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देशद्रोही वे सभी हैं जो ISRO के वैज्ञानिक नांबी नारायणन को जासूस साबित करना चाहते थे

    • मृगांक शेखर
    • Updated: 15 सितम्बर, 2018 04:56 PM
  • 15 सितम्बर, 2018 04:56 PM
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24 साल बाद इसरो के वैज्ञानिक रहे नांबी नारायणन के घर आखिरकार खुशी लौटी है. ₹50 लाख का मुआवजा भी मिला है उन्हें, लेकिन देश को हुए उस नुकसान का क्या जो नंबी नारायणन को फंसाये जाने के चलते हुआ?

बाकी बातें उतनी खतरनाक नहीं होतीं. 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.' डॉक्टर एस नांबी नारायणन के सपने यूं ही मर गये होते तो शायद मामला उतना खतरनाक नहीं होता.

नांबी नारायणन के सपनों को मार डाला गया. नांबी नारायण के सपने किसी हादसे का शिकार नहीं हुए, बल्कि पुलिस और सत्ता के गठजोड़ ने धावा बोला और देश की तरक्की के लिए देखे गये अच्छे भले सपने को सरेआम मार डाला गया.

ISRO के वैज्ञानिक नांबी नारायणन बरी तो बीस साल पहले ही हो गये थे, लेकिन उनके सपनों के कातिल खुलेआम घूमते रहे हैं. 24 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार को ₹ 50 लाख बतौर मुआवजा देने का हुक्म जरूर दिया है, लेकिन जो यातना नांबी नारायणन और उनके परिवार ने झेली है - और देश का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई तो नामुमकिन ही है.

चौबीस साल तक तारीख पर तारीख

साल दर साल, तारीख पर तारीख, मामूली नहीं होती. चौबीस साल कम नहीं होते... इतने में तो उम्रकैद की भी कई सजाएं पूरी हो चुकी होतीं. नांबी नारायणन क्रायोजेनिक इंजिन के ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे जो पूरा होता तो देश को कितना आगे ले गया होता, कहने की नहीं सिर्फ समझने की जरूरत है.

बेदाग बरी होना और सबूतों के अभाव में छूट जाने में बहुत बड़ा फर्क होता है. अब तो भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे अपराधों के आरोप में जेल जाने वाले भी खुद को आजादी के आंदोलन के सिपाही जैसा पेश करते हैं - ये कहते हुए कि देश के लिए गांधी जी को भी जेल जाना पड़ा था.

कौन देगा एक वैज्ञानिक को हुए 24 साल का हिसाब

नांबी नारायणन न सिर्फ बेदाग बरी हुए हैं, बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत टिप्पणी है कि नांबी नारायणन को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार करके परेशान किया गया और मानसिक यातना दी गयी.

हिरासत, गिरफ्तारी और जेल - सभी जगह उन...

बाकी बातें उतनी खतरनाक नहीं होतीं. 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना.' डॉक्टर एस नांबी नारायणन के सपने यूं ही मर गये होते तो शायद मामला उतना खतरनाक नहीं होता.

नांबी नारायणन के सपनों को मार डाला गया. नांबी नारायण के सपने किसी हादसे का शिकार नहीं हुए, बल्कि पुलिस और सत्ता के गठजोड़ ने धावा बोला और देश की तरक्की के लिए देखे गये अच्छे भले सपने को सरेआम मार डाला गया.

ISRO के वैज्ञानिक नांबी नारायणन बरी तो बीस साल पहले ही हो गये थे, लेकिन उनके सपनों के कातिल खुलेआम घूमते रहे हैं. 24 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार को ₹ 50 लाख बतौर मुआवजा देने का हुक्म जरूर दिया है, लेकिन जो यातना नांबी नारायणन और उनके परिवार ने झेली है - और देश का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई तो नामुमकिन ही है.

चौबीस साल तक तारीख पर तारीख

साल दर साल, तारीख पर तारीख, मामूली नहीं होती. चौबीस साल कम नहीं होते... इतने में तो उम्रकैद की भी कई सजाएं पूरी हो चुकी होतीं. नांबी नारायणन क्रायोजेनिक इंजिन के ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे जो पूरा होता तो देश को कितना आगे ले गया होता, कहने की नहीं सिर्फ समझने की जरूरत है.

बेदाग बरी होना और सबूतों के अभाव में छूट जाने में बहुत बड़ा फर्क होता है. अब तो भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे अपराधों के आरोप में जेल जाने वाले भी खुद को आजादी के आंदोलन के सिपाही जैसा पेश करते हैं - ये कहते हुए कि देश के लिए गांधी जी को भी जेल जाना पड़ा था.

कौन देगा एक वैज्ञानिक को हुए 24 साल का हिसाब

नांबी नारायणन न सिर्फ बेदाग बरी हुए हैं, बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत टिप्पणी है कि नांबी नारायणन को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार करके परेशान किया गया और मानसिक यातना दी गयी.

हिरासत, गिरफ्तारी और जेल - सभी जगह उन पर काफी जुल्म ढाये गये. पुलिस ने नांबी नारायणन पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल किया. मीडिया से बातचीत में नांबी नारायणन सिर्फ इतना ही कहते हैं, "मैं उसके बारे में अब अधिक बात नहीं करना चाहता... मुझे बहुत बुरी तरह मारा पीटा गया था." नांबी नारायणन ने ये बात बीबीसी हिंदी को बतायी.

नांबी नारायणन को अपनी लंबी लड़ाई में ऐसे अनगिनत वाकयों से साबका हुआ जिन्हें वो याद नहीं रखना चाहते, मगर कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें वो चाह कर भी भुला नहीं पाते. गिरफ्तारी के वक्त एक अफसर की बात भी ऐसी रही कि जो नांबी नारायणन को बार बार याद आती है - "सर, हम अपनी ड्यूटी कर रहे हैं. आप जो कह रहे हैं अगर वो सही होगा तो आप मुझे अपनी चप्पल से पीट सकते हैं." दो दशक पुराना ये वाकया नांबी नारायणन ने इकनॉमिक टाइम्स से बातचीत में शेयर किया है.

एक सवाल बरबस उठता है - इतनी लंबी लड़ाई नांबी नारायणन ने कैसे लड़ी? वो कौन सी ताकत थी जो उन्हें लगातार संबल देती रही? वो क्या था जिसकी बदौलत नांबी नारायणन कभी डिगे नहीं?

हालत तो ये रही कि कई बार नांबी नारायणन के मन में जिंदगी से ही तौबा कर लेने जैसे ख्यालात भी आये, लेकिन उनके बच्चे और पूरा परिवार चट्टान की तरह उनके साथ खड़ा रहा. एक तरफ परिवार का साथ और दूसरी तरफ पूरी दुनिया से लोहा लेना था. झूठे खड़े किये गये इल्जामात, जबरदस्ती जुटाये हुए सबूतों के बूते गढ़ी गयी कहानी - सभी से एक साथ नांबी नारायणन को मुकाबला करना था. झूठ झूठ ही होता है - और सच सिर्फ सच. नांबी नारायणन के परिवार को पक्का यकीन था. बच्चों को तो बहुत ही ज्यादा.

नांबी नारायणन बताते हैं कि उनके बच्चों ने एक बार कहा कि उनकी मौत के बाद वे एक जासूस के बच्चों के रूप में जाने जाएंगे और सिर्फ वही ऐसे शख्स हैं जो उन्हें इतनी बड़ी तोहमत से बचा सकते हैं. यही वो बात रही जिसकी वजह से नांबी नारायणन ने लड़ाई जारी रख पायी. बेगुनाही की ओर बढ़ती राह बड़ी ही दुष्कर होती है. मिशन पूरा हो सके इसके लिए नांबी नारायणन का हर हाल में जिंदा रहना तो और भी ज्यादा जरूरी था - बढ़ती उम्र में ये चुनौती लगातार कठिन होती जा रही थी.

बीबीसी से बातचीत में नारायणन कहते हैं, "अब तक, ये एक लड़ाई थी. लेकिन, ये अब खत्म हो गई है. मैं अब अपने लिए जीना चाहता हूं. बहुत हो गया."

देश का नुकसान देशद्रोह नहीं तो और क्या है?

नांबी नारायणन पर फर्जी केस के चलते भारत में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के निर्माण पर उस वक्त जो काम शुरू हुआ था वो दशकों पीछे हो गया. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने मिशन 2020 को लेकर जो सपने देखे थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो 2022 में देश के बेटे-बेटियों को अंतरिक्ष में भेजने की बात किये हैं - ये सब बहुत पहले हो चुका होता. अब तक तो बात उससे आगे जाने की हो रही होती.

अगर नांबी नारायणन को फंसाया न गया होता, सोचा देश कितना आगे जाता...

क्या ये सब केरल पुलिस ने यूं ही कर डाला जैसे किसी भी फर्जी एनकाउंटर का प्लॉट तैयार होता है?

या फिर, केरल पुलिस पर ऐसा करने का कोई राजनीतिक दबाव रहा? ऐसी क्या वजह रही कि जब सीबीआई कोर्ट ने 1994 में नांबी नारायणन को बरी कर दिया था तो चार साल बाद 1998 में केरल सरकार ने ये केस फिर से शुरू कराया. किसी केस की दोबारा जांच सच तक पहुंचने और इंसाफ की प्रक्रिया का ही हिस्सा होता है, लेकिन उसका क्या जब ये सब किसी खास इरादे से, किसी खास मकसद ने किया जा रहा हो?

अब तक नांबी नारायणन इसी की लड़ाई लड़ रहे थे. सुप्रीम कोर्ट ने नांबी नारायणन को फ्रेम करने के मामले में पुलिस अफसरों की भूमिका की जांच के लिए एक न्यायिक कमेटी का गठन भी किया है. ये कमेटी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस डीके जैन की अध्यक्षता में काम करेगी जिसमें केंद्र और केरल सरकार अपने सदस्य अलग से नियुक्त करेंगे.

नांबी नारायणन केरल के पूर्व डीजीपी सिबी मैथ्यू और दो रिटायर हो चुके पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई चाहते हैं. दरअसल, सिबी मैथ्यू ने ही 1994 के इसरो जासूसी कांड की जांच की थी. हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कह दिया था कि इन अफसरों के खिलाफ जांच की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जांच कमेटी बनायी है. असल में नांबी नारायणन को बरी करते हुए सीबीआई ने इन्हीं अफसरों को उनकी गिरफ्तारी के लिए जिम्मेदारा माना था.

देखा जाये तो इसरो जासूसी कांड देश की तरक्की में ऐसा कांटा बना कि देश को अंतरिक्ष के क्षेत्र में काफी पीछे छोड़ दिया. ऐसा भी नहीं है कि देश में अंतरिक्ष के क्षेत्र में कोई तरक्की हुई ही नहीं, लेकिन उस क्षेत्र विशेष में काम हुआ होता तो खास मुकाम तो हासिल हुआ ही होता.

बीबीसी के इसी सवाल के जवाब में नांबी नारायणन कहते हैं, "बिलकुल. ये इंजन सालों पहले बन गया होता. वैसे भी जो चीज हुई ही नहीं उसे कोई कैसे साबित करता. खैर, मैंने खुद को साबित किया और इस पूरे मामले की वजह से बहुत से लोगों का हौसला टूट गया, जिसका नतीजा हुआ कि पूरा प्रोजेक्ट धीमा पड़ गया."

नांबी नारायणन को इंसाफ तो मिल चुका है लेकिन हिसाब बराबर होना बाकी है. सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि नांबी नारायणन को संविधान से मिले 'सम्मान से जीने का हक' छीनने की कोशिश की गयी. नांबी नारायणन देश के लिए काम कर रहे थे और उन्हें जानबूझ कर जासूस साबित करने की नाकाम कोशिश की गयी. एक देशभक्त को जासूस साबित करने वाले आखिर देशद्रोही नहीं तो और क्या कहलाएंगे? फर्जी जासूसी कांड के गुनहगारों को सिर्फ नांबी नारायणन को फर्जी तरीके से फंसाने, यातना देने के लिए ही नहीं, बल्कि देशद्रोह का भी केस चलाया जाना चाहिये.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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