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जिन्ना ने कैसे पाकिस्तान के जन्‍म के साथ ही बर्बादी रच दी थी

    • जी पार्थसारथी
    • Updated: 07 मई, 2018 03:42 PM
  • 07 मई, 2018 03:42 PM
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पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के दो चहरे थे. एक ओर जिन्‍ना उदार थे. सिगार, व्हिस्की के शौकीन थे. सूअर का मांस खाते थे. लेकिन दूसरी ओर वे पाकिस्‍तान में कट्टरपंथियों को मजबूती देने वाले नेता भी थे.

हुसैन हक्कानी की किताब "रीइमैजिनिंग पाकिस्तान" में बड़े ही दिलचस्प तरीके से पाकिस्तान के "वैश्विक आतंकवाद के केंद्र" के रूप में उभरने की परिस्थितियों के बारे में बताया गया है. ये किताब उन लोगों के पढ़ने के लिए बहुत जरुरी है जो बड़ी ही मासूमियत से ये मानते हैं कि पाकिस्तान और पाकिस्तान में रहने वाले लोग "हम" से अलग नहीं हैं. क्योंकि "हम दोनों का इतिहास और हमारी विरासत एक ही है."

हक्कानी का खुद का अपना करियर और उनका जीवन पाकिस्तान में महत्वाकांक्षी युवाओं के उत्पीड़न का प्रतीक है. जब 1983 में इस्लामाबाद में मैं उनसे मिला था तब हक्कानी एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू ही किया था. हक्कानी ने Far eastern Economic review में पत्रकार के तौर पर काम करने लगे थे. तब वो सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक और वहाबी विचारधारा के तहत उनके "कट्टरपंथी इस्लाम" को बढ़ावा देने की उनकी नीतियों का कट्टर समर्थक था.

हक्कानी ने पाकिस्तान की पोल खोलकर रख दी है

इसके बाद, हक्कानी ने प्रतिद्वंद्वियों नवाज शरीफ और असिफ अली जरदारी के अंतर्गत काम किया. उन्होंने कोलंबो और वाशिंगटन में पाकिस्तान के दूत के रूप में अपनी सेवाएं दीं. अब वो पाकिस्तान की राजनीति की खामियों और इसमें पाकिस्तानी सेना की भूमिका की बात को स्वीकार करते हैं. ये किताब पाकिस्तान के बनने के पीछे के दोषों के बीच घूमती है. पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना स्पष्ट रूप से उदार व्यक्ति थे, सिगार पीते थे, व्हिस्की-पीने वाले, सूअर का मांस खाने वाले, ब्रिटेन से पढ़े वकील थे.

जिन्ना ने भारत के अंदर ही हैदराबाद, जुनागढ़ और यहां तक कि जोधपुर जैसे क्षेत्रों को पाने के लिए अपने "उदारवाद" को अपनी इच्छा से मिला दिया. तब देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जो खुद को सदियों तक भारत पर...

हुसैन हक्कानी की किताब "रीइमैजिनिंग पाकिस्तान" में बड़े ही दिलचस्प तरीके से पाकिस्तान के "वैश्विक आतंकवाद के केंद्र" के रूप में उभरने की परिस्थितियों के बारे में बताया गया है. ये किताब उन लोगों के पढ़ने के लिए बहुत जरुरी है जो बड़ी ही मासूमियत से ये मानते हैं कि पाकिस्तान और पाकिस्तान में रहने वाले लोग "हम" से अलग नहीं हैं. क्योंकि "हम दोनों का इतिहास और हमारी विरासत एक ही है."

हक्कानी का खुद का अपना करियर और उनका जीवन पाकिस्तान में महत्वाकांक्षी युवाओं के उत्पीड़न का प्रतीक है. जब 1983 में इस्लामाबाद में मैं उनसे मिला था तब हक्कानी एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू ही किया था. हक्कानी ने Far eastern Economic review में पत्रकार के तौर पर काम करने लगे थे. तब वो सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक और वहाबी विचारधारा के तहत उनके "कट्टरपंथी इस्लाम" को बढ़ावा देने की उनकी नीतियों का कट्टर समर्थक था.

हक्कानी ने पाकिस्तान की पोल खोलकर रख दी है

इसके बाद, हक्कानी ने प्रतिद्वंद्वियों नवाज शरीफ और असिफ अली जरदारी के अंतर्गत काम किया. उन्होंने कोलंबो और वाशिंगटन में पाकिस्तान के दूत के रूप में अपनी सेवाएं दीं. अब वो पाकिस्तान की राजनीति की खामियों और इसमें पाकिस्तानी सेना की भूमिका की बात को स्वीकार करते हैं. ये किताब पाकिस्तान के बनने के पीछे के दोषों के बीच घूमती है. पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना स्पष्ट रूप से उदार व्यक्ति थे, सिगार पीते थे, व्हिस्की-पीने वाले, सूअर का मांस खाने वाले, ब्रिटेन से पढ़े वकील थे.

जिन्ना ने भारत के अंदर ही हैदराबाद, जुनागढ़ और यहां तक कि जोधपुर जैसे क्षेत्रों को पाने के लिए अपने "उदारवाद" को अपनी इच्छा से मिला दिया. तब देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जो खुद को सदियों तक भारत पर शासन करने वाले मुस्लिम शासकों का सच्चा उत्तराधिकारी मानते थे. पाकिस्तान में आज भी ऐसे संभ्रांत पाकिस्तानी लोगों की कोई कमी नहीं है जिन्हें ये विश्वास है कि क्योंकि वो गोरे हैं इसलिए उनके पूर्वज उपमहाद्वीप से नहीं बल्कि मुस्लिम दुनिया वाले हैं.

मुख्य रूप से नस्ली मतभेद की यही भावना थी जिसने पूर्व के सांवले रंग के बंगाली बोलने वाले लोगों के बीच खूनी संघर्ष को अंजाम दिया और नतीजतन बांग्लादेश का जन्म हुआ. हक्कानी ने किताब में जिन्ना और उनके नेतृत्व में पाकिस्तान के जन्म के आस-पास के समय के विरोधाभासों और भ्रम की स्थिति के बारे में विस्तार से लिखा है. जिन्ना ने आधुनिक विचारधारा का व्यक्ति होने और अपने व्यवसाय के बावजूद उन्होंने मुस्लिम मौलवियों और धार्मिक गुरूओं को राजनीतिक आंदोलन में पूरी स्वतंत्रता दे दी.

पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष तब उपजा जब जिन्ना ने बंगाली भाषा को वैधता देने से इंकार कर दिया. भारत से पाकिस्तान विस्थापित हुए लोगों के अलावा उर्दू न तो पाकिस्तान के पहले शासकों की भाषा थी न ही वहां के रहने वालों की. लेकिन फिर भी ये लोग उर्दू को अपनी जुबान बनाने के लिए अड़े हुए थे. और ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि उर्दू विदेशी मुस्लिम शासकों की जुबान थी और उनके बीच लोकप्रिय भी थी.

पाकिस्तानी सेना ने देश को खोखला करने में कसर नहीं छोड़ी

इस्लामी कट्टरवाद जनरल ज़िया के एक दशक के लंबे शासन के दौरान तेजी से फैला. हक्कानी अफगानिस्तान में सोवियत हमले के बाद पाकिस्तानी सेना और लश्कर-ए-तैयबा जैसे उनके पसंदीदा जिहादी समूहों की हानिकारक भूमिका का भी एक विस्तृत विवरण देते हैं. हक्कानी ने यह भी बताया कि पाकिस्तान की सेना ने कैसे लगातार सरकारों के अधिकार को कमजोर किया और 9/11 के बाद अमेरिका द्वारा "आतंक पर युद्ध" में शामिल होकर देश को बर्बाद कर दिया.

उस किताब में उन पत्रकारों और अन्य नागरिकों के "गायब होने" का भी जिक्र है जो सरकार और सेना से मुश्किल सवाल पूछते थे. अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने और अफगानिस्तान में तालिबान के समर्थन में पाकिस्तान की सेना की गतिविधियों का स्पष्ट रूप से खुलासा किया. और अमेरिका के "आतंकवाद पर युद्ध" के प्रति वफादारी की शपथ ली. पाकिस्तान आर्मी के दोमुंहे व्यवहार को दुनिया के सामने ले आया.

किताब का अंतिम अध्याय आज के समय में पढ़ने के लिए सबसे दिलचस्प और प्रासंगिक है. पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति को बयान करते हुए चैप्टर में लिखा गया है कि कैसे "कमजोर नागरिक सरकारों ने लोकप्रियता की चाह में और सैन्य सरकारों से अपनी वैधता साबित कराने के लिए परेशान", ने देश को आर्थिक गर्त में धकेल दिया.

पाकिस्तान के निराशाजनक आर्थिक प्रदर्शन के कारणों पर हक्कानी ने आईएमएफ की अध्यक्ष क्रिस्टीन लागर्ड जैसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री के विचारों को भी दर्शाया है. आखिरी अध्याय में उन्होंने उन गलतियों का जिक्र किया है जिसने पाकिस्तान को धार्मिक चरमपंथ और दिवालियापन के कगार पर ला खड़ा किया है.

हक्कानी सलाह देते हैं, "देशभक्ति की एक संकीर्ण परिभाषा के बजाय देश के बेहतर भविष्य के लिए कार्य करना चाहिए और उन रास्तों की खोज करनी चाहिए जिससे देश तरक्की राह पर चले. हालांकि इस तरह के पुनर्विचार का कोई संकेत तो नहीं है."

ये हर भारतीय के लिए एक सीख है जिसपर मुश्किल में पड़े पड़ोसी के बारे में बात करते समय हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए. दुख बात ये है कि इस समय कोई "आसान रास्ता" नहीं है!

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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