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कर्नाटक में भाजपा आराम से जीत सकती है अगर इस समीकरण को देखें तो!

    • आईचौक
    • Updated: 17 अप्रिल, 2018 08:52 PM
  • 17 अप्रिल, 2018 08:52 PM
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पिछले चुनावों में मतदाताओं ने अपना वोट किस आधार पर दिया और संबंधित दलों को कितने वोटों में बढ़ोतरी हुए ये राज्य के वोटिंग पैटर्न को समझने में मदद करता है.

नॉर्थ ईस्ट में अपनी बुलंदी का झंडा गाड़ने के बाद भाजपा की नजर अब दक्षिण भारत पर है. खासकर कर्नाटक पर. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जद्दोजहद कर रही कांग्रेस ने भी कर्नाटक चुनावों में कमर कस ली है. कर्नाटक चुनावों में तीसरा पक्ष पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल (सेक्यूलर) है. एक तरफ जहां दोनों चिर प्रतिद्वंदी- कांग्रेस और भाजपा, अपनी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं. वहीं दूसरी तरफ इतिहास कुछ और ही कहानी बयान करता है.

1985 के बाद से कर्नाटक में किसी पार्टी की लगातार दो बार सरकार नहीं बनी है. और 1978 में देवराज उर्स को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री जिसने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है वो दोबारा सीएम की कुर्सी पर बैठा है.

राज्य का राजनीतिक भूगोल-

कर्नाटक में 224 विधानसभा सीटें और 28 लोकसभा सीटें हैं. पूरा राज्य मुख्य रुप से 6 भागों में बंटा है- हैदरबाद से सीमाएं जुड़ने वाला क्षेत्र हैदराबाद कर्नाटक. इस क्षेत्र में 40 विधानसभा सीटें आती हैं. उसके बाद बॉम्बे कर्नाटक (50 सीटें), तटीय क्षेत्र (19 सीटें), मैसूर (65 सीट), सेंट्रल कर्नाटक (22 सीट) और बैंगलोर सिटी (28 सीट).

आगामी चुनाव में जातीय समीकरण का अहम योगदान रहने वाला है. राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत लिंगायत समुदाय हैं. इस बार चुनाव में लिंगायत समुदाय केंद्र में हैं. ये समुदाय 100 सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकता है जो किसी भी पार्टी के लिए गेम चेंजर हो सकता है. 1990 में जब तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने लिंगायत मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त कर दिया था तब से परंपरागत रुप से कांग्रेस समर्थक, लिंगायत समुदाय कांग्रेस पार्टी से नाराज था. अगले चुनावों में कांग्रेस ने आज तक का अपना सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया था.

मोदी लहर...

नॉर्थ ईस्ट में अपनी बुलंदी का झंडा गाड़ने के बाद भाजपा की नजर अब दक्षिण भारत पर है. खासकर कर्नाटक पर. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जद्दोजहद कर रही कांग्रेस ने भी कर्नाटक चुनावों में कमर कस ली है. कर्नाटक चुनावों में तीसरा पक्ष पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल (सेक्यूलर) है. एक तरफ जहां दोनों चिर प्रतिद्वंदी- कांग्रेस और भाजपा, अपनी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं. वहीं दूसरी तरफ इतिहास कुछ और ही कहानी बयान करता है.

1985 के बाद से कर्नाटक में किसी पार्टी की लगातार दो बार सरकार नहीं बनी है. और 1978 में देवराज उर्स को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री जिसने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है वो दोबारा सीएम की कुर्सी पर बैठा है.

राज्य का राजनीतिक भूगोल-

कर्नाटक में 224 विधानसभा सीटें और 28 लोकसभा सीटें हैं. पूरा राज्य मुख्य रुप से 6 भागों में बंटा है- हैदरबाद से सीमाएं जुड़ने वाला क्षेत्र हैदराबाद कर्नाटक. इस क्षेत्र में 40 विधानसभा सीटें आती हैं. उसके बाद बॉम्बे कर्नाटक (50 सीटें), तटीय क्षेत्र (19 सीटें), मैसूर (65 सीट), सेंट्रल कर्नाटक (22 सीट) और बैंगलोर सिटी (28 सीट).

आगामी चुनाव में जातीय समीकरण का अहम योगदान रहने वाला है. राज्य की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत लिंगायत समुदाय हैं. इस बार चुनाव में लिंगायत समुदाय केंद्र में हैं. ये समुदाय 100 सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकता है जो किसी भी पार्टी के लिए गेम चेंजर हो सकता है. 1990 में जब तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने लिंगायत मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त कर दिया था तब से परंपरागत रुप से कांग्रेस समर्थक, लिंगायत समुदाय कांग्रेस पार्टी से नाराज था. अगले चुनावों में कांग्रेस ने आज तक का अपना सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया था.

मोदी लहर का असर रहा तो कुछ भी मुमकिन है

कर्नाटक में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण समुदाय वोक्कलिगा है. राज्य की आबादी का 15 प्रतिशत वोक्कलिग हैं. ये जनता दल (सेक्युलर) पार्टी के वफादार मतदाता हैं. लिंगायतों द्वारा अलग धार्मिक राज्य की मांग को उठाने के बाद, वोक्कालिगा ने भी उनका अनुसरण किया. लिंगायत को ज्यादा तरजीह देने के कारण ये समुदाय  भाजपा और कांग्रेस दोनों से नाराज है.

वोक्कलिगा समुदाय मुख्य रूप से दक्षिणी कर्नाटक में स्थित हैं. दक्षिण कर्नाटक के जिले जैसे मंड्या, हसन, मैसूर, बैंगलोर (ग्रामीण), टुमकुर, चिकबल्लापुर, कोलार और चिकमगलूर इसमें शामिल हैं. इन दो समुदायों के बाद, राज्य में तीसरा सबसे बड़ा समुदाय दलित है. दलितों की आबादी 23 प्रतिशत है. ये दलित दो भागों "वाम दलित", या मदिगास या "अछूत" और "दक्षिणपंथी दलित" या "छूत" या होलीया समुदायों में विभाजित हैं.

मदिगास समुदाय को कांग्रेस सरकार से कुछ फायदों की उम्मीद थी. लेकिन क्योंकि उन्हें राज्य की किसी भी योजना से लाभ नहीं हुआ है. इसलिए वो राज्य सरकार से नाराज हैं. वहीं दूसरी तरफ होलीया समुदाय से आने वाले कांग्रेसी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी के लिए उनके समर्थन को मजबूत किया है. तीसरी पार्टी- जेडी(एस) बीएसपी के साथ चुनाव लड़ रही है. बीएसपी दलित वोटों को अपनी तरफ खींच सकती है और कांग्रेस के दलित वोट बैंक के एक बड़े हिस्से को खत्म कर सकती है. 2008 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 36 सीटों में से 22 पर जीत हासिल की थी. हालांकि 2013 में कांग्रेस ने वापसी की थी.

अब तक इन चुनावों में दरकिनार किए गए मुस्लिम भी नतीजे पलट सकते हैं. मुस्लिम समुदाय राज्य की आबादी का 9 प्रतिशत हिस्सा हैं और ये मुख्यत: तटीय कर्नाटक में केंद्रित हैं. 2013 में भाजपा इस क्षेत्र में भारी हार का सामना करना पड़ा था. 19 सीटों में से वो सिर्फ तीन सीटें ही जीतने में कामयाब हो पाई थी जबकि कांग्रेस ने 12 सीटें जीतीं थी.

वोटिंग पैटर्न

कांग्रेस को अपने वोट प्रतिशत को सीटों में बदलने का चैलेंज है

पिछले चुनावों में मतदाताओं ने अपना वोट किस आधार पर दिया और संबंधित दलों को कितने वोटों में बढ़ोतरी हुए ये राज्य के वोटिंग पैटर्न को समझने में मदद करता है. 1994 के अलावा कर्नाटक में, कांग्रेस को कभी भी 35 प्रतिशत से कम वोट नहीं मिले. फिर चाहे लोकसभा चुनाव हों या फिर विधानसभा चुनाव. 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बावजूद भी कांग्रेस को 41.5 फीसदी वोट मिले थे और 9 सीटें जीती थी. 2008 के विधानसभा चुनावों में भाजपा जीती थी. मजेदार बात ये है कि इस चुनाव में जीतने वाली पार्टी भाजपा को 33.86 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस को 34.76 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे. यानी जीतने वाली पार्टी से 0.9 प्रतिशत अधिक.

2014 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा ने 43.37 प्रतिशत वोटों के साथ 28 में से 17 सीटें जीतीं. अगर 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों पर जाएं तो, भाजपा 113 सीटों के लक्ष्य को आसानी से हासिल कर सकती है. 2008 में भाजपा को 33.86 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2014 से 10 प्रतिशत कम हैं.

2013 के विधानसभा चुनावों में जेडी(एस) को 20.15 प्रतिशत वोट मिले थे, 2014 में पार्टी को सिर्फ 11.07 प्रतिशत वोट मिले. इस चुनाव में उन्हें सिर्फ दो सीटें मिली थीं.

इस समय भी जेडी(एस) एक बार फिर से ऐसी स्थिति में है कि अगर दोनों पार्टियों को बहुमत नहीं मिलता तो वो किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं. एक तरफ जहां जातिय समीकरण और वोटिंग पैटर्न किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनाव में ध्यान देने के लिए दो महत्वपूर्ण फैक्टर हैं. लेकिन फिर भी वो इस साल के चुनावों के परिणामों की भविष्यवाणी करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.

लेकिन इस बात की भविष्यवाणी करना आसान है कि यह चुनाव तीनों दलों - कांग्रेस, भाजपा और जेडी(एस) के लिए एक कड़ा इम्तिहान साबित होने वाला है.

(ये लेख अमित पांडे ने DailyO के लिए लिखा था)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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