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CM बन सबकुछ गंवा चुके उद्धव पिता बाल ठाकरे की विरासत और अपनी सरकार कैसे बचाएंगे?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 16 अप्रिल, 2021 08:09 PM
  • 16 अप्रिल, 2021 08:09 PM
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मुख्यमंत्री बनने के बाद जनता के बीच जाने की कोई वजह उद्धव ठाकरे के पास नहीं है. अब शायद ही बाल ठाकरे की विरासत उनके काम आए जिस पर दावा करने के लिए राज ठाकरे फिर कोशिश के मूड में हैं. वाझे प्रकरण के बाद राजनीति में कई तरह की संभावनाएं दिख रही हैं.

साल 2013 में अप्रैल महीने की बात है. कुछ ही महीने पहले बाल ठाकरे का निधन हुआ था. तब एक पत्रकार के रूप में मुझे शिवसेना से अलग होकर मनसे बना चुके राज ठाकरे की दो सभाओं को कवर करने का मौका मिला. एक जलगांव में और दूसरी मुंबई की सभा थी. निश्चित ही महाराष्ट्र की सियासत का यह एक महत्वपूर्ण फेज था. दो वजहों से. शिवसेना पहली बार बिना बाल ठाकरे के दो बड़े चुनावों के मुहाने पर थी और मनसे चीफ का राजनीतिक भविष्य तय होना था. बाल ठाकरे ने भले ही बहुत पहले शांत, धीर-गंभीर और शारीरिक भाषा से अराजनीतिक दिखने वाले उद्धव को अपनी विरासत सौंप दी थी, लेकिन शिवसैनिकों के मन में गहरे बैठे उनके भतीजे का जादू बरक़रार था. मैंने उत्तर भारत की कई राजनीतिक रैलियां देखी-सुनी हैं. मगर अटल बिहारी वाजपेयी, कांशीराम और मायावती की सभाओं को छोड़ दिया जाए तो कम से कम अभी तक वैसा स्वत: स्फूर्त राजनीतिक जलसा कभी नहीं देख पाया. राज को सुनने के लिए लोग खुद चलकर आए. पूरा मैदान खचाखच भरा हुआ था.

भूमिका मैं इसलिए बना रहा हूं कि तब ये मान लिया गया था कि बाल ठाकरे ने बेटे को भले कमान सौंपी हो, मगर शिवसेना समर्थकों का मिजाज उन्हें राज ठाकरे के पास लेकर जाएगा. उस वक्त महाराष्ट्र में बाला साहेब से राज ठाकरे की तुलना होती थी. परछाई तक बताया जाता था. जबकि राज के सामने उद्धव को बहुत कमजोर माना जाता था. शिवसेना के बहुतायत समर्थकों का भी निष्कर्ष साफ था कि पुत्रमोह में बाला साहेब ने गलती की है. लेकिन चुनौतीपूर्ण माहौल में आगे के नतीजे ठीक उलट हैं. राज आंशिक सफलताओं (जैसे म्यूनिसिपल चुनाव) में चुक गए. उनके प्रशंसक बने रहे, सुनने के लिए अब भी स्वत: स्फूर्त भीड़ पहुंचती है, मगर ये कभी वोट में तब्दील नहीं हुआ. नतीजा सामने है. आज राज ठाकरे लगभग राजनीतिक हाशिए पर हैं.

बिना बाल ठाकरे के भी मजबूत नजर आ रहे थे उद्धव

दूसरी ओर उद्धव ठाकरे की उपलब्धि को लें तो साफ़ पता चलता है कि उन्होंने लोगों के आंकलन को झूठा साबित किया और उम्मीद से बहुत ज्यादा हासिल भी किया. बाला साहेब और राज...

साल 2013 में अप्रैल महीने की बात है. कुछ ही महीने पहले बाल ठाकरे का निधन हुआ था. तब एक पत्रकार के रूप में मुझे शिवसेना से अलग होकर मनसे बना चुके राज ठाकरे की दो सभाओं को कवर करने का मौका मिला. एक जलगांव में और दूसरी मुंबई की सभा थी. निश्चित ही महाराष्ट्र की सियासत का यह एक महत्वपूर्ण फेज था. दो वजहों से. शिवसेना पहली बार बिना बाल ठाकरे के दो बड़े चुनावों के मुहाने पर थी और मनसे चीफ का राजनीतिक भविष्य तय होना था. बाल ठाकरे ने भले ही बहुत पहले शांत, धीर-गंभीर और शारीरिक भाषा से अराजनीतिक दिखने वाले उद्धव को अपनी विरासत सौंप दी थी, लेकिन शिवसैनिकों के मन में गहरे बैठे उनके भतीजे का जादू बरक़रार था. मैंने उत्तर भारत की कई राजनीतिक रैलियां देखी-सुनी हैं. मगर अटल बिहारी वाजपेयी, कांशीराम और मायावती की सभाओं को छोड़ दिया जाए तो कम से कम अभी तक वैसा स्वत: स्फूर्त राजनीतिक जलसा कभी नहीं देख पाया. राज को सुनने के लिए लोग खुद चलकर आए. पूरा मैदान खचाखच भरा हुआ था.

भूमिका मैं इसलिए बना रहा हूं कि तब ये मान लिया गया था कि बाल ठाकरे ने बेटे को भले कमान सौंपी हो, मगर शिवसेना समर्थकों का मिजाज उन्हें राज ठाकरे के पास लेकर जाएगा. उस वक्त महाराष्ट्र में बाला साहेब से राज ठाकरे की तुलना होती थी. परछाई तक बताया जाता था. जबकि राज के सामने उद्धव को बहुत कमजोर माना जाता था. शिवसेना के बहुतायत समर्थकों का भी निष्कर्ष साफ था कि पुत्रमोह में बाला साहेब ने गलती की है. लेकिन चुनौतीपूर्ण माहौल में आगे के नतीजे ठीक उलट हैं. राज आंशिक सफलताओं (जैसे म्यूनिसिपल चुनाव) में चुक गए. उनके प्रशंसक बने रहे, सुनने के लिए अब भी स्वत: स्फूर्त भीड़ पहुंचती है, मगर ये कभी वोट में तब्दील नहीं हुआ. नतीजा सामने है. आज राज ठाकरे लगभग राजनीतिक हाशिए पर हैं.

बिना बाल ठाकरे के भी मजबूत नजर आ रहे थे उद्धव

दूसरी ओर उद्धव ठाकरे की उपलब्धि को लें तो साफ़ पता चलता है कि उन्होंने लोगों के आंकलन को झूठा साबित किया और उम्मीद से बहुत ज्यादा हासिल भी किया. बाला साहेब और राज ठाकरे की कमी से शिवसेना को नुकसान भी हुआ. तीन दशक में पहली बार बीजेपी से अलग अकेले चुनाव में उतरना पड़ा. उद्धव के नेतृत्व में अकेले चुनाव लड़कर भी शिवसेना का प्रदर्शन काडर के भरोसे और पार्टी की ताकत को बताने के लिए काफी था. अकेले लड़कर भी शिवसेना राज्य में संख्याबल और वोट शेयरिंग के हिसाब से 'मोदीमय' बीजेपी के बाद दूसरी बड़ी पार्टी थी. पहली बार राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी देकर बीजेपी संग पार्टी को छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा. तब भी शिवसेना ने भरसक कोशिश की थी कि किसी तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी को हथियाया जाए. हालांकि एनसीपी संग बीजेपी के गठबंधन की भनक से परेशान शिवसेना को आनन-फानन में समझौता करना पड़ा. अब तक महाराष्ट्र में राजनीति की एक धुरी पर काबिज उद्धव पार्टी की प्रासंगिकता बनाए रखने में कामयाब रहे.

शिवसेना की राजनीति का सबसे खराब समय दरअसल, इसके बाद शुरू होता है. 2019 में बीजेपी संग लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ने और स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बाद परदे के पीछे के समझौतों की वजह से (अमित शाह का कथित वादा कि शिवसेना के पास मुख्यमंत्री की कुर्सी रहेगी) उद्धव मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए अड़ गए. बीजेपी के मान मनौवल पर भी नहीं पिघले. जनादेश में सत्ता की रेस से बाहर कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन बना लिया. इस बीच अजित पवार के साथ बीजेपी ने नाटकीय ढंग से सरकार भी बना ली लेकिन कुछ ही घंटों में उसका अंत वैसे ही हुआ जैसे सरकार बनी थी.

उद्धव ठाकरे

मिली सिर्फ सत्ता, ठाकरे ने गंवाया बहुत कुछ

मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए ही उद्धव ठाकरे ने नया गठबंधन बनाया. ठाकरे की कोशिश थी कि महाराष्ट्र में बीजेपी को पछाड़कर वो पार्टी को पुरानी भूमिका में लेकर जाएंगे. लेकिन माहौल बता रहे हैं कि ठाकरे ने साख बचाने के लिए जो रास्ता चुना वह पार्टी की राजनीतिक भविष्य पर ही सवाल करने लगी है. 2019 में भी एनसीपी (54 सीट) से मामूली बढ़त लेते हुए शिवसेना दूसरा सबसे बड़ा दल है. 56 सीटों के साथ. लेकिन चुनाव बीजेपी संग लड़ा था. हमेशा किंगमेकर की भूमिका में रहने वाला ठाकरे परिवार सत्ता एक झटके में लोलुप साबित हो गया. सालों कांग्रेस और एनसीपी की खिलाफत कर पार्टी ने जो जमीन तैयार की थी, नए गठबंधन (महा विकास आघाडी) की वजह से उसपर भी बट्टा लग गया. पार्टी काडर हैरान था. शिवसेना नेताओं के अचानक से सुर बदल गए थे और वो बीजेपी ही नहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर भी प्रहार कर रही थी.

शिवसेना के मूड पर ही सवाल

बीजेपी के प्रचार तंत्र ने इन कई चीजों को कैम्पेन की तरह सोशल मीडिया में उद्धव के खिलाफ चलाया. हो सकता है कि लोगों को उद्धव की जो सत्ता लोलुपता दिखी, वो इसी कैम्पेन का भी नतीजा हो. लेकिन 2019 के बाद की शिवसेना बिल्कुल अलग थी. सोशल मीडिया की बहसें शिवसेना के चरित्र पर सवाल कर रही थीं. सार्वजनिक मंचों पर हिंदुत्व के राजनीतिक एजेंडा का विरोध करने वाले शिवसेना के बचाव में तर्क गढ़ रहे थे. पार्टी भी अयोध्या में राम मंदिर के लिए चंदा देने और हिंदुत्व के दूसरे मुद्दों पर बार-बार राय पार्टी की राय दोहराती रही. लेकिन उद्धव की पूरी मशीनरी सवाल का जवाब नहीं दे पाई कि "भले ही वो मुख्यमंत्री हैं सत्ता की चाभी शरद पवार और सोनिया गांधी के हाथ में हैं."

हाल ही में आजतक पर सीधी बात में शिवसेना सांसद संजय राऊत ने माना कि उद्धव, सोनिया गांधी से भी सलाह मशविरा करते हैं. हालांकि उन्होंने बचाव भी किया था- "सोनिया आघाड़ी में शामिल घटक कांग्रेस की बड़ी नेता हैं. इस लिहाज से उन्हें भी सम्मान देना जरूरी है." प्रभु चावला के साथ इंटरव्यू तक शिवसेना और मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे की साख को काफी बट्टा लग चुका था. सुशांत की मौत से लेकर हालिया सचिन वाझे-अनिल देशमुख-परमबीर सिंह प्रकरण तक जो भी सवाल हुए वो सीधे उद्धव ठाकरे तक पहुंचे. जवाब देने में भी कांग्रेस या एनसीपी नेताओं की बजाय शिवसेना को ही आगे आना पड़ा.

हर मोर्चे पर फेल दिखे उद्धव ठाकरे

शुरुआत से अब तक कोरोना मामलों के नियंत्रण में सरकार की भूमिका और वाझे प्रकरण में उद्धव ठाकरे पूरी तरह से फेल नजर आए. ठाकरे सरकार चौतरफा सवालों में थी, लेकिन उस पार्टी ने भी आगे बढ़कर मोर्चा लेने का साहस नहीं दिखाया जिसके मंत्री पर संगीन आरोप लगे थे. आरोप ठाकरे के दामन पर भी थे. यहां पहली बार सरेआम दिखा कि उद्धव ठाकरे एक असहाय मुख्यमंत्री हैं जो मात्र शरद पवार की कृपा से कुर्सी पर बैठे हैं. क्यों, इसका जवाब कहीं नहीं दिखता. मुख्यमंत्री के रूप में वो ज्यादा कुछ कर नहीं सकते. अनिल देशमुख को बचाने के लिए एनसीपी का दबाव सरकार पर साफ दिखा. नई राजनीतिक आशंकाओं से जब शरद पवार पीछे हटे तब देशमुख ने इस्तीफ़ा दिया. ठाकरे परिवार जिसके एक इशारे पर मुख्यमंत्रियों की कुर्सियां डगमगाने लगती थी, कुर्सी के बोझ तले उसका सबसे बड़ा नेता दबा नजर आया. इसकी वजह है.

'कॉपी राइट' खो चुकी है शिवसेना

उद्धव जिन्होंने बाल ठाकरे के बाद किसी तरह विरासत को संभाल कर रखा था, बीजेपी को पीछे छोड़ने के चक्कर में लगभग गंवाते नजर आ रहे हैं. सिर्फ कुर्सी भर के लिए उद्धव किसी भी स्तर (कांग्रेस-एनसीपी से गठबंधन) तक पहुंच गए. ये वही परिवार है जो कभी मुख्यमंत्री बनवाता था. पालघर में साधुओं की लिंचिंग से शिवसेना ने हिंदुत्व के कॉपीराइट पर बट्टा लगवा लिया और कोरोना महामारी में सरकार की भूमिका ने अक्षम मुख्यमंत्री साबित कर दिया. रही सही कसर पहले सुशांत की आत्महत्या केस और बाद में वाझे प्रकरण ने पूरी कर दी. सीधे मुख्यमंत्री तक पर आरोप लगने लगे. एक मुख्यमंत्री जिसकी सरकार में देश विरोधी साजिशें, आपराधिक कुचक्र रचा जा रहा था. परमबीर सिंह की चिट्ठी के मुताबिक़ एक मुख्यमंत्री जो सबकुछ जानते हुए भी निष्क्रिय था या कुछ करने की स्थिति में ही नहीं था. शिवसेना समर्थकों के लिए इससे बड़ा झटका और क्या हो सकता है? वाझे प्रकरण में जिस तेजी से सियासी घटनाक्रम बदले हैं उसमें बंगाल चुनाव के बाद महाराष्ट्र में राजनीतिक फेरबदल के कयास लग रहे हैं.

राजनीतिक समीकरणों पर कयास

यह अनायाश नहीं हैं. देशमुख पर केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा कसा हुआ है. शरद पवार, अमित शाह की मीटिंग भी इसी दौरान हुई. मीटिंग के बाद राजनीतिक हालात बदल जाने का दावा और पुख्ता तरीके किया जा रहा है. दरअसल, बीजेपी महाराष्ट्र में कई हथियारों से उद्धव ठाकरे पर एक साथ हमला कर रही है. केंद्रीय जांच एजेंसियां हैं, सोशल मीडिया की पूरी फ़ौज है जो उद्धव को सत्ता लोलुप साबित कर चुकी है. देवेंद्र फडणवीस जैसे तगड़े नेताओं की फ़ौज है जो एक मुद्दा ख़त्म होने से पहले ही दूसरा तैयार कर देते हैं. इन सबके सामने उद्धव, अलग-थलग मजबूर और कमजोर नजर आते हैं. कभी बेस्ट सीएम का खिताब दिया जाता था अब उसी से मीम्स बनाए जा रहे हैं.

बाल ठाकरे का नाम भी नहीं आएगा काम

अब भी उद्धव के पास एक विकल्प फिर से बीजेपी के साथ जाने का भी बना हुआ है. ताकत और जमीनी सच्चाई में शिवसेना की भूमिका छोटे भाई की ही बचेगी. लेकिन अगर नहीं गए और एनसीपी ही महा विकास आघाडी से निकल गई तो फिर क्या? सवाल यही है कि अगर ऐसा हुआ तो पूरी लड़ाई में उद्धव ठाकरे के हाथ शून्य से ज्यादा क्या बचेगा. क्योंकि अब मुख्यमंत्री बनने के बाद जनता के बीच उनके पास कहने को कुछ नहीं है. महाराष्ट्र में बीजेपी और एनसीपी ने पिछले सात सालों में जो हैसियत बनाई है उसमें शिवसेना के लिए मजबूत जमीन नजर नहीं आती. पार्टी साफ़तौर पर तीसरे नंबर पर पहुंचती दिख रही है. यानी अब शायद ही बाल ठाकरे की विरासत उद्धव के काम आए जिसपर दावा करने के लिए राज ठाकरे फिर कोशिश करने के मूड में दिख रहे हैं. वाझे प्रकरण के बाद राज ठाकरे ने जिस आक्रामकता से उद्धव सरकार पर सवाल उठाए थे वो काबिलेगौर हैं. राजनीति में हर तरह की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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