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2024 चुनाव में मोदी के आगे क्यों फीका है खिचड़ी विपक्ष का आइडिया

    • देवेश त्रिपाठी
    • Updated: 30 जुलाई, 2021 03:28 PM
  • 30 जुलाई, 2021 03:28 PM
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नरेंद्र मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष बनाने की अपील सबसे पहले ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव के दौरान की थी. अब उसी संयुक्त विपक्ष को बनाने की बिखरी बिखरी तैयारी चल रही है. एक तरह शरद पंवार विपक्षी दलों को आमंत्रित कर रहे हैं, वहीं ममता बनर्जी ने दिल्ली पहुंचकर इस दिशा में कोशिशें तेज कर दी हैं. लेकिन इससे नरेंद्र मोदी या बीजेपी को कितना फर्क पड़ेगा?

2024 के आम चुनाव के मद्देनजर देश के राजनीतिक दलों में अभी से हलचल महसूस की जा सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ एक राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की कोशिशों में बीते कुछमहीनों से काफी तेजी आई है. एनसीपी चीफ शरद पवार के घर पर हुई विपक्षी नेताओं और मोदी सरकार विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग की एक बैठक में भाजपा के खिलाफ एक मोर्चा बनाने की कवायद की गई थी. हालांकि, इस बैठक के अगले ही दिन सफाई भी दे दी गई थी कि इस मीटिंग में किसी नए राजनीतिक मोर्चे को बनाने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. वहीं, कांग्रेस नेता कमलनाथ के साथ मुलाकात के बाद शरद पवार ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के बिना वैकल्पिक मोर्चा खड़ा करना नामुमकिन है. तीसरे या वैकल्पिक मोर्चे की सुगबुगाहट के बीच देश के मशहूर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी कहते हुए दिखे कि उन्हें यकीन नहीं है- तीसरा या चौथा मोर्चा भाजपा को चुनौती दे सकता है.

वैसे, नरेंद्र मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष बनाने की अपील सबसे पहले ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव के दौरान की थी. बंगाल चुनाव में जीत के बाद ममता बनर्जी विपक्ष का सबसे मजबूत चेहरा बनकर उभरीं. तृणमूल कांग्रेस की मुखिया भी इन दिनों अपने दिल्ली दौरे पर विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर रही हैं. ममता बनर्जी ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ ही राहुल गांधी से भी मुलाकात की. संभावना जताई जा रही है कि कांग्रेस के इस गठबंधन में शामिल होने के बाद भाजपा और पीएम मोदी के सामने एक चुनौती खड़ी की जा सकती है. हालांकि, इस खिचड़ी विपक्ष बनाने की राह में अभी भी राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय स्तर तक कई रोड़े हैं. आइए जानते हैं कि 2024 चुनाव में खिचड़ी विपक्ष का आइडिया मोदी के आगे क्यों फीका है?

संयुक्त विपक्ष की कवायद में जुटे...

2024 के आम चुनाव के मद्देनजर देश के राजनीतिक दलों में अभी से हलचल महसूस की जा सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ एक राजनीतिक विकल्प खड़ा करने की कोशिशों में बीते कुछमहीनों से काफी तेजी आई है. एनसीपी चीफ शरद पवार के घर पर हुई विपक्षी नेताओं और मोदी सरकार विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग की एक बैठक में भाजपा के खिलाफ एक मोर्चा बनाने की कवायद की गई थी. हालांकि, इस बैठक के अगले ही दिन सफाई भी दे दी गई थी कि इस मीटिंग में किसी नए राजनीतिक मोर्चे को बनाने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं. वहीं, कांग्रेस नेता कमलनाथ के साथ मुलाकात के बाद शरद पवार ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के बिना वैकल्पिक मोर्चा खड़ा करना नामुमकिन है. तीसरे या वैकल्पिक मोर्चे की सुगबुगाहट के बीच देश के मशहूर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी कहते हुए दिखे कि उन्हें यकीन नहीं है- तीसरा या चौथा मोर्चा भाजपा को चुनौती दे सकता है.

वैसे, नरेंद्र मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्ष बनाने की अपील सबसे पहले ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव के दौरान की थी. बंगाल चुनाव में जीत के बाद ममता बनर्जी विपक्ष का सबसे मजबूत चेहरा बनकर उभरीं. तृणमूल कांग्रेस की मुखिया भी इन दिनों अपने दिल्ली दौरे पर विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर रही हैं. ममता बनर्जी ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ ही राहुल गांधी से भी मुलाकात की. संभावना जताई जा रही है कि कांग्रेस के इस गठबंधन में शामिल होने के बाद भाजपा और पीएम मोदी के सामने एक चुनौती खड़ी की जा सकती है. हालांकि, इस खिचड़ी विपक्ष बनाने की राह में अभी भी राष्ट्रीय स्तर से लेकर क्षेत्रीय स्तर तक कई रोड़े हैं. आइए जानते हैं कि 2024 चुनाव में खिचड़ी विपक्ष का आइडिया मोदी के आगे क्यों फीका है?

संयुक्त विपक्ष की कवायद में जुटे राजनीतिक दल केवल मोदी हटाओ के नारे के सहारे मिशन 2024 को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाएंगे.

'मोदी हटाओ' का नारा नाकाफी

2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने राफेल डील के नाम पर 'चौकीदार चोर है' का नारा निकाला था. लेकिन, इसे काउंटर करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मैं भी चौकीदार' का जो दांव खेला. उसकी वजह से पूरा विपक्ष बैकफुट पर आ गया. वहीं, इस टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट का जिक्र करने को लेकर राहुल गांधी को माफी मांगनी पड़ी थी, सो अलग. संयुक्त विपक्ष की कवायद में जुटे राजनीतिक दल केवल मोदी हटाओ के नारे के सहारे मिशन 2024 को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाएंगे. ये नारा सिर्फ तभी काम करेगा, जब मोदी के खिलाफ कोई गंभीर आरोप हो और उसमें सीधे उनकी संलिप्तता नजर आए. ऐसा आरोप फिलहाल नरेंद्र मोदी पर नजर नहीं आता है.

विपक्ष के पास वैकल्पिक मॉडल नहीं

2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार अपनी विचारधारा और एजेंडे को आगे बढ़ाती रही है. तीन तलाक, सीएए, राम मंदिर, धारा 370 जैसे मुद्दों को भाजपा ने हमेशा से अपने एजेंडे में रखा और इन्हें पूरा भी कर दिया. भाजपा के पास भविष्य के लिए भी कॉमन सिविल कोड, जनसंख्या नियंत्रण कानून जैसे दर्जनों मुद्दे हैं, जिसके बल पर वह लोगों को एकजुट करने के हरसंभव प्रयास कर सकती है. लेकिन, भाजपा के खिलाफ बनाए जा रहे गठबंधन वाले विपक्ष के पास भाजपा विरोध ही एकमात्र मुद्दा है. देश की मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए विपक्ष पूरी तरह से एजेंडा विहीन नजर आता है. भारत में 80 से 85 फीसदी तेल आयात किया जाता है. क्या विपक्ष के सत्ता में आने पर भारत में तेल के कुएं खोजे जाएंगे? अगर विपक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स घटा भी देती है, तो सरकारी योजनाओं के लिए धन कहां से आएगा? मोदी सरकार वैसे ही पेट्रोल-डीजल के बढ़े हुए दामों को यूपीए सरकार के दौरान जारी किए गए ऑयल बॉन्ड का नतीजा बताती है.

दिल्ली में विधानसभा चुनाव अविंद केजरीवाल जीतते हैं लेकिन, सात लोकसभा सीटों में से एक भी उनके खाते में नही हैं.

विपक्ष का मानना- भक्त वोटर नहीं

मोदी के खिलाफ तैयार हो रहा विपक्ष मोदी समर्थकों को 'मोदी भक्त' की संज्ञा देता रहा है. इसके साथ ही विपक्ष का मानना है कि 'मोदी भक्त' वोटर नही हैं. लेकिन, अगर हम प्रशांत किशोर की बंगाल चुनाव के दौरान की लीक चैट पर भरोसा करें, तो ये बात स्पष्ट होकर सामने आती है कि वोटरों का करीब 20 फीसदी अकेले मोदी के पास है, जिन्हें आप 'मोदी भक्त' कह सकते हैं. और, इन मोदी भक्तों की बड़ी तादाद की मौजूदगी सोशल मीडिया पर भी नहीं है. जबकि, विपक्षी पार्टियों को विधानसभा चुनाव में वोट देने वाले भी कई लोग केंद्र में मोदी को वोट देते रहे हैं. इसे हम दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार से समझ सकते हैं. अरविंद केजरीवाल लगातार सत्ता में वापसी कर रहे हैं, लेकिन दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर उन्हें हार ही मिली है.

हिंदुत्व के आगे घुटने टेकतीं पार्टियां

देश में कई दशकों से मुस्लिम तुष्टिकरण किया जाता रहा है. अब वो शाहबानो मामले पर राजीव गांधी की सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने की बात हो या यूपीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक बताने का मामला हो. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश की आबादी के सबसे बड़ी हिस्से हिंदुओं के बीच ये नैरेटिव बन गया कि वे हमेशा ही दूसरे पायदान पर हैं. भाजपा अपनी पार्टी के गठन के समय से ही हिंदुत्व को लेकर स्पष्ट विचारधारा के साथ चली है. वहीं, अन्य राजनीतिक दलों ने मुस्लिम वोटबैंक के खिसकने के डर से धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटती रहीं. हालांकि, चुनाव में मिलने वाली लगातार हार के बाद सियासी पार्टियों ने सॉफ्ट हिंदुत्व के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश की. लेकिन, इसे भी भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया. भाजपा की ओर से प्रचारित किया गया कि ये उसकी पार्टी का ही असर है, जो नेता मंदिरों में जाने लगे. मोदी सरकार और भाजपा जहां खुलकर हिंदुत्व के एजेंडे पर चल रही हैं. वहीं, विपक्ष में कई पार्टियां धर्मनिरपेक्षता को लेकर पहले जैसी मुखर नहीं रहीं. बल्कि, वो भी सॉफ्ट हिंदुत्व का रास्ता अख्तियार करने लगी हैं. ऐसे में वो मोदी से हिंदुत्व के मुद्दे पर तो चुनाव लड़ना दूर की कौड़ी नजर आता है.

भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के तौर पर निर्विवाद और ताकतवर चेहरा है.

विपक्ष का चेहरा कौन

नरेंद्र मोदी के खिलाफ सशक्त विपक्ष बनाने की तैयारियां भले ही शुरू हो चुकी हों. लेकिन, इस विपक्ष का चेहरा कौन होगा, सबसे ज्यादा बहस इसी बात पर होनी है. भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के तौर पर निर्विवाद और ताकतवर चेहरा है. लेकिन, विपक्ष में नेतृत्व को लेकर अभी से ही खींचतान दिखने लगी है. ये खींचतान 2024 तक खत्म होती भी नहीं दिखती है. खिचड़ी विपक्ष में हर नेता खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताएगा. विपक्ष का सबसे बड़ा दल कांग्रेस राहुल गांधी को स्थापित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा. इस स्थिति में विपक्ष के सामने देशभर में सर्वस्वीकार्य नेता चुनने की बड़ी चुनौती है.

चुनाव हराऊ एंटी-इंकम्बेंसी नहीं

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान पैदा हुई भयावह स्थितियों की वजह से मोदी सरकार पर दबाव बना है. पेट्रोल-डीजल से लेकर घर की रसोई तक में महंगाई की मार झेल रहे आम लोगों के बर्दाश्त करने की सीमा पार हो गई है. लेकिन, क्या ये ऐसे मुद्दे हैं, जिनको लेकर जनता का गुस्सा ढाई साल से ज्यादा समय तक कायम रहेगा? राजनीति में ये आम धारणा है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है. उस पर मोदी और भाजपा को हवा बदलने में महारत हासिल है, उन्हें चुनाव जीतना आता है. हाल ही में हुए मोदी कैबिनेट विस्तार में इन तमाम मुद्दों पर फेल रहे मंत्रियों के चुन-चुनकर इस्तीफे लिए गए. नरेंद्र मोदी कोरोना से हुई मौतों पर भावुक भी हुए. क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि इससे बहुतों का नहीं, तो कुछ का दिल बदला ही होगा. 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा ने 2019 जो प्रचंड जीत हांसिल की, उसके बारे में किसने सोचा था. जबकि, बेरोजगारी और किसानों का मुद्दा तब भी था.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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