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राष्ट्रगान: परेशानी या परेशानी का हल..?

    • डीपी पुंज
    • Updated: 30 नवम्बर, 2016 05:12 PM
  • 30 नवम्बर, 2016 05:12 PM
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राष्ट्रगान को सिनेमाघरों में अनिवार्य करना, एक मुहिम का हिस्सा है जिसका मकसद देशवासियों के दिल और मन में मर रहे देशभक्ति के भाव को ज़िंदा करना है या कुछ और..?

आज सुप्रीम कोर्ट को नियम बनाने की जरुरत क्यों पड़ी? क्या आज लोगों में देशभक्ति कम हो रही है? ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिसमें कहा गया है कि 'सभी नागरिकों को राष्ट्रगान और राष्ट्र ध्वज का सम्मान करना चाहिए' यह एक मुहिम का हिस्सा है जिसका मकसद देशवासियों के दिल और मन में मर रहे देशभक्ति के भाव को ज़िंदा करना है या कुछ और..?

हम आज ऐसी हालात पर कैसे पहुंचे? क्या आने वाले समय में सेना में भर्ती हो कर देश की सेवा करने वालो की भी कमी हो जाएगी? और फिर उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट को एक फैसला देना पड़ेगा कि 'सेना में भर्ती होना सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है'. क्या ऐसे समय की तरफ बढ़ रहे हैं हम? क्या राष्ट्रगान से विमुख युवा एक दिन सेना में भर्ती होने से भी कतराएंगे? तब क्या होगा देश का? क्या हम फिर से गुलामी की तरफ बढ़ रहे हैं? कैसे हम इस उदासीनता तक पहुंचे? क्या इसका सफर बहुत पहले से तय हो रहा था?

 

इसका जवाब खोजने पर बस एक कारण दिखता है कि हमारे आजाद भारत के राजा महाराजाओं (देश चलाने वाले लोग) ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई और समय रहते देशहित में मत्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाए. लुंज-पुंज और ढीला-ढाला शासन चलाया जिसका परिणाम यह हुआ कि आज ना हमारा जेल सुरक्षित है ना सेना के बेस कैंप और ना ही देश की सीमा. जब ये ही सुरक्षित नहीं हैं तो देश कैसे सुरक्षित होगा. क्या हम फिर 1947 से पहले की तरफ बढ़ रहे हैं, क्या हम गुलामी के बाद कुछ ज्यादा ही आजादी खोजने लगे हैं और देशहित को पीछे छोड़ दिया है?

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आज सुप्रीम कोर्ट को नियम बनाने की जरुरत क्यों पड़ी? क्या आज लोगों में देशभक्ति कम हो रही है? ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिसमें कहा गया है कि 'सभी नागरिकों को राष्ट्रगान और राष्ट्र ध्वज का सम्मान करना चाहिए' यह एक मुहिम का हिस्सा है जिसका मकसद देशवासियों के दिल और मन में मर रहे देशभक्ति के भाव को ज़िंदा करना है या कुछ और..?

हम आज ऐसी हालात पर कैसे पहुंचे? क्या आने वाले समय में सेना में भर्ती हो कर देश की सेवा करने वालो की भी कमी हो जाएगी? और फिर उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट को एक फैसला देना पड़ेगा कि 'सेना में भर्ती होना सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है'. क्या ऐसे समय की तरफ बढ़ रहे हैं हम? क्या राष्ट्रगान से विमुख युवा एक दिन सेना में भर्ती होने से भी कतराएंगे? तब क्या होगा देश का? क्या हम फिर से गुलामी की तरफ बढ़ रहे हैं? कैसे हम इस उदासीनता तक पहुंचे? क्या इसका सफर बहुत पहले से तय हो रहा था?

 

इसका जवाब खोजने पर बस एक कारण दिखता है कि हमारे आजाद भारत के राजा महाराजाओं (देश चलाने वाले लोग) ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई और समय रहते देशहित में मत्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाए. लुंज-पुंज और ढीला-ढाला शासन चलाया जिसका परिणाम यह हुआ कि आज ना हमारा जेल सुरक्षित है ना सेना के बेस कैंप और ना ही देश की सीमा. जब ये ही सुरक्षित नहीं हैं तो देश कैसे सुरक्षित होगा. क्या हम फिर 1947 से पहले की तरफ बढ़ रहे हैं, क्या हम गुलामी के बाद कुछ ज्यादा ही आजादी खोजने लगे हैं और देशहित को पीछे छोड़ दिया है?

ये भी पढ़ें- अब क्या कहेंगे, सुप्रीम कोर्ट भी 'भगवा' और 'भक्त' हो गया ?

राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिज्ञों का पतन होना और उनका भ्रष्टाचारी होना, सत्ता सुख में उनका लिप्त होना और विलासिता में उनका जकड़ जाना देश की सेहत पर आज भारी पड़ रहा है. हमारा देश आर्थिक सामाजिक और सामरिक दृष्टि से खतरे में है. राजनीति का आलम ऐसा है कि सिर्फ नफरत की राजनीति हो रही है. देश छोड़ व्यक्तिगत मुद्दे पर लोग बात कर रहे हैं, आपसी झगड़ों और खींचतान में देश को लगभग भुला दिया गया है. जिसकी कीमत आम जनता आज चुका रही है और आने वाले लंबे समय में भी यही जनता फूट फूट कर रोएगी.

आज के दौर में एक पार्टी के राजनेता दूसरे पार्टी के राजनेता से बस उसके चेहरे से नफरत करता है उसके प्रधानमंत्री बनने की सम्भावना से नफरत करता है, उसके प्रधानमंत्री बन जाने से नफरत करता है, उसके कपड़ों से नफरत करता है तो उसके सुधार कार्यक्रमों से नफरत करता है, उसके विदेश दौरों से नफरत, उसके भाषण से नफरत, भाषण की भावुकता से नफरत, भाषण की दृढ़ताओं से नफरत और तो और पाकिस्तान से वार्ता पर नफरत, पाकिस्तान से सख्ती पर नफरत, काले धन पर अभियान न चलाने पर नफरत, अभियान चलाने पे भी नफरत.

लोकतंत्र का सरोकार जनता से होता है पर आज के दौर में लोकतंत्र राजनीतिक पार्टियों का बंधक बन चुका है. अगर कोई मुद्दा किसी खास पार्टी को सूट नहीं करता तो वो उसका पुरजोर विरोध करता है और जनता के नफा नुकसान भूल जाता है. जिस कदम से जनता को नुकसान हुआ है उस कदम को ही सही बताने में लग जाते हैं और भ्रम फैलाने की राजनीति शुरू हो जाती है. आज सब ऐसे हो रहा है जैसे किसी को देश की पड़ी ही नहीं हो बस अपना उल्लू सीधा करने में राजनेता लगे हैं.

ये भी पढ़ें- सनी लियोनी की फिल्म विद राष्ट्र गान !

राजनेता अपना खेल इतना बारीकी और बखूबी से करते हैं कि जनता हमेशा कन्फ्यूज्ड और धोखे में रहती है. जो राजनेता एक मुद्दे को एक समय में तो अच्छा बताते हैं वही राजनेता दूसरे समय में उस मुद्दे को अपने सुविधा अनुसार बुरा बता देते हैं. जनता राजनेता की जादूगरी को समझ नहीं पाती है और लगातार ठगी जाती है.

देशभक्ति के ह्रास में ये राजनेता सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि जब इनके द्वारा जनता मुर्ख बनती है, ठगी जाती है तो जनता देश और तंत्र से उदासीन हो जाती है और फिर तिरंगा हो या राष्ट्रगान उसके दिल में उतना भाव नहीं जगा पाते जितना कि उसके संतुष्ट रहने से जगता और फिर इस तरह सुप्रीम कोर्ट को आखिर में फैसला सुनना पड़ता है. 'सभी नागरिकों को राष्ट्रगान और राष्ट्र ध्वज का सम्मान करना चाहिए...' और  'सिनेमा हॉल में फिल्म दिखाए जाने से पहले राष्ट्रगान हो...'

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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