मस्जिद आवश्यक है तो विधायक जी उसे किसी और जगह बना सकते हैं. बिना मतलब का झगड़ा खड़ा करने की क्या जरूरत है.

कल देर शाम ईरान से जुड़ी रिपोर्ट्स पढ़ रहा था अयातुल्लाह अली खामनेई के बयान ने कई चीजों को साफ़ कर दिया. ईरान में ठीक से हिजाब ना पहनने की वजह से एक कुर्द लड़की को मार दिया जाता है. ईरान के इतिहास में इस्लामिक क्रांति के बाद यह दूसरी बड़ी घटना है जिसकी वजह से समूचा देश आज की तारीख में सड़क पर है. अब तक कई लोग दमन में अपनी जान गंवा चुके हैं. हजारों लोगों को जेलों में डाला गया है. खामनेई ने समूचे आंदोलन को मजहब पर खतरा बताते हुए दुनिया के इस्लामिक देशों से एकजुट होकर उस पेड़ को बचाने की अपील की जिसका मौजूदा स्वरुप इस्लामिक क्रांति के चार दशक बाद फिलहाल नजर आ रहा है.

ईरान के सुप्रीम लीडर खामनेई ने एक ट्वीट में लिखा- "इस्लामिक देशों में एकता संभव है. मगर उसके लिए काम करने की आवश्यकता है. हमने इस्लामिक देशों के राजनेताओं और शासकों में उम्मीद ख़त्म नहीं की है बावजूद हमारी सबसे बड़ी उम्मीद उसके अभिजात वर्ग से है, जिसमें धार्मिक स्कॉलर, बुद्धिजीवी, प्रोफ़ेसर, समझदार युवा, कवि, लेखक, प्रेस आदि हैं." खामनेई का सिर्फ यह एक ट्वीट अल्लामा इकबाल, मंटो, शम्सुरहमान फारुखी, राही मासूम रजा, बरास्ते काले चोर साहिर तक ना जाने कितने नाम और उनके लिटरेचर (ब्यौरा लिखते-लिखते थक जाएंगे आप) को साफ़ करने के लिए पर्याप्त हैं. शरद पवार की चिंताओं के हवाले गुंटूर पर बहस करें. अयातुल्लाह अली खामनेई को भी मुस्लिम स्कॉलर्स से उम्मीद है, शरद पवार को भी. आखिर क्या है ऐसा?

असल में एक लंबे वक्त से भारत का अशराफ तबका- वह लेफ्ट, राइट सेंटर, लेखक, पत्रकार, अभिनेता जो भी हो- मनमानीपूर्ण चीजों का बचाव कर रहा है. आपको क्या लगता है- नसीरुद्दीन शाह से लेकर जावेद अख्तर, आमिर खान तक मुगलों को भारत का आर्किटेक्ट क्यों बताते रहते हैं? वो रटवाना चाहते हैं पसमांदा को कि औरंगजेब सिर्फ मेरा दादा नहीं, तुम्हारा भी है. जो है ही नहीं. और इनसे नीचे का जो बुद्धिजीवी तबका है, वह मजहबी प्रसार के लिए काम करता नजर आता है. उनके निशाने पर भी पसमांदा समाज ही है जो अभी भी अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है. कुछ हफ्ते पहले ही एक मौलाना साब ने फतवा जारी किया था कि मुसलमानों को काजल, हल्दी, रात को होने वाली शादियों जैसी तमाम परंपराएं बंद कर देनी चाहिए. क्योंकि यह गैरइस्लामिक हैं. मजार और कब्रों की इबादत को भी एक तबका गैरइस्लामी करार देता है. और इसके खिलाफ सार्वजनिक रूप से मुहिम चलाई जाती है. मुहिम चलाने वालों में कई जाने पहचाने चेहरे हैं जिन्हें आप आजका सस्ता साहिर भी कह सकते हैं.

साहिरों के लिए जब भारत ही ठीक था फिर पाकिस्तान क्यों बनवाया गया इनकी सहमति से?

असल में पाकिस्तान के अशराफों से भारत के अशराफों की भूमिका बहुत अलग नहीं नजर आती. मुसलमानों की पूरी राजनीति का नेतृत्व यहां भी तो अशराफ ही करता दिखता है. एक दो अपवाद छोड़ सकते हैं. वक्फ बोर्ड और इस्लामी संस्थाओं पर इन्हीं का कब्ज़ा है. इसे ऐसे समझें कि कमांड अशराफ देता है और पसमांदा का काम उसके हर कमांड को फ़ॉलो करना है. बिना सवाल किए. अशराफ अपने रुतबे का इस्तेमाल कर कमांड देकर भारत में दबाव बनाता है- मोलभाव करता और अपने लिए चीजों को सुरक्षित करता है. सब अपनी भूमिका में नजर आते हैं.

जब मौलवी साब पसमांदा को हिजाब पहनने और शरिया के हिसाब से चलने की सलाह देते हैं. लेकिन हिजाब की पसंद और नापसंद को लेकर बहस उठती है तो पहली पीढ़ी में दलित के भ्रष्टाचार से चिंतित और आख़िरी पीढ़ी के जमींदार विपन्न वारिसदार मुसलमान को क्रांतिकारी बताने वाले (नीम का पेड़ में) राही मासूम रजा की फैमिली फोटो सामने रख दी जाती है. पॉप सिंगर बहू पार्वती खान का हाथ थामे बैठे रजा साहब, क्रांतिकारियों के घर में पैदा हुए शाहरुख खान या हज करने के बावजूद गैरइस्लामी चीजों में मशगूल आमिर की फैमिली तस्वीरों के जरिए भारत के प्रगतिशील मुसलमानों की झूठी छवि पेश की जाती है. दुर्भाग्य से आप ओवैसी साब की फैमिली तस्वीरें नहीं देख पाते जो एक बुरकेवाली को देश का प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं.

लेकिन ओवैसी भी अपने दायरे में PFI का बचाव करना पड़ता है. क्यों भला? वो भले यूपी में एक भी सीट और दस प्रतिशत वोट हासिल नहीं कर पाते, मगर उनकी सभाओं में जुटने वाली भीड़ निर्विवाद रूप से घोषणा करती है कि मुसलमानों का नेता कौन है? अखिलेश यादव और शरद पवार अभी भी भ्रम में हैं. पूर्व शिवसैनिक और घोर भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल काट चुके छगन भुजबल के जन्म दिवस समारोह में जावेद अख्तर, शरद पवार की ही मौजूदगी में गंगा जमुनी तहजीब का स्वस्ति वाचन करते हैं और वहीं पर फारुख अब्दुल्ला अच्छा हिंदू और खराब हिंदू का कॉन्सेप्ट पेश करते हैं. जावेद साहब और फारुख साब से अच्छा मुसलमान और खराब मुसलमान सुना कभी? वे आतंकियों को खराब मुसलमान मानते हैं और जिन्हें खराब हिंदू कह रहे होते हैं असल में उन्हें आतंकी ही कहना चाहते हैं.

मुझे नहीं मालूम ईरान में धार्मिक स्कॉलर, बुद्धिजीवी, प्रोफ़ेसर, समझदार युवा, कवि, लेखक, प्रेस आदि से खामनेई क्या बचाने की अपील कर रहे हैं. लेकिन अगर गुंटूर और भारत की रोजाना के संदर्भों में निकल रही घटनाओं को देखें तो कहा जा सकता है कि यहां भी अशराफ अपनी सुपरपावर बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है. इसका मतलब है कि वह दरक गया है या टूटने वाला है. बावजूद वह अब भी वोटबैंक को हांकते हुए राजा बने रहने का खाव्ब देख रहे हैं. भारतीयता के हित में यह ख्वाब टूटना जरूरी है. साहिर को चोर काला क्यों नजर आया, पाकिस्तान से लौटकर साहिर लेखन में कौन सी क्रांति करने आए थे- क्या यह बताने कि चोर काला है? आलोचकों को चाहिए कि महामानवीय बोझ से निकलकर निरपेक्ष मन से पुनर्मूल्यांकन करें. वैसे ही करें जैसे वे तमाम दूसरी चीजों का करते आए हैं. यह जरूरी है.

साहिरों के लिए जब भारत ही ठीक था फिर पाकिस्तान क्यों बनाने की जरूरत क्या थी?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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