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कश्मीर पंचायत चुनाव में सबसे कम वोटिंग का रिकॉर्ड बनने के मायने

    • आईचौक
    • Updated: 12 अक्टूबर, 2018 09:16 PM
  • 12 अक्टूबर, 2018 09:16 PM
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जम्मू-कश्मीर में दो राउंड वोटिंग हो चुकी है - दो बाकी है. श्रीनगर में 2.3 फीसदी मतदान के साथ सबसे कम वोटिंग का रिकॉर्ड भी बन चुका है. अब इस चुनाव को भला क्या नाम दिया जाये?

जम्मू कश्मीर में स्थानीय निकायों के लिए चुनाव हो रहे हैं - आधे हो चुके हैं और आधे बाकी हैं. पहले और दूसरे चरण के चुनाव 8 और 10 अक्टूबर को हुए. तीसरे और चौथे चरण के 13 और 16 अक्टूबर को होने हैं.

वैसे जो कुछ हो रहा है वो नाममात्र का ही चुनाव है. ऐसे में जबकि उम्मीदवार न मीटिंग कर पायें न चुनाव प्रचार, फिर वोटिंग की कितनी उम्मीद की जा सकती है. ऐसा लग रहा है जैसे चुपके चुपके कोई मुहिम चलायी जा रही हो, जिसे चुनाव नाम दे दिया गया है.

दो साल पहले लोक सभा की दो सीटों के लिए उपचुनाव होने थे, लेकिन सिर्फ श्रीनगर में ही हो सकता. अनंतनाग उपचुनाव आखिरकार रद्द करना पड़ा. अनंतनाग लोक सभा सीट पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के बाद से खाली पड़ी हुयी है.

चुनाव का तो सिर्फ नाम है

अप्रैल 2017 में श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लिए जब उपचुनाव हुए तो महज सात फीसदी से कुछ ज्यादा वोट दर्ज किये गये. इतने ही वोट के साथ नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला लोक सभा पहुंच गये.

ये भला कौन सा चुनाव हुआ? ऐसे चुनाव का क्या मतलब जब बहुसंख्यक आबादी वोट डालने से दूसरी बना ले. वजह कुछ भी हो सकती है, लेकिन हकीकत तो यही है. ये ठीक है कि जो लोग भी वोट डालते हैं उसी संख्या के हिसाब से हार जीत का फैसला होता है - और नतीजे घोषित कर दिये जाते हैं. हां, अनंतनाग की तुलना में तो श्रीनगर को ऊंचा स्थान प्राप्त होगा ही क्योंकि श्रीनगर में चुनाव हुए और अनंतनाग में रद्द करना पड़ा.

वोट जितने भी पड़ें नतीजे तो उसी आधार पर तय होंगे...

श्रीनगर में कुल 7.14 फीसदी वोट डाले गये थे और चुनावी हिंसा में 8 लोगों की मौत हुई थी. ये 30 साल में सबसे कम वोटिंग रही. जब 38 बूथों पर दोबारा चुनाव हुए तो और भी बुरा हाल रहा - सिर्फ 2 फीसदी वोटिंग दर्ज की...

जम्मू कश्मीर में स्थानीय निकायों के लिए चुनाव हो रहे हैं - आधे हो चुके हैं और आधे बाकी हैं. पहले और दूसरे चरण के चुनाव 8 और 10 अक्टूबर को हुए. तीसरे और चौथे चरण के 13 और 16 अक्टूबर को होने हैं.

वैसे जो कुछ हो रहा है वो नाममात्र का ही चुनाव है. ऐसे में जबकि उम्मीदवार न मीटिंग कर पायें न चुनाव प्रचार, फिर वोटिंग की कितनी उम्मीद की जा सकती है. ऐसा लग रहा है जैसे चुपके चुपके कोई मुहिम चलायी जा रही हो, जिसे चुनाव नाम दे दिया गया है.

दो साल पहले लोक सभा की दो सीटों के लिए उपचुनाव होने थे, लेकिन सिर्फ श्रीनगर में ही हो सकता. अनंतनाग उपचुनाव आखिरकार रद्द करना पड़ा. अनंतनाग लोक सभा सीट पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के बाद से खाली पड़ी हुयी है.

चुनाव का तो सिर्फ नाम है

अप्रैल 2017 में श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के लिए जब उपचुनाव हुए तो महज सात फीसदी से कुछ ज्यादा वोट दर्ज किये गये. इतने ही वोट के साथ नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला लोक सभा पहुंच गये.

ये भला कौन सा चुनाव हुआ? ऐसे चुनाव का क्या मतलब जब बहुसंख्यक आबादी वोट डालने से दूसरी बना ले. वजह कुछ भी हो सकती है, लेकिन हकीकत तो यही है. ये ठीक है कि जो लोग भी वोट डालते हैं उसी संख्या के हिसाब से हार जीत का फैसला होता है - और नतीजे घोषित कर दिये जाते हैं. हां, अनंतनाग की तुलना में तो श्रीनगर को ऊंचा स्थान प्राप्त होगा ही क्योंकि श्रीनगर में चुनाव हुए और अनंतनाग में रद्द करना पड़ा.

वोट जितने भी पड़ें नतीजे तो उसी आधार पर तय होंगे...

श्रीनगर में कुल 7.14 फीसदी वोट डाले गये थे और चुनावी हिंसा में 8 लोगों की मौत हुई थी. ये 30 साल में सबसे कम वोटिंग रही. जब 38 बूथों पर दोबारा चुनाव हुए तो और भी बुरा हाल रहा - सिर्फ 2 फीसदी वोटिंग दर्ज की गयी. बहरहाल, इतने ही वोटों में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री सांसद बन कर हंसते हंसते लोक सभा पहुंच गये.

जम्मू कश्मीर से आ रही खबरों में जो आंकड़े सुनने को मिले हैं वे सिर्फ फिक्र बढ़ाने वाले हैं. श्रीनगर नगर निगम के 19 वार्डों में से 9 में वोट डालने वालों की तादाद तो 100 से भी कम दर्ज की गयी. इसी तरह सैयद अली अकबर और टंकीपुरा वार्डों में वोट डालने पहुंचे लोग तो दहाई का आंकड़ा भी नहीं पार कर पाये. सैयद अली अकबर वार्ड में 7,784 वोटर हैं और वोट डालने घर से निकले सिर्फ 9. टंकीपुरा के 10, 371 मतदाताओं में से तो महज 8 ही पोलिंग बूथ तक पहुंच पाये.

चुनाव आयोग के अनुसार श्रीनगर शहर के 1.78 लाख मतदाताओं में से सिर्फ 2.3 फीसदी लोग ही वोट डालने के लिए अपने घरों से बाहर निकले. ये किसी भी चुनाव में अब तक के सबसे कम वोटिंग का रिकॉर्ड है. अब इस चुनाव को भला क्या नाम दिया जाये?

चुनाव बहिष्कार के बीच फायदे में बीजेपी

जिस तरह पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज्यादा फायदा हुआ था, जम्मू-कश्मीर में तकरीबन वही हाल बीजेपी का है. वजह और किरदार भले अलग हों लेकिन जम्मू कश्मीर में भी उम्मीदवार दहशत के साये में चुनाव लड़ रहे हैं.

13 साल बाद हो रहे जम्मू-कश्मीर के निकाय चुनावों में आतंकवादियों की दहशत और दो बड़े दलों के बहिष्कार से स्थिति बड़ी नाजुक हो चली है. धारा 35A के सवाल पर महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और फारूक परिवार की नेशनल कांफ्रेंस ने पहले ही चुनावों का बहिष्कार कर रखा है. नतीजा ये हुआ है कि 215 वार्डों में उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो चुकें हैं और इनमें ज्यादातर बीजेपी के हैं. दूसरी तरफ 177 वार्ड ऐसे हैं जहां एक भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं है. जम्मू कश्मीर में नगर पालिका और स्थानीय निकायों के कुल 1,145 वॉर्ड हैं जिनमें 90 अनुसूचित जाति और 38 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

कैसे न लगे कि मैच तो फिक्स्ड है?

किसी भी उम्मीदवार के लिए कश्मीर घाटी में चुनाव प्रचार करना भारी पड़ रहा है. महिलाओं के मुकाबले पुरुषों के लिए चुनावी मुहिम चलाना और लोगों से मुलाकात या मीटिंग करना भी आसान काम नहीं है. कई जगह तो बंद कमरे में भी बात और मुलाकात भारी पड़ रही है. दरअसल, आतंकवादियों ने चुनावों के बहिष्कार की धमकी दे डाली है - ये समझाते हुए कि ये चुनाव नहीं बल्कि फौजी मुहिम का हिस्सा है.

बड़े दिनों बाद जम्मू-कश्मीर में किसी फौजी बैकग्राउंड वाले की जगह राजनीतिक व्यक्ति को भेजा गया है. बिहार के बाद जम्मू कश्मीर के गवर्नर बने सत्यपाल मलिक के एक बयान ने बिगड़े चुनावी माहौल को और हवा दे डाली है. गवर्नर के बयान से विरोधियों को निकाय चुनावों को पहले से फिक्स्ड बताने का मौका मिल गया है.

एक टीवी चैनल से बातचीत के दौरान एक सवाल के जबाव में राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कह डाला, "...दोनों पार्टियों को अफसोस है कि उन्होंने चुनावों में हिस्सा नहीं लिया... मेरी जानकारी के अनुसार श्रीनगर को एक नया महापौर मिल रहा है जो विदेश से पढ़ा हुआ युवा है..." इतना सुनते ही नेशनल कांफ्रेंस के नेता और दूसरे पक्ष समझाने में जुट गये कि चुनाव नतीजे तो पहले से ही तय हैं.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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