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सिंधु पर एक नया समझौता 'आतंकवाद' खत्म करने के लिए !

    • राकेश उपाध्याय
    • Updated: 26 सितम्बर, 2016 10:40 PM
  • 26 सितम्बर, 2016 10:40 PM
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सिंधु नदी पर संभावित नए मसौदे को आतंकवाद से जोड़ना भी एक विकल्प है. सरहद पार से आतंकवाद प्रायोजित हुआ तो प्रत्येक आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान को मिलने वाले पानी में कटौैती का प्रावधान होना चाहिए.

भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते की बुनियाद जिस आपसी विश्वास और भरोसे पर टिकी थी, कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने उस बुनियादी भरोसे को हिलाकर रख दिया है. अब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं सिंधु नदी जल समझौते की समीक्षा में जुट गए हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं कि आखिर समझौते का भविष्य क्या है और क्या इसके जरिए भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहा आपसी तनाव दूर हो सकता है, क्या सिंधु नदी जल समझौते को रद्द करने का भय दिखाकर पाकिस्तान पर नकेल कसने की रणनीति कामयाब होगी और क्या इससे आतंकवाद का खात्मा हो सकेगा?

विशेषज्ञों की राय इस मामले में भारत और पाकिस्तान के बीच तमाम मसलों पर उभरे मतभेदों की तरह ही बंटी हुई दिख रही है. पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा समेत पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले तबके की राय है कि सरकार को फौरन संधि को तोड़ देना चाहिए और एकतरफा पाकिस्तान की प्यास बुझाने के लिए सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बंटवारे में चली आ रही जल की लूट को समाप्त कर पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहिए.

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार ब्रह्मा चेलानी की राय भी यशवंत सिन्हा की राय से मिलती-जुलती है. चेलानी के मुताबिक, भारत के पास सिंधु समझौते से पीछे हटने की वाजिब वजहें हैं. पाकिस्तान ने समझौते की बुनियाद यानी आपसी सद्भावना और विश्वास को एकतरफा छति पहुंचाई है, ऐसे में संधि के बने रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. हालांकि कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ मामले में कठोर रुख आख्तियार करने की बजाए समझ बूझकर फैसला लेने को हितकारी मानते हैं.

जी पार्थसारथी के मुताबिक, अंतर्राष्ट्रीय संधियों में एकतरफा कार्रवाई कभी उचित नहीं होती. हमें पड़ोसी देश चीन समेत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच हमारे बारे में बनने वाली छवि का भी ध्यान रखना होगा.

इसे भी पढ़ें: सिंधु जल समझौता...

भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते की बुनियाद जिस आपसी विश्वास और भरोसे पर टिकी थी, कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने उस बुनियादी भरोसे को हिलाकर रख दिया है. अब जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं सिंधु नदी जल समझौते की समीक्षा में जुट गए हैं तो सवाल उठने लाजिमी हैं कि आखिर समझौते का भविष्य क्या है और क्या इसके जरिए भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहा आपसी तनाव दूर हो सकता है, क्या सिंधु नदी जल समझौते को रद्द करने का भय दिखाकर पाकिस्तान पर नकेल कसने की रणनीति कामयाब होगी और क्या इससे आतंकवाद का खात्मा हो सकेगा?

विशेषज्ञों की राय इस मामले में भारत और पाकिस्तान के बीच तमाम मसलों पर उभरे मतभेदों की तरह ही बंटी हुई दिख रही है. पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा समेत पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले तबके की राय है कि सरकार को फौरन संधि को तोड़ देना चाहिए और एकतरफा पाकिस्तान की प्यास बुझाने के लिए सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बंटवारे में चली आ रही जल की लूट को समाप्त कर पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहिए.

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार ब्रह्मा चेलानी की राय भी यशवंत सिन्हा की राय से मिलती-जुलती है. चेलानी के मुताबिक, भारत के पास सिंधु समझौते से पीछे हटने की वाजिब वजहें हैं. पाकिस्तान ने समझौते की बुनियाद यानी आपसी सद्भावना और विश्वास को एकतरफा छति पहुंचाई है, ऐसे में संधि के बने रहने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. हालांकि कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ मामले में कठोर रुख आख्तियार करने की बजाए समझ बूझकर फैसला लेने को हितकारी मानते हैं.

जी पार्थसारथी के मुताबिक, अंतर्राष्ट्रीय संधियों में एकतरफा कार्रवाई कभी उचित नहीं होती. हमें पड़ोसी देश चीन समेत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच हमारे बारे में बनने वाली छवि का भी ध्यान रखना होगा.

इसे भी पढ़ें: सिंधु जल समझौता तोड़ने पर खतरा चीन से है!

जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में प्रोफेसर संजय भारद्वाज तीसरा विकल्प सुझाते हैं. भारद्वाज के मुताबिक, सरकार को सिंधु जल समझौता एकतरफा तोड़ने से परहेज करना चाहिए. इसके बजाए सिंधु जल समझौते की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए जिसमें जल के बंटवारे का फार्मूला बदला जा सकता है.

आखिर जो समझौता 1960 में हुआ, उसमें बदलाव क्यों नहीं हो सकता जबकि भारत की जरूरतें बढ़ी हैं, आबादी बढ़ी है और पाकिस्तान का बर्ताव ऐसे समझौते के बावजूद दुश्मनी और कलह को बढ़ावा देने वाला है.

 सिंधु जल समझौते की पुनर्समीक्षा

भारत सरकार के रणनीतिकारों के सामने भी सिंधु जल समझौते को तोड़ने के पहले कई चुनौतियां खड़ी हैं. मसलन, सिंधु जल समझौते को तोड़ने से कहीं आपसी कलह में जूझ रहे पाकिस्तान के अनेक प्रांतों को एकजुट करने का पाकिस्तान को बहाना तो नहीं मिल जाएगा. विकास की दौड़ में लगातार पीछे जा रहे पाकिस्तान को ये तर्क देने का मौका भी मिलेगा कि भारत ने ही उसके विकास की रफ्तार को रोक रखा है. यानी पाकिस्तान दुनिया भर में भारत के खिलाफ कुप्रचार की नई आंधी खड़ी कर सकता है.

सरकार के रणनीतिकारों का एक गुट जैसे को तैसा की नीति के तहत सिंधु जल समझौते को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का हथियार बनाने का समर्थक हैं. मसलन, पाकिस्तान को मौजूदा वक्त में सिंधु और उसकी सहायक नदियों से मिल रहे 80 फीसद से ज्यादा पानी पर सशर्त बंधन लगाए जा सकते हैं. कश्मीर पर सरहद पार से होने वाले हर हमले के एवज में 10 फीसद या 20 फीसद पानी की कटौती करने की बात कही जा सकती है. ऐसी शर्तें लगाने से एक ओर पाकिस्तान पर नैतिक दबाव भी बनेगा कि वह आतंकवादियों को भारत के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल होने से रोके वरना भारत की ओर से मिल रहे पानी में लगातार कटौती होती चली जाएगी और एक वक्त ऐसा भी आ सकता है कि भारत एकतरफा पानी के बहाव को भी रोक सकता है.

बीते शुक्रवार को केंद्रीय जल संसाधन और गंगा पुनरोद्धार मंत्री उमा भारती ने इस मसले पर सिंधु समझौते के आयुक्त समेत मंत्रालय के सभी सचिवों के साथ पूरी रिपोर्ट तलब की थी. जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय से संकेत मिलने के बाद ही जल संसाधन मंत्रालय ने इस बारे में भविष्य की रणनीति पर चर्चा और समीक्षा शुरु की थी. अब सवाल सिंधु जल समझौते के साथ भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के भविष्य पर भी खड़े हैं क्योंकि पानी के सवाल पर तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़े विश्व के सामने सिंधु जल बंटवारा चिंगारी भड़काने का भी काम कर सकता है तो पाकिस्तान को सुधर जाने के लिए हंटर भी बन सकता है.

इसे भी पढ़ें: अल कायदा की पाकिस्तान को चेतावनी! ये गुड और बैड तालिबान का साइडइफेक्ट है

सिंधु जल समझौता 1960 की अहम बातें-

19 सितंबर 1960 को कराची और इस्लामाबाद में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच विश्व बैंक के वरिष्ठ उपाध्यक्ष डब्ल्यू एबी लिफ की मौजूदगी में सिंधु जल समझौते के प्राथमिक ड्राफ्ट पर दस्तखत हुए. जनवरी 1961 में नई दिल्ली पर समझौते को अंतिम रूप दिया गया और भारत पाकिस्तान ने इस पर मुहर लगाई. दोनों देशों ने आपसी विश्वास-भरोसे और सहयोग को आगे बढ़ाने की शर्त को समझौते की बुनियाद बताया.

समझौते के अन्तर्गत सिंधु की सहायक नदियों सतलज, व्यास और रावी को पूर्वी नदी के तौर पर मान्य किया गया तो झेलम, चेनाब, सिंधु नदी को पश्चिमी नदियों के तौर पर. पूर्वी नदियों के पानी के इस्तेमाल पर भारत के अधिकार को इस शर्त के साथ मान्य किया गया कि इसके पानी को भारत पाकिस्तान में भी प्रवाहित होने देगा जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु यानी पश्चिम की नदियों के जल के इस्तेमाल पर पाकिस्तान का हक मंजूर किया गया. समझौते के अन्तर्गत सिंधु की सहायक नदियों का 80 फीसद जल पाकिस्तान के कब्जे में चला गया तो भारत को सिर्फ 20 फीसद जल के इस्तेमाल का ही अधिकार मिला. विशेषज्ञों के मुताबिक, पाकिस्तान के साथ दूरगामी शांति और सहयोग की उम्मीद करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इस अन्यायपूर्ण समझौते पर विश्व बैंक के दबाव में दस्तखत किए.

  सिंधु जल समझौते की पुनर्समीक्षा (चित्र: गूगल मैप)

समझौते के अन्तर्गत सिंधु जल स्थायी आयोग का भी गठन हुआ जिसमें भारत और पाकिस्तान की ओर से कमिश्नर नियुक्त किए गए. आयोग को सिंधु जल समझौते के क्रियान्वयन, देख-रेख और पानी के बंटवारे संबंधी तथ्यों की देख-रेख की जिम्मेदारी सौंपी गई.

मामले में भारतीय जल विशेषज्ञ एसके गर्ग, के वारिकू, बीआर चौहान और एमएस मेनन ने समझौते के वक्त ही सवाल उठा दिए थे. इन विशेषज्ञों के मुताबिक, नदी के प्रवाह क्षेत्र, नदी के प्रवाह पर अवलंबित आबादी और भौगोलिक हिस्सेदारी को देखते हुए भी सिंधु जल समझौते में भारत का सिंधु बेसिन की नदियों के करीब 43 फीसद जल पर पूरा अधिकार बनता था लेकिन जानबूझकर एकतरफा पाकिस्तान को 80 फीसद पानी देकर भारत ने जम्मू-कश्मीर की बड़ी आबादी के आर्थिक और जल संबंधी जरूरतों के साथ जहां अन्याय किया वहीं पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान समेत अपने उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की आबादी के हितों को भी नजरअंदाज किया.

समझौते के शुरुआती चरण में, पाकिस्तान की ओर से विश्व बैंक के सामने यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि चूंकि सिंधु की सहायक नदियों का महज 10 फीसद जल भारतीय क्षेत्र के लोग बंटवारे के समय तक इस्तेमाल करते थे और 90 फीसद हिस्सा पाकिस्तान के इलाके के लोग इस्तेमाल कर रहे थे इसलिए पाकिस्तान का सिंधु और उसकी सहायक नदियों के 90 फीसद जल पर स्वाभाविक अधिकार बनता है. हालांकि बैठकों में भारतीय विशेषज्ञों ने पाकिस्तान के इस तर्क को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि सिंधु और उसकी सभी सहायक नदियां भारतीय क्षेत्र से निकलती हैं, इन नदियों की ऊपरी जलधारा पर डैम बनाने, बिजली, सिंचाई और पेयजल के लिए इनके इस्तेमाल का भारत के लोगों का स्वाभाविक अधिकार है, लिहाजा बंटवारे के बाद पाकिस्तान भारत पर इस बात के लिए दबाव नहीं बना सकता कि वह पाकिस्तान के हक के लिए सिंधु बेसिन की नदियों के पानी का अपनी जरुरतों के हिसाब से इस्तेमाल नहीं करे.

समझौता तोड़ने के लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा का प्रस्तावः

2 मार्च 2003 को जम्मू-कश्मीर सरकार ने सिंधु जल समझौते को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया. बाकायदा विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर मांग की गई है इस समझौते से जम्मू-कश्मीर के लोगों का भविष्य अंधकारमय हो गया है लिहाजा इसे फौरन खत्म किया जाए. समझौते की वजह से सिंधु और सहायक नदियों पर बिजली के लिए बांध बनाने, सिंचाई के लिए नहर निकालने का काम सरकार नहीं कर पा रही है.

दरअसल समझौते की धारा थ्री-2-डी के मुताबिक, भारत को सिंधु की सहायक तीन पश्चिमी नदियों झेलम, चिनाब और सिंधु के जल का घरेलू इस्तेमाल, कृषि कार्य के लिए इस्तेमाल का अधिकार होगा, रन ऑफ द रिवर में भारत हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट भी इस तरह लगा सकेगा कि पानी के बहाव में कोई रुकावट पैदा न हो. भारत इन नदियों के जल को रोकने के लिए किसी बड़े जलाशय का निर्माण नहीं करेगा. भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि झेलम, चिनाब और सिंधु नदियों का जल बहाव के निचले इलाके तक अबाधित पहुंच रहा है जो हिस्सा पाकिस्तान में है.

इन्हीं शर्तों के कारण पाकिस्तान ने भारत की ओर से चिनाब नदी पर बनने वाले सलाल प्रोजेक्ट, टुलबुल-वुलर बैराज प्रोजेक्ट, बगलिहार बांध और किशनगंगा बांध प्रोजेक्ट समेत एक दर्जन के करीब पावर प्रोजेक्ट पर विवाद खड़े कर दिए.

तो क्या आजादी के वक्त से ही भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर चल रहे विवाद के पीछे सिंधु बेसिन का जल-संघर्ष भी प्रमुख वजह है? पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने वाशिंगटन पोस्ट में लिखे लेख में साफ किया था कि ‘पाकिस्तान में पैदा होने वाले किसी भी जल-संकट का सीधा रिश्ता भारत से है. भारत के साथ पाकिस्तान का मधुर रिश्ता दक्षिण एशिया में किसी भी बड़ी पर्यावरणीय आपदा को रोक सकता है लेकिन अगर हमारे बीच रिश्ते नाकाम रहते हैं तो यह पाकिस्तान में उस असंतोष की आग को और ज्यादा भड़का सकता है जिसका नतीजा उग्रवादी हिंसा और आतंकवाद की ओर बढ़ता है.’

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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